टिहरी: दीपावली के दिन जन्म लेने और मृत्यु प्राप्त करने वाले संत स्वामी रामतीर्थ (Saint Swami Ramtirtha) की कोटी कॉलोनी स्थित मूर्ति (Statue of Sant Swami Ramtirtha) जीर्ण शीर्ण हालत में है. आलम ये ही है कि अब संत स्वामी रामतीर्थ की मूर्ति खंडित होने लगी है. इसके बाद भी टिहरी नगर पालिका और टीएचडीसी इस मामले में लापरवाह बनी हुई है. जब से यह मूर्ति और स्मारक कोटि कॉलोनी में लगाई गई थी तब से लेकर आज तक इसकी देखरेख नहीं की गई है. वहीं, असमाजिक तत्व आये दिन मूर्ति और स्मारक को नुकसान पहुंचा रहे हैं.
बता दें कि प्रसिद्ध संत स्वामी रामतीर्थ का पुरानी टिहरी से बहुत लगाव रहा. टिहरी शहर के डूबने के बाद स्वामी रामतीर्थ की मूर्ति और स्मारक को कोटी कॉलोनी लाया गया. जिससे यहां उनकी धरोहर सुरक्षित रह सके. साथ ही टिहरी में देश विदेशों से आने वाले पर्यटकों को संत स्वामी रामतीर्थ के बारे में जानकारी प्राप्त हो उसके लिए इसे यहां स्थापित किया गया, मगर अब यहां लगी उनकी मूर्ति मूर्ति खंडित होने लगी है. मूर्ति को ठीक कराने के लिए नगर पालिका और टीएसडीसी ने अब तक कोई पहल भी नहीं की है.
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कौन थे स्वामी रामतीर्थ: स्वामी रामतीर्थ का जन्म 22 अक्टूबर 1873 में दीपावली के दिन पंजाब गुजरावाला जिले मुरारीवाला ग्राम में हुआ था. इनके बचपन का नाम तीर्थराम था. विद्यार्थी जीवन में इन्होंने अनेक कष्टों का सामना किया. भूख और आर्थिक बदहाली के बीच भी उन्होंने अपनी माध्यमिक और फिर उच्च शिक्षा पूरी की. पिता ने बाल्यावस्था में ही उनका विवाह भी कर दिया था. वे उच्च शिक्षा के लिए लाहौर चले गए.
वहीं, साल 1891 में पंजाब विश्वविद्यालय की बीए परीक्षा में प्रान्त भर में सर्वप्रथम आये. इसके लिए इन्हें 90 रुपये मासिक की छात्रवृत्ति भी मिली. अपने अत्यंत प्रिय विषय गणित में सर्वोच्च अंकों से एमए उत्तीर्ण कर वे उसी कॉलेज में गणित के प्रोफेसर नियुक्त हो गए. वे अपने वेतन का एक बड़ा हिस्सा निर्धन छात्रों के अध्ययन के लिये दे देते थे. लाहौर में ही उन्हें स्वामी विवेकानन्द के प्रवचन सुनने तथा सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिला. इन दो महात्माओं का विशेष प्रभाव पड़ा. शंकराचार्य और स्वामी विवेकानन्द।स्वामी रामतीर्थ ने सभी बन्धनों से मुक्त होकर एक संन्यासी के रूप में घोर तपस्या की.
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ऐसे में प्रवास के समय उनकी भेंट टिहरी रियासत के तत्कालीन नरेश कीर्तिशाह से हुई. टिहरी नरेश पहले घोर अनीश्वरवादी थे. स्वामी रामतीर्थ के सम्पर्क में आकर वे भी पूर्ण आस्तिक हो गये. महाराजा ने स्वामी रामतीर्थ के जापान में होने वाले विश्व धर्म सम्मेलन में जाने की व्यवस्था की. वे जापान से अमरीका तथा मिस्र भी गये. विदेश यात्रा में उन्होंने भारतीय संस्कृति का उद्घोष किया. विदेश से लौटकर भारत में भी अनेक स्थानों पर प्रवचन दिये. उनके व्यावहारिक वेदान्त पर विद्वानों ने सर्वत्र चर्चा की. टिहरी गढ़वाल से उन्हें अगाध स्नेह था. टिहरी उनकी आध्यात्मिक प्रेरणास्थली थी. वहीं, उनकी मोक्षस्थली भी बनी. 17 अक्टूबर 1906 की दीपावली के दिन उन्होंने मृत्यु के नाम एक सन्देश लिखकर गंगा में जलसमाधि ले ली.