टिहरीः बूढ़ाकेदार क्षेत्र में सोमवार से पांच दिवसीय मगशीर दिवाली महोत्सव का शुभारंभ होगा. टिहरी जिले के घनसाली बूढ़ाकेदार में 500 वर्ष पहले से प्रत्येक वर्ष अमवास्या प्रतिपदा के दिन मगशीर बग्वाल का त्योहार मनाया जाता है, जिसमें क्षेत्र के ही नहीं बल्कि देश-विदेश के लोग भी इस त्योहार में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और तीन दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है.
भिंलगना ब्लॉक के बूढ़ाकेदार में मंगशीर पर्व गुरु कैलापीर बग्वाल धूमधाम से मनाया जाता हैं. जिसमें क्षेत्र के लोग ही नहीं बल्कि देश-विदेश के लोग इस दीपावली को मनाने के लिये घर आते हैं और बग्वाल पर्व धूमधाम से मनाते हैं. लोग 25 को छोटी दीपावाली, 26 को बड़ी दीपावली, 27 को गुरू कैलापीर देवता के साथ पंडुरा के सेरो में दौड़ लगाएंगे. वहीं 28 को बलराज और 29 को मेले का समापन होगा.
इस दौरान बूढ़ाकेदार गांव में लकड़ी से बने भैलों को जलाकर उन्हें खेतों में घुमाया जाता है. जिस पर गांव व आस-पास के लोग भैलों को घुमाकर आनन्द लेते हैं. तो वहीं गुरु कैलापीर का निशाना मन्दिर से बाहर आकर लोगों को आशीर्वाद देते हैं. वहीं खेतों में निशान के साथ सात चक्कर लगाकर देवता पर पराल की बौछारें फेंकी जाती हैं.
गुरु कैलापीर बूढ़ाकेदार समिति के अध्यक्ष ने बताया कि इस इलाके के लोग इस दीवाली को गुरू कैलापीर देवता के आने की खुशी में मनाते हैं जोकि दीपावली के एक महीने बाद मनाया जाता है.
वहीं अमावास्या प्रतिपदा के दिन गुरू कैलापीर देवता एक साल में मन्दिर के बाहर आते हैं. इस दौरान सभी लोगों को अपना आशीर्वाद देते हैं. दिन में लोग गुरू कैलापीर देवता के दर्शन करते हैं और रात को खुशी में दिवाली मनाते हैं.
गुरू कैलापीर देवता के बारे में बताया जाता है कि वे मूल रुप से चम्पावत के रहने वाले थे. वहां पर गुरू कैलापीर देवता की पूजा पाठ पद्धति में व्यवधान होने के कारण गुरू कैलापीर देवता अपने 54 चेलों के साथ नेपाल से श्रीनगर होते हुये बूढ़ाकेदार पहुंचे. गुरू कैलापीर देवता टिहरी राजशाही के महाराजाओं व बीर भड के आराध्य रहे हैं. गुरू कैलापीर देवता राजाओं के सपने में आते थे.
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गुरु कैलापीर बग्वाल के बारे में कहा जाता हैं कि जब गोरखाओं ने कुमाऊं पर आक्रमण किया था तो वीर माधो सिंह भण्डारी के इष्ट देव गुरु कैलापीर भी युद्ध की भूमिका में थे, लेकिन गोरखाओं से युद्ध काफी लंबे समय तक चला, जिसमें माधो सिंह भण्डारी दीपावली नहीं मना पाये तो फिर गुरु कैलापीर ने माधो सिंह से कहा कि तुम अपनी दीपावली ठीक इसी तारीख को अगले महीने बग्वाल के रुप में मनाना. जिससे आज भी यह पंरमपरा 500 साल से चली आ रही है और यह दीपावली गाजणा कठूड़ए नैल कठूड़ए थाती कठूड़ए व उत्तराकाशी के क्षेत्र में यह दीपावली मनायी जाती है.