धनोल्टी: उत्तराखंड में समय-समय पर अलग-अलग त्योहार मनाये जाते हैं जोकि अपनी-अपनी परम्पराओं के द्योतक हैं. इनमें बर्तातोड़ू भी एक ऐसा ही पर्व है. इस पर्व को दीपावली के एक दिन बाद अन्नकूट के दिन मनाया जाता है. लोग इसे पौराणिक काल से जोड़कर देखते हैं हालांकि, वैज्ञानिकों के अपने तर्क हैं.
विविधता में एकता की संस्कृति व परम्परा मनाने की अनूठी मिसाल उत्तराखंड में देखने को मिलती है. यूं तो उत्तराखंड में समय-समय पर मनाये जाने वाले त्यौहार अपने-अपने क्षेत्र की परम्परा के अनुसार मनाये जाते हैं, जिसमें रांसू, तादि, मण्डाण, आदि शामिल हैं लेकिन कुछ त्यौहार ऐसे भी हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी अपनी परम्परा के अनुसार मनाये जाते हैं. इन्ही में से एक है बर्तातोड़ू जो बड़ी दीपावली के एक दिन बाद अन्नकूट के दिन मनाया जाता है.
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कैसे पड़ा नाम
स्थानीय लोग इस पर्व को रावण के अहंकार रूपी बल (जिसका प्रतीक एक रस्सी को माना जाता है) को तोड़कर जश्न मानने से जोड़ते हैं. लोगों का मानना है कि जब भगवान राम ने रावण को मारकर विजय हासिल की तो उसी के प्रतीक रूप में बलरूपी अहंकारी रस्से को तोड़कर उसके घमंड को खत्म किया जाता है.
उसके बाद रस्से के एक टुकड़े के दोनों सिरों को बांधकर बल्दियाताण करवायी जाती है. बल्दियाताण में दो बराबर के लोगों के कंधों पर रस्सी डालकर हाथ के सहारे जमीन पर लेटकर एक दूसरे को विपरीत दिशा में खींचा जाता है. इन चीजों को देखने व खेलने के लिए दूर-दराज के इलाकों से लोग यहां पहुंचते हैं.
वहीं, कुछ लोग इसे प्रभु राम के दीपावली के दिन घर आने पर दो दिन तक मनाये जाने वाले त्योहार के दिन खाये जाने वाले पकवानों के बाद रस्साकशी कर पाचन करने से जोड़ते हैं.
पूरा गांव आयोजन में होता है शामिल
बर्तातोड़ू के लिए पूरे गांव से रस्सी बनाने के लिए प्रत्येक घर से सेलू, बबलू (रस्सी बनाने के प्रयोग में लाई जाने वाली घास) को एकत्रित किया जाता है. जिसके बाद गांव के बड़े बुजुर्ग एक लम्बी व मोटी रस्सी तैयार करते हैं. शाम के समय गांव के सभी लोग एक स्थान स्थान पर जमा होकर इसकी पूजा-अर्चना करते हैं. जिसके बाद रस्साकशी का खेल जोकि ढोल-नगाड़ों की थाप पर शुरू होता है. जो कि काफी देर तक चलता है.
क्या कहते हैं वैज्ञानिक
हालांकि, इस पर्व के पीछे वैज्ञानिक तर्क है कि दो दिन खाने पीने के बाद पाचन के लिए इस प्रकार के आयोजन किये जाते हैं.