धनौल्टीः देशभर में दीपावली का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा है. ये भारत की खूबसूरती ही है कि अलग-अलग प्रान्तों में दीपावली का त्योहार प्रकाशपर्व के साथ-साथ अपने वर्षों पुरानी परंपरागत तौर-तरीकों के साथ मनाया जाता है. ऐसा ही उत्तराखंड में भी दीपावली को एक अनूठे अंदाज में मनाने की परंपरा है.
धनतेरस की खरीददारी के साथ ही पहाड़ों में अगले दिन यानी छोटी दीपावली भी बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है. ग्रामीण क्षेत्रों में दीपावली की अनूठी परंपरा की खूबसूरती है, जो दूर दराज रह रहे प्रवासियों को इस मौके पर गांव आने के लिए आकर्षित कर देती है. उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में दीपावली का खास आकर्षण भैलो व सामूहिक लोक नृत्य होता है.
इस तरह मनाई जाती है दीपावलीः उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र में दीपावली दो दिन मनाई जाती है. लोग घरों को सजाने के बाद उड़द व गहत की दाल की पकौड़ी बनाते हैं. शाम ढलते ही लोग सामूहिक रूप से पकवान का स्वाद चखते हैं. खास बात यह है कि जिस घर-परिवार में किसी की मृत्यु होने के बाद श्राद्ध होने तक त्यौहार नहीं मनाया जाता है तो गांव के अन्य लोग उनके घरों में जाकर दीपावली के पकवान पहुंचाते हैं. इसके बाद गांव के सभी लोग सामूहिक रूप से एकत्र होकर ढोल-दमाऊ की थाप पर नृत्य किया जाता है और भैलो खेलते हैं.
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ऐसे बनाया जाता है भैलोः भैलो मजबूत हरी बेल नुमा टहनियों पर बारिक कई लकड़ी बांधकर बनाया जाता है. भैलो का युवाओं व धियाणियों में विशेष क्रेज होता है. इसको बनाने के लिए लोग दो-तीन दिन पहले जंगलों से लीसायुक्त लकड़ी लाकर उसे बारीक स्टीक की तरह चीर कर फिर उसे बेल नुमा टहनियों पर बांध देते हैं. दीपावली के दिन शाम को उसकी पूजा अर्चना कर भैलो का तिलक करते है. फिर खाना खाने के बाद गांव के पास के खेतों में जाकर उसके दोनों छोरों में आग लगाकर अपने शरीर के आस पास घुमाते हुए सामूहिक नाच गाना करते हैं. गांव की सुख समृद्धि की कामना कर दीपावली मनाते है.
क्या है इगास पर्वः उत्तराखंड में बग्वाल, इगास मनाने की परंपरा है. दीपावली को यहां बग्वाल कहा जाता है, जबकि बग्वाल के 11 दिन बाद एक और दीपावली मनाई जाती है, जिसे इगास कहते हैं. पहाड़ की लोक संस्कृति से जुड़े इगास पर्व के दिन घरों की साफ-सफाई के बाद मीठे पकवान बनाए जाते हैं और देवी-देवताओं की पूजा की जाती है. साथ ही गाय व बैलों की पूजा की जाती है. शाम के वक्त गांव के किसी खाली खेत अथवा खलिहान में नृत्य के भैलो खेला जाता है. भैलो एक प्रकार की मशाल होती है, जिसे नृत्य के दौरान घुमाया जाता है. इगास पर पटाखों का प्रयोग नहीं किया जाता है.
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11वें दिन इसलिए मनाई जाती है इगासः एक मान्यता ये भी है कि जब मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम 14 वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे, तो लोगों ने घी के दीये जलाकर उनका स्वागत किया था. लेकिन, गढ़वाल क्षेत्र में भगवान राम के लौटने की सूचना दीपावली के ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली थी, इसलिए ग्रामीणों ने खुशी जाहिर करते हुए एकादशी को दीपावली का उत्सव मनाया था.
दूसरी मान्यता के कि दिवाली के वक्त गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट और तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दिवाली के ठीक 11वें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी. युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई गई थी. एक और ऐसे ही कथा है कि चंबा का रहने वाला एक व्यक्ति भैलो बनाने के लिए लकड़ी लेने जगंल गया था और ग्यारह दिन तक वापस नहीं आया. उसके दुख में वहां के लोगों ने दीपावली नहीं मनाई. जब वो व्यक्ति वापस लौटा तभी ये पर्व मनाया गया और लोक खेल भैला खेला. तब से इगास बग्वाल के दिन दिवाली मनाने और भैलो खेलने की परंपरा शुरू हुई.
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क्या है इगास बग्वालः गढ़वाल में 4 बग्वाल होती है, पहली बग्वाल कर्तिक माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को होती है. दूसरी अमावस्या को पूरे देश की तरह गढ़वाल में भी अपनी लोक परंपराओं के साथ मनाई जाती है. तीसरी बग्वाल बड़ी बग्वाल (दिलावी) के ठीक 11 दिन बाद आने वाली, कर्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है. गढ़वाली में एकादशी को इगास कहते हैं. इसलिए इसे इगास बग्वाल के नाम से जाना जाता है. चौथी बग्वाल आती है दूसरी बग्वाल या बड़ी बग्वाल के ठीक एक महीने बाद मार्गशीष माह की अमावस्या तिथि को. इसे रिख बग्वाल कहते हैं. यह गढ़वाल के जौनपुर, थौलधार, प्रतापनगर, रंवाई, चमियाला आदि क्षेत्रों में मनाई जाती है.