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बस्ते के बोझ तले दबा देश का भविष्य, सेहत पर भी पड़ रहा असर

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आदेश के बाद भी स्कूली बच्चों के बस्तों का बोझ कम होने का नाम नहीं ले रहा है. जिसकी वजह से बच्चों को कायफोसिस जैसी गंभीर बीमारियों से जूझना पड़ रहा है. लेकिन बैग का बोझ कम करने की दिशा में कुछ नहीं हो रहा है.

बस्तों के बोझ तले सिसकता बचपन
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Published : Sep 8, 2019, 10:25 AM IST

Updated : Sep 8, 2019, 11:22 AM IST

काशीपुर: स्कूली बच्चों के भारी भरकम बस्ते के बोझ तले दबते जा रहे हैं. लगभग सभी स्कूल बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और बेहतर माहौल देने का दावा करते हैं. लेकिन उनकी ओर से बस्तों के बोझ को कम करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. केजी से लेकर कक्षा पांच तक के बच्चों को रोजाना कई किमी भारी बस्ते को ढोकर स्कूल आना-जाना पड़ता है. लेकिन हैरानी की बात है कि उनकी इस परेशानी पर किसी की नजर नहीं पड़ती है. जिसका असर बच्चों की सेहत पर भी पड़ रहा है.

बस्ते के बोझ तले दबा देश का भविष्य

छोटे-छोटे बच्चे और उनके बड़े-बड़े भारी बस्ते. काशीपुर ही नहीं बल्कि प्रदेश के हर स्कूल में यही स्थिति देखने को मिलती है. गर्मी और मानसून के साथ-साथ भारी बैग बच्चों के पसीने निकाल देता है. बच्चों की इस तकलीफ को अभिभावक भी महसूस करते हैं. नए सेशन के शुरू होने के साथ ही पैरंट्स इस तरह की शिकायतें लेकर स्कूल व डॉक्टरों के पास पहुंचने लगे हैं.

स्कूली बच्चों के भारी बस्तों की समस्या काफी गंभीर है. लगभग सभी स्कूल बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, बेहतर माहौल देने का दावा ठोकते हैं. लेकिन हकीकत तस्वीरें बयां कर रही है. कमोवेश प्रदेश के हर स्कूल में बच्चों को भारी बस्ते के साथ स्कूल जाना पड़ता है. जिससे उनकी सेहत पर भी असर पड़ रहा है.

बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. रवि सहोता बताते हैं कि अगर बच्चे के स्कूल बैग का वजन बच्चे के वजन से 10 प्रतिशत अधिक होता है तो कायफोसिस होने की संभावना बढ़ जाती है. इससे सांस लेने की क्षमता प्रभावित होती है. भारी बैग के कंधे पर टांगने वाली पट्टी अगर पतली है तो कंधे की नसों पर असर पड़ता है. कंधे धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त होते हैं और उनमें हर समय दर्द बना रहता है.

पढे़ं- उत्तराखंड: हेली ड्रोम सम्मेलन का हुआ आयोजन, हवाई कनेक्टिविटी के विस्तार पर हुई चर्चा

मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) ने पहली से दसवीं तक के बच्चों के स्कूल बैग का अधिकतम बोझ तय किया है. जबकि पहली व दूसरी कक्षा के बच्चों का बस्ता डेढ़ किलो से ज्यादा भारी नहीं हो सकता. दसवीं के छात्रों के लिए इसकी अधिकतम सीमा पांच किलो तय है. उत्तराखंड शासन में सचिव आर मीनाक्षी सुंदरम ने 24 अप्रैल को विभागीय अधिकारियों को आदेश जारी कर एमएचआरडी के निर्देशों का शतप्रतिशत पालन सुनिश्चित कराने को कहा था. लेकिन इतना समय बीतने के बाद भी आदेश पर असर होता नहीं दिख रहा है.

वहीं सूबे के शिक्षा मंत्री अरविन्द पांडेय भी मान रहे है कि बच्चों के बस्ते का वजन ज्यादा है. इसके लिए उन्होंने शत प्रतिशत् एनसीईआरटी लागू कराने की बात कहते हैं. भारी बस्तों को लेकर एक बार फिर से चर्चा शुरू हो चुकी है. क्या ज्ञान हासिल करने के लिए यह बोझ उठाना जरूरी है. वो भी उन मासूमों को जिन्हें आगे चलकर न सिर्फ देश का भविष्य बनना है बल्कि भविष्य बेहतर भी बनाना है. अगर वे ही इस उम्र में बोझ तले दब कर रह गए तो आने वाले कल का क्या होगा ?

काशीपुर: स्कूली बच्चों के भारी भरकम बस्ते के बोझ तले दबते जा रहे हैं. लगभग सभी स्कूल बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और बेहतर माहौल देने का दावा करते हैं. लेकिन उनकी ओर से बस्तों के बोझ को कम करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. केजी से लेकर कक्षा पांच तक के बच्चों को रोजाना कई किमी भारी बस्ते को ढोकर स्कूल आना-जाना पड़ता है. लेकिन हैरानी की बात है कि उनकी इस परेशानी पर किसी की नजर नहीं पड़ती है. जिसका असर बच्चों की सेहत पर भी पड़ रहा है.

बस्ते के बोझ तले दबा देश का भविष्य

छोटे-छोटे बच्चे और उनके बड़े-बड़े भारी बस्ते. काशीपुर ही नहीं बल्कि प्रदेश के हर स्कूल में यही स्थिति देखने को मिलती है. गर्मी और मानसून के साथ-साथ भारी बैग बच्चों के पसीने निकाल देता है. बच्चों की इस तकलीफ को अभिभावक भी महसूस करते हैं. नए सेशन के शुरू होने के साथ ही पैरंट्स इस तरह की शिकायतें लेकर स्कूल व डॉक्टरों के पास पहुंचने लगे हैं.

स्कूली बच्चों के भारी बस्तों की समस्या काफी गंभीर है. लगभग सभी स्कूल बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, बेहतर माहौल देने का दावा ठोकते हैं. लेकिन हकीकत तस्वीरें बयां कर रही है. कमोवेश प्रदेश के हर स्कूल में बच्चों को भारी बस्ते के साथ स्कूल जाना पड़ता है. जिससे उनकी सेहत पर भी असर पड़ रहा है.

बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. रवि सहोता बताते हैं कि अगर बच्चे के स्कूल बैग का वजन बच्चे के वजन से 10 प्रतिशत अधिक होता है तो कायफोसिस होने की संभावना बढ़ जाती है. इससे सांस लेने की क्षमता प्रभावित होती है. भारी बैग के कंधे पर टांगने वाली पट्टी अगर पतली है तो कंधे की नसों पर असर पड़ता है. कंधे धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त होते हैं और उनमें हर समय दर्द बना रहता है.

पढे़ं- उत्तराखंड: हेली ड्रोम सम्मेलन का हुआ आयोजन, हवाई कनेक्टिविटी के विस्तार पर हुई चर्चा

मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) ने पहली से दसवीं तक के बच्चों के स्कूल बैग का अधिकतम बोझ तय किया है. जबकि पहली व दूसरी कक्षा के बच्चों का बस्ता डेढ़ किलो से ज्यादा भारी नहीं हो सकता. दसवीं के छात्रों के लिए इसकी अधिकतम सीमा पांच किलो तय है. उत्तराखंड शासन में सचिव आर मीनाक्षी सुंदरम ने 24 अप्रैल को विभागीय अधिकारियों को आदेश जारी कर एमएचआरडी के निर्देशों का शतप्रतिशत पालन सुनिश्चित कराने को कहा था. लेकिन इतना समय बीतने के बाद भी आदेश पर असर होता नहीं दिख रहा है.

वहीं सूबे के शिक्षा मंत्री अरविन्द पांडेय भी मान रहे है कि बच्चों के बस्ते का वजन ज्यादा है. इसके लिए उन्होंने शत प्रतिशत् एनसीईआरटी लागू कराने की बात कहते हैं. भारी बस्तों को लेकर एक बार फिर से चर्चा शुरू हो चुकी है. क्या ज्ञान हासिल करने के लिए यह बोझ उठाना जरूरी है. वो भी उन मासूमों को जिन्हें आगे चलकर न सिर्फ देश का भविष्य बनना है बल्कि भविष्य बेहतर भी बनाना है. अगर वे ही इस उम्र में बोझ तले दब कर रह गए तो आने वाले कल का क्या होगा ?

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Summary- स्कूली बच्चों के भारी बस्तों की समस्या काफी गंभीर है। लगभग सभी स्कूल बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, बेहतर माहौल देने का दावा ठोकते हैं बस्तों के बोझ को कम करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे। केजी से लेकर कक्षा पांच तक के बच्चे रोजाना कई किलो भारी बस्ता स्कूलों तक ले जाते हैं और उन्हें उसी बोझ के साथ वापस भी घर लौटना पड़ता है।

एंकर- छोटे-छोटे बच्चे और उनके बड़े-बड़े भारी बस्ते। काशीपुर ही नहीं बल्कि प्रदेश में आजकल यह सीन आम हो गया है। गर्मी और मानसून के साथ-साथ भारी बैग बच्चों के पसीने निकाल देता है। बच्चों की इस तकलीफ को पैरंट्स भी महसूस करते हैं। नए सेशन के शुरू होने के साथ ही पैरंट्स इस तरह की शिकायतें लेकर स्कूल व चिकित्स्कों के पास पहुंचने लगे हैं। बच्चों पर बस्ते और पढ़ाई के बढ़ते बोझ का दर्द। पेश है एक रिपोर्ट-

Body:बीओ- स्कूली बच्चों के भारी बस्तों की समस्या काफी गंभीर है। लगभग सभी स्कूल बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, बेहतर माहौल देने का दावा ठोकते हैं बस्तों के बोझ को कम करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे। केजी से लेकर कक्षा पांच तक के बच्चे रोजाना कई किलो भारी बस्ता स्कूलों तक ले जाते हैं और उन्हें उसी बोझ के साथ वापस भी घर लौटना पड़ता है।
बीओ - बाल रोग विशेषज्ञ डॉ रवि सहोता का कहना है कि अगर बच्चे के स्कूल बैग का वजन बच्चे के वजन से 10 प्रतिशत अधिक होता है तो काइफोसिस होने की आशंका बढ़ जाती है। इससे सांस लेने की क्षमता प्रभावित होती है। भारी बैग के कंधे पर टांगने वाली पट्टी अगर पतली है तो कंधे की नसों पर असर पड़ता है। कंधे धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त होते हैं और उनमें हर समय दर्द बना रहता है।

बीओ - मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) ने पहली से दसवीं तक के बच्चों के स्कूल बैग का अधिकतम बोझ तय किया है। पहली व दूसरी कक्षा के बच्चों का बस्ता डेढ़ किलो से ज्यादा भारी नहीं हो सकता। दसवीं के छात्रों के लिए इसकी अधिकतम सीमा पांच किलो तय है। उत्तराखंड शासन में सचिव आर मीनाक्षी सुंदरम ने 24 अप्रैल को विभागीय अधिकारियों को आदेश जारी कर एमएचआरडी के निर्देशों का शतप्रतिशत पालन सुनिश्चित कराने को कहा था । परन्तु इतना समय बीत चुका है, मगर आदेश पर असर होता नहीं दिख रहा है। जबकि सूबे के शिक्षा मंत्री अरविन्द पांडेय भी मान रहे है कि बच्चों के बस्ते का वजन ज्यादा है जिसके लिए वह शत प्रतिशत एन सी आर टी लागू कराने की बात कहते है

बीओ- भारी बस्तों को लेकर एक बार फिर से चर्चा शुरू हो चुकी है। क्या ज्ञान हासिल करने के लिए यह मेहनत और बोझ झेलना जरूरी है। वो भी उन मासूमों को जिन्हें आगे चलकर न सिर्फ देश का भविष्य बनना है बल्कि भविष्य बेहतर भी बनाना है। अगर वे ही इस उम्र में बोझ तले दब कर रह गए तो आने वाले कल का क्या होगा।

बाईट - अरविन्द पांडेय ( शिक्षा मंत्री, उत्तराखंड )
बाईट - डॉ रवि सहोता ( बाल रोग विशेषज्ञ )
बाईट - सुभाग्य ( स्कूली बच्चा)
बाईट - अलीश ( स्कूली बच्चा )
बाईट - नगमा ( स्कूली बालिका)Conclusion:
Last Updated : Sep 8, 2019, 11:22 AM IST
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