काशीपुर: स्कूली बच्चों के भारी भरकम बस्ते के बोझ तले दबते जा रहे हैं. लगभग सभी स्कूल बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और बेहतर माहौल देने का दावा करते हैं. लेकिन उनकी ओर से बस्तों के बोझ को कम करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. केजी से लेकर कक्षा पांच तक के बच्चों को रोजाना कई किमी भारी बस्ते को ढोकर स्कूल आना-जाना पड़ता है. लेकिन हैरानी की बात है कि उनकी इस परेशानी पर किसी की नजर नहीं पड़ती है. जिसका असर बच्चों की सेहत पर भी पड़ रहा है.
छोटे-छोटे बच्चे और उनके बड़े-बड़े भारी बस्ते. काशीपुर ही नहीं बल्कि प्रदेश के हर स्कूल में यही स्थिति देखने को मिलती है. गर्मी और मानसून के साथ-साथ भारी बैग बच्चों के पसीने निकाल देता है. बच्चों की इस तकलीफ को अभिभावक भी महसूस करते हैं. नए सेशन के शुरू होने के साथ ही पैरंट्स इस तरह की शिकायतें लेकर स्कूल व डॉक्टरों के पास पहुंचने लगे हैं.
स्कूली बच्चों के भारी बस्तों की समस्या काफी गंभीर है. लगभग सभी स्कूल बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, बेहतर माहौल देने का दावा ठोकते हैं. लेकिन हकीकत तस्वीरें बयां कर रही है. कमोवेश प्रदेश के हर स्कूल में बच्चों को भारी बस्ते के साथ स्कूल जाना पड़ता है. जिससे उनकी सेहत पर भी असर पड़ रहा है.
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. रवि सहोता बताते हैं कि अगर बच्चे के स्कूल बैग का वजन बच्चे के वजन से 10 प्रतिशत अधिक होता है तो कायफोसिस होने की संभावना बढ़ जाती है. इससे सांस लेने की क्षमता प्रभावित होती है. भारी बैग के कंधे पर टांगने वाली पट्टी अगर पतली है तो कंधे की नसों पर असर पड़ता है. कंधे धीरे-धीरे क्षतिग्रस्त होते हैं और उनमें हर समय दर्द बना रहता है.
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मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) ने पहली से दसवीं तक के बच्चों के स्कूल बैग का अधिकतम बोझ तय किया है. जबकि पहली व दूसरी कक्षा के बच्चों का बस्ता डेढ़ किलो से ज्यादा भारी नहीं हो सकता. दसवीं के छात्रों के लिए इसकी अधिकतम सीमा पांच किलो तय है. उत्तराखंड शासन में सचिव आर मीनाक्षी सुंदरम ने 24 अप्रैल को विभागीय अधिकारियों को आदेश जारी कर एमएचआरडी के निर्देशों का शतप्रतिशत पालन सुनिश्चित कराने को कहा था. लेकिन इतना समय बीतने के बाद भी आदेश पर असर होता नहीं दिख रहा है.
वहीं सूबे के शिक्षा मंत्री अरविन्द पांडेय भी मान रहे है कि बच्चों के बस्ते का वजन ज्यादा है. इसके लिए उन्होंने शत प्रतिशत् एनसीईआरटी लागू कराने की बात कहते हैं. भारी बस्तों को लेकर एक बार फिर से चर्चा शुरू हो चुकी है. क्या ज्ञान हासिल करने के लिए यह बोझ उठाना जरूरी है. वो भी उन मासूमों को जिन्हें आगे चलकर न सिर्फ देश का भविष्य बनना है बल्कि भविष्य बेहतर भी बनाना है. अगर वे ही इस उम्र में बोझ तले दब कर रह गए तो आने वाले कल का क्या होगा ?