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राज्य आंदोलनकारियों की जुबानी, खटीमा और मसूरी गोलीकांड की कहानी - Story of Khatima and Mussoorie firing case

मसूरी और खटीमा गोलीकांड को याद कर आज भी उत्तराखंड के लोगों का दिल सहम जाता है. खटीमा और मसूरी गोलीकांड की 27वीं बरसी पर राज्य आंदोलनकारियों की जुबानी गोलीकांड की कहानी सुनिए.

Story of Khatima and Mussoorie firing case
खटीमा और मसूरी गोलीकांड की कहानी
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Published : Sep 1, 2020, 8:00 PM IST

Updated : Sep 1, 2021, 3:56 PM IST

देहरादून: राज्य आंदोलन के इतिहास के पन्नों को पलटते ही एक और दो सितंबर 1994 की घटना याद करते, आज भी लोगों के शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है. 1994 में उत्तराखंड राज्य के लिए पूरे प्रदेश में आंदोलन चल रहा था. वहीं, खटीमा में हजारों की संख्या में राज्य निर्माण की मांग को लेकर भूतपूर्व सैनिक, छात्रों और व्यापारियों द्वारा जुलूस निकाला जा रहा था. उसी समय खटीमा के तत्कालीन पुलिस इंस्पेक्टर डीके केन के आदेश पर पुलिसकर्मियों द्वारा प्रदर्शनकारियों पर खुलेआम गोली चलाई गई थी. जिसमें मौके पर ही सात आंदोलनकारी शहीद हो गए थे और सैकड़ों लोग घायल हुए थे.

खटीमा गोलीकांड के अगले ही दिन 2 सितम्बर, 1994 को मसूरी गोलीकांड हुआ था. खटीमा की घटना के विरोध में मसूरी में मौन जुलूस निकाल रहे राज्य आंदोलनकारियों पर पुलिस और पीएसी ने ताबड़तोड़ गोलियां बरसाकर 7 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. ऐसे में फायरिंग के कारण शांत रहने वाले मसूरी की आबोहवा में बारूद की गंध फैल गई थी.

खटीमा और मसूरी गोलीकांड की कहानी.

ईटीवी भारत से खास बातचीत में राज्य आंदोलनकारी पूरन सिंह लिंगवाल उस दिन को याद कर आज भी भावुक हो जाते हैं. पूरन सिंह लिंगवाल के मुताबिक 1 सितंबर खटीमा गोलीकांड और 2 सितंबर मसूरी गोलीकांड में पुलिस ने अपनी बर्बरता दिखाई थी. इन दोनों जगहों पर पुलिस ने बर्बरता दिखाते हुए निहत्थे राज आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी थी.

पूरन सिंह लिंगवाल बताते हैं की 1 सितंबर 1994 के दिन खटीमा में राज्य आंदोलनकारी उत्तराखंड राज्य गठन की मांग को लेकर उप जिलाधिकारी को पत्र सौंपने गए थे. लेकिन बिना की चेतावनी पुलिस ने निहत्थे राज्य आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी. पुलिस की गोलीबारी में 7 राज्य आंदोलनकारी शहीद हो गए थे.

वहीं, खटीमा गोलीकांड के विरोध में 2 सितंबर 1994 को मसूरी में राज्य आंदोलनकारी मौन प्रदर्शन कर रहे थे. लेकिन, तत्कालीन सपा सरकार के आदेश पर पुलिस और पीएसी के जवानों ने प्रदर्शन कर रहे राज्य आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी. जिसमें 7 आंदोलनकारी शहीद हो गए थे. घटना के समय तत्कालीन पुलिस उपाधीक्षक उमाकांत त्रिपाठी की भी मौत हो गई थी. जिन्हें आज तक शहीद का दर्जा नहीं दिया गया.

ये भी पढ़ें: धर्मनगरी से फूंका था राम मंदिर आंदोलन का बिगुल, 500 साल का सपना हुआ साकार

एक सितंबर 1994 को उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर सुबह से हजारों की संख्या में लोग खटीमा की सड़कों पर आ गए थे. इस दौरान ऐतिहासिक रामलीला मैदान में जनसभा हुई. जिसमें बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएं और बड़ी संख्या में पूर्व सैनिक शामिल थे. जनसभा के बाद दोपहर का समय रहा होगा, सभी लोग जुलूस की शक्ल में शांतिपूर्वक तरीके से मुख्य बाजारों से गुजर रहे थे. जब आंदोलनकारी कंजाबाग तिराहे से लौट रहे थे. तभी पुलिस कर्मियों ने पहले पथराव किया, फिर पानी की बौछार करते हुए गोलियां चला दी.

