धनौल्टीः दीपावली का पर्व पूरे देश के साथ-साथ पहाड़ों में भी कार्तिक महीने में धूमधाम से मनाई जाती है. यहां अलग-अलग प्रान्तों में अपनी अलग-अलग संस्कृति झलकती है, जो कि भारत की खूबसूरती में विभिन्न फूलों के एक ही गुलदस्ते जैसी सुन्दरता का अहसास कराती है.
ऐसी ही एक अलग संस्कृति की मिशाल है. पहाड़ों के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में मनाई जाने वाली मार्गशीर्ष महीने की दीपावली की. जो कार्तिक माह की दीपावली के ठीक एक माह बाद अपने अलग ही अंदाज में मनाई जाती है. जिसे बग्वाल नाम से भी जाना जाता है.
बता दें कि, पहाड़ों पर दीपावली में भैला घुमाना यहां की पौराणिक और पुरातन परम्परा मानी जाती है. जहां आज पहाड़ों से अधिकाशं लोग शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं, वहीं गांवों में निवास कर रहे लोग आज भी समय-समय पर मनाये जाने वाले त्यौहारों के साथ-साथ दीपावली मनाकर कर विलुप्त होती "भैलू" परम्परा को संरक्षण और संजोने का कार्य कर रहे हैं.
पहाड़ों पर दीपावली भैलू बग्वाल के रूप में मनाई जाती है. बग्वाल में गांव के पुरुष, बच्चे, महिलाएं भैलू की पूजा कर उसे खेलने के बाद गांव के सार्वजनिक आंगन में पारम्परिक वाद्य यंत्रों की धुनों में तांदी रांसू नृत्य कर खुशी मनाते हैं. इस मौके पर पारम्परिक व्यंजन दाल की पकौड़ी व पहाड़ी चूड़ा के व्यंजन परोसे जाते हैं. इसके बाद लोग रात्रि में गांव के पास खेतों में भैलो खेलते हैं.
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ऐसे बनाया जाता है भैलूः
भैलू बनाने को लेकर दीपावली के लगभग एक सप्ताह पहले से ही बच्चों और युवाओं मे खासा उत्साह रहता है. इसको बनाने के लिए विशेषत: लीसेदार लकड़ी का प्रयोग किया जाता है. लकडिय़ों को बारीक चीरकर एक विशेष हरी बेलनुमा टहनियों के सहारे लकड़ी की गठ्ठी बांधकर बनाया जाता है, जिसे भैलू कहते हैं.
भैलू बनाने के बाद सर्वप्रथम भैलू को तिलक लगाकर पूजा अर्चना की जाती है, फिर दीपावली पर्व पर बने पकवानों को खाने के बाद सभी ग्रामीणों के द्वारा एक जगह पर मिलकर अपने-अपने पारम्परिक अंदाज में वाद्ययंत्रों के साथ गीत एवं नाच-गान कर भैलू के दोनों तरफ अग्नि जलाकर घुमाते हैं और खुशी-खुशी दीपावली मनाते हैं.
मसूरी में बूढ़ी दीपावली की धूम
मसूरी के पास कैंपटी क्षेत्र के कांडी गांव में धूमधाम के साथ बूढ़ी दीवाली मनाई गई. जौनसार में देश की दीपावली के एक माह बाद पांच दिवसीय पारंपरिक दीपावली मनाई जाती है. यहां ग्रामीण बभिमल की मशालें जलाकर परंपरागत दीवाली मनाते हैं. इस दौरान ग्रामीण अपने पारंपरिक वेशभूषा धारण कर ढोल दमाउ की थाप पर लोकनृत्य करते हैं.
लोगों के घर लौटने से जहां गांवों में खुशी का माहौल नजर आता है. वहीं, इस मौके पर गांवों में समुद्र मंथन का भी आयोजन किया जाता है. इसमें बाबई घास से बनी विशाल रस्सी का प्रयोग किया जाता है. इसकी खासियत यह है कि रस्सी बनाने के लिए बाबई घास को इसी दिन काटकर बनाया जाता है. मान्यता के अनुसार, रस्सी बनाने के बाद स्नान करवाकर विधिवत पूजा अर्चना की जाती है. कोटी, खरसोन, मौगी, भटोली, सैंजी, बंगसील आदि गांवों में बूढ़ी दीपावली देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं.