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केदार घाटी के भरदार क्षेत्र में पांडव लीला की अनूठी परंपरा, पढ़ें पूरी खबर - केदार घाटी का पांडव नृत्य

गढ़वाल क्षेत्र में प्रत्येक वर्ष नवंबर माह से लेकर फरवरी माह तक पांडव नृत्य का आयोजन होता है. प्रत्येक गांव में पांडव नृत्य के आयोजन की अलग-अलग परंपराएं हैं.

Pandav Leela
भरदार क्षेत्र में पांडव लीला
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Published : Nov 25, 2020, 4:38 PM IST

रुद्रप्रयाग: एकादशी पर अलकनंदा-मंदाकिनी नदी के संगम स्थल पर देव निशानों और पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों की पूजा-शुद्धिकरण के साथ ही भरदार क्षेत्र के तरवाड़ी गांव में पांडव लीला शुरू हो गई है. बताया जाता है कि स्वर्ग जाते समय पांडव अलकनंदा व मंदाकिनी नदी किनारे से होकर स्वर्गारोहिणी गए थे. जहां से पांडव गुजरे उन स्थानों पर विशेष रूप से पांडव लीला आयोजित होती है.

हर साल नवंबर से लेकर फरवरी तक केदारघाटी में पांडव नृत्य का आयोजन होता है. खरीफ की फसल कटने के बाद एकादशी व इसके बाद से इसके आयोजन की पौराणिक परंपरा है. जिला मुख्यालय से जुड़ी हुई ग्राम सभा दरमोला की बात करें तो यहां पर हर साल पांडव नृत्य का आयोजन एकादशी पर्व पर होता है.

Pandav Leela
पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों की पूजा-शुद्धिकरण करते हुए.

पढ़ें- यूट्यूब पर 'जै भोले' गीत मचा रहा धमाल

पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों में बाणों की पूजा की परंपरा मुख्य है. ग्रामीणों के अनुसार स्वर्ग जाने से पहले भगवान कृष्ण के आदेश पर पांडव अपने अस्त्र-शस्त्र पहाड़ में छोड़कर मोक्ष के लिए स्वर्गारोहिणी की ओर चले गए थे. जिन स्थानों पर यह अस्त्र छोड़ गए थे, उन स्थानों पर विशेष तौर से पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है और इन्हीं अस्त्र-शस्त्रों के साथ पांडव नृत्य करते हैं.

Kedar Valley
भरदार क्षेत्र में पांडव लीला की अनूठी परंपरा.

वहीं अन्य स्थानों पर पंचाग की गणना के बाद ही शुभ दिन निश्चित किया जाता है. केदारघाटी में पांडव नृत्य अधिकांश गांवों में आयोजित किए जाते हैं, लेकिन अलकनंदा व मंदाकनी नदी के किनारे वाले क्षेत्रों में पांडव नृत्य अस्त्र-शस्त्रों के साथ किया जाता है, जबकि पौड़ी जनपद के कई क्षेत्रों में मंडाण के साथ यह नृत्य भव्य रूप से आयोजित होता है.

पांडव नृत्य की एक अनूठी परंपरा

नृत्य के दौरान पांडवों के जन्म से लेकर मोक्ष तक का सजीव चित्रण किया जाता है. केदारघाटी के भरदार क्षेत्र में पांडव नृत्य की एक अनूठी परंपरा है. यहां हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों के गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य का आयोजन सदियों से चला आ रहा है. एकादशी का पर्व इसलिए शुभ माना गया है कि इस दिन भगवान नारायण और तुलसी विवाह संपन्न हुआ था.

पढ़ें- तुंगनाथ मार्ग पर बन रहा सरोवर, पर्यटन के साथ देगा रोजगार

स्कंद पुराण में पांडव काल का वर्णन

स्कंद पुराण के केदारखंड में पांडव काल का पूरा वर्णन मिलता है. इससे जहां एक ओर ग्रामीण अपनी अटूट आस्था के साथ संस्कृति को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भावी पीढ़ी भी इससे रूबरू करा रहे हैं. प्रत्येक गांवों में पांडव नृत्य के आयोजन की अलग-अलग परम्पराएं हैं. कहीं पांच तो कहीं दस साल बाद पांडव नृत्य का आयोजन होता है. लेकिन भरदार क्षेत्र के ग्राम पंचायत दरमोला एकमात्र ऐसा गांव है, जहां हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों के साथ मंदाकिनी व अलकनंदा के तट पर गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य शुरू करने परंपरा है.

रुद्रप्रयाग: एकादशी पर अलकनंदा-मंदाकिनी नदी के संगम स्थल पर देव निशानों और पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों की पूजा-शुद्धिकरण के साथ ही भरदार क्षेत्र के तरवाड़ी गांव में पांडव लीला शुरू हो गई है. बताया जाता है कि स्वर्ग जाते समय पांडव अलकनंदा व मंदाकिनी नदी किनारे से होकर स्वर्गारोहिणी गए थे. जहां से पांडव गुजरे उन स्थानों पर विशेष रूप से पांडव लीला आयोजित होती है.

हर साल नवंबर से लेकर फरवरी तक केदारघाटी में पांडव नृत्य का आयोजन होता है. खरीफ की फसल कटने के बाद एकादशी व इसके बाद से इसके आयोजन की पौराणिक परंपरा है. जिला मुख्यालय से जुड़ी हुई ग्राम सभा दरमोला की बात करें तो यहां पर हर साल पांडव नृत्य का आयोजन एकादशी पर्व पर होता है.

Pandav Leela
पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों की पूजा-शुद्धिकरण करते हुए.

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पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों में बाणों की पूजा की परंपरा मुख्य है. ग्रामीणों के अनुसार स्वर्ग जाने से पहले भगवान कृष्ण के आदेश पर पांडव अपने अस्त्र-शस्त्र पहाड़ में छोड़कर मोक्ष के लिए स्वर्गारोहिणी की ओर चले गए थे. जिन स्थानों पर यह अस्त्र छोड़ गए थे, उन स्थानों पर विशेष तौर से पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है और इन्हीं अस्त्र-शस्त्रों के साथ पांडव नृत्य करते हैं.

Kedar Valley
भरदार क्षेत्र में पांडव लीला की अनूठी परंपरा.

वहीं अन्य स्थानों