टिहरी: राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन संस्कृति मंत्रालय और पुराना दरबार ट्रस्ट की कार्यशाला में वैज्ञानिक तरीके से पांडुलिपियों का संरक्षण करने पर जोर दिया गया. रविवार को श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय में पांडुलिपि संरक्षण पर 5 दिवसीय कार्यशाला का समापन कार्यक्रम था. कार्यशाला का समापन करते हुए दरबार ट्रस्ट के ट्रस्टी ठाकुर भवानी प्रताप सिंह पंवार ने पांडुलिपि संरक्षण को एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक कर्म बताया. साथ ही वैज्ञानिक तरीके से पांडुलिपि संरक्षण की जानकारी उनके संग्रह कर्ताओं को होने की बात कही.
आज भी अनेक लोगों के घरों में पांडुलिपियां हैं, पहले लोग पारंपरिक तरीके से भी पांडुलिपियों का संरक्षण किया करते थे. दस्तावेजीकरण के साथ ही पांडुलिपियों का वैज्ञानिक तरीके से संरक्षण जरूरी है. मिशन पांडुलिपियों को पहचान देने का काम कर रहा है.
किस तरह से होता था पारंपरिक तरीके से पांडुलिपियों का संरक्षण
प्राचीन समय में रसायनों के स्थान पर हर्बल उत्पादों का प्रयोग किया जाता था, रसायनों असरदार होने के साथ ही पांडुलिपियों के लिए सुरक्षित होते थे. इन देसी उत्पादों में लौंग, दालचीनी, काली मिर्च, सूखा अदरक, श्वरंजा, शरीफा के बीज, नीम और तंबाकू के सूखे पत्ते, कपूर आदि का प्रयोग कीड़ों से बचाने के लिए किया जाता था. इसी तरह ताड़ पत्र की पांडुलिपियों में लेमन ग्रास तेल, सिट्रोनेला और लोंग के तेल आदि का प्रयोग किया जाता था
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क्या होती है पांडुलिपि
पांडुलिपि से तात्पर्य उस प्राचीन दस्तावेज से है, जो हस्तलिखित हो और जीवन से विशिष्ट रूप से सम्बंधित हो. पांडुलिपि एक ऐसा हस्तलिखित दस्तावेज है, जिसका वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व हो. साथ ही कम से कम 75 साल पुराना हो. पांडुलिपियां मात्र ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं होतीं, बल्कि ये किसी देश में घटित परिवर्तनों की साक्षी होती हैं.
कार्यक्रम संयोजक ठाकुर भवानी प्रताप सिंह ने बताया कि अभिलेखागार के संरक्षण में जो पांडुलिपिया हैं, उनमें 1849 के बाद के गजट और 14वीं शताब्दी से के बाद की पांडुलिपि भी उपलब्ध है. संस्कृति को व्यापक रूप से समझने की जरूरत पर उन्होंने बल दिया. पांडुलिपियों से भाषा, संस्कृति, इतिहास, लोक और वास्तु की भी जानकारी मिलती है. गढ़वाल की महत्वपूर्ण धरोहर दरबार ट्रस्ट द्वारा संरक्षित की गई है. इस पर देश और दुनिया भर के करीब 200 शोधार्थियों ने शोध तैयार किए हैं.