जिसके विरोध में मसूरी में राज्य आंदोलनकारियों ने विरोध प्रदर्शन किया. माल रोड स्थित झूलाघर में क्रमिक अनशन पर बैठे पांच आंदोलनकारियों को एक सितंबर 1994 की रात पुलिस ने उठा लिया था. दो सितंबर की सुबह राज्य आंदोलनकारी खटीमा गोलीकांड और अनशनकारियों को उठाने के विरोध में मौन जुलूस निकाल रहे थे. झूलाघर पहुंचते ही पुलिस और पीएसी के जवानों ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर ताबड़तोड़ गोलियां दाग दी थी.

राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती का कहना है कि कई सालों के संघर्ष के बाद उत्तराखंड राज्य का नवंबर 2000 में गठन हो पाया था. लेकिन सरकार राज्य आंदोलनकारियों को भुला चुकी है. प्रदेश के कई राज्य आंदोलनकारी आज बेहद ही दयनीय स्थिति में अपना जीवन बिता रहे हैं. जिनकी कोई सुध लेने वाला नहीं है. वहीं, दूसरी तरफ सरकार की ओर से अब तक भी प्रदेश के हर जनपद में शहीद स्मारक तक का निर्माण नहीं किया गया है. जब सरकारें ही राज्य आंदोलनकारियों के संघर्ष को भुला देगी, तो आने वाली पीढ़ी राज्य आंदोलनकारियों के संघर्ष को कैसे समझ पाएगी.

अलग राज्य का सपना आंदोलनकारियों की शहादत से पूरा तो हुआ लेकिन राज्य गठन से पूर्व देखे गए सपने धरे के धरे रह गए. उत्तराखंड सरकार उन शहीदों की फोटो तक संरक्षित नहीं कर सकी, जिनकी शहादत की बदौलत राज्य बना. आज भी खटीमा गोली कांड के शहीदों को श्रद्धांजलि रेलवे की भूमि पर बने एक चबूतरे में लिखे गए शहीदों के नाम पर दी जाती है.

देहरादून: राज्य आंदोलन के इतिहास के पन्नों को पलटते ही एक और दो सितंबर 1994 की घटना याद करते, आज भी लोगों के शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है. 1994 में उत्तराखंड राज्य के लिए पूरे प्रदेश में आंदोलन चल रहा था. वहीं, खटीमा में हजारों की संख्या में राज्य निर्माण की मांग को लेकर भूतपूर्व सैनिक, छात्रों और व्यापारियों द्वारा जुलूस निकाला जा रहा था. उसी समय खटीमा के तत्कालीन पुलिस इंस्पेक्टर डीके केन के आदेश पर पुलिसकर्मियों द्वारा प्रदर्शनकारियों पर खुलेआम गोली चलाई गई थी. जिसमें मौके पर ही सात आंदोलनकारी शहीद हो गए थे और सैकड़ों लोग घायल हुए थे.

खटीमा गोलीकांड के अगले ही दिन 2 सितम्बर, 1994 को मसूरी गोलीकांड हुआ था. खटीमा की घटना के विरोध में मसूरी में मौन जुलूस निकाल रहे राज्य आंदोलनकारियों पर पुलिस और पीएसी ने ताबड़तोड़ गोलियां बरसाकर 7 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. ऐसे में फायरिंग के कारण शांत रहने वाले मसूरी की आबोहवा में बारूद की गंध फैल गई थी.

खटीमा और मसूरी गोलीकांड की कहानी.

ईटीवी भारत से खास बातचीत में राज्य आंदोलनकारी पूरन सिंह लिंगवाल उस दिन को याद कर आज भी भावुक हो जाते हैं. पूरन सिंह लिंगवाल के मुताबिक 1 सितंबर खटीमा गोलीकांड और 2 सितंबर मसूरी गोलीकांड में पुलिस ने अपनी बर्बरता दिखाई थी. इन दोनों जगहों पर पुलिस ने बर्बरता दिखाते हुए निहत्थे राज आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी थी.

पूरन सिंह लिंगवाल बताते हैं की 1 सितंबर 1994 के दिन खटीमा में राज्य आंदोलनकारी उत्तराखंड राज्य गठन की मांग को लेकर उप जिलाधिकारी को पत्र सौंपने गए थे. लेकिन बिना की चेतावनी पुलिस ने निहत्थे राज्य आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी. पुलिस की गोलीबारी में 7 राज्य आंदोलनकारी शहीद हो गए थे.

वहीं, खटीमा गोलीकांड के विरोध में 2 सितंबर 1994 को मसूरी में राज्य आंदोलनकारी मौन प्रदर्शन कर रहे थे. लेकिन, तत्कालीन सपा सरकार के आदेश पर पुलिस और पीएसी के जवानों ने प्रदर्शन कर रहे राज्य आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी. जिसमें 7 आंदोलनकारी शहीद हो गए थे. घटना के समय तत्कालीन पुलिस उपाधीक्षक उमाकांत त्रिपाठी की भी मौत हो गई थी. जिन्हें आज तक शहीद का दर्जा नहीं दिया गया.

ये भी पढ़ें: धर्मनगरी से फूंका था राम मंदिर आंदोलन का बिगुल, 500 साल का सपना हुआ साकार

एक सितंबर 1994 को उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर सुबह से हजारों की संख्या में लोग खटीमा की सड़कों पर आ गए थे. इस दौरान ऐतिहासिक रामलीला मैदान में जनसभा हुई. जिसमें बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएं और बड़ी संख्या में पूर्व सैनिक शामिल थे. जनसभा के बाद दोपहर का समय रहा होगा, सभी लोग जुलूस की शक्ल में शांतिपूर्वक तरीके से मुख्य बाजारों से गुजर रहे थे. जब आंदोलनकारी कंजाबाग तिराहे से लौट रहे थे. तभी पुलिस कर्मियों ने पहले पथराव किया, फिर पानी की बौछार करते हुए गोलियां चला दी.

जिसके विरोध में मसूरी में राज्य आंदोलनकारियों ने विरोध प्रदर्शन किया. माल रोड स्थित झूलाघर में क्रमिक अनशन पर बैठे पांच आंदोलनकारियों को एक सितंबर 1994 की रात पुलिस ने उठा लिया था. दो सितंबर की सुबह राज्य आंदोलनकारी खटीमा गोलीकांड और अनशनकारियों को उठाने के विरोध में मौन जुलूस निकाल रहे थे. झूलाघर पहुंचते ही पुलिस और पीएसी के जवानों ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर ताबड़तोड़ गोलियां दाग दी थी.

राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती का कहना है कि कई सालों के संघर्ष के बाद उत्तराखंड राज्य का नवंबर 2000 में गठन हो पाया था. लेकिन सरकार राज्य आंदोलनकारियों को भुला चुकी है. प्रदेश के कई राज्य आंदोलनकारी आज बेहद ही दयनीय स्थिति में अपना जीवन बिता रहे हैं. जिनकी कोई सुध लेने वाला नहीं है. वहीं, दूसरी तरफ सरकार की ओर से अब तक भी प्रदेश के हर जनपद में शहीद स्मारक तक का निर्माण नहीं किया गया है. जब सरकारें ही राज्य आंदोलनकारियों के संघर्ष को भुला देगी, तो आने वाली पीढ़ी राज्य आंदोलनकारियों के संघर्ष को कैसे समझ पाएगी.

अलग राज्य का सपना आंदोलनकारियों की शहादत से पूरा तो हुआ लेकिन राज्य गठन से पूर्व देखे गए सपने धरे के धरे रह गए. उत्तराखंड सरकार उन शहीदों की फोटो तक संरक्षित नहीं कर सकी, जिनकी शहादत की बदौलत राज्य बना. आज भी खटीमा गोली कांड के शहीदों को श्रद्धांजलि रेलवे की भूमि पर बने एक चबूतरे में लिखे गए शहीदों के नाम पर दी जाती है.

Last Updated : Sep 1, 2021, 3:56 PM IST
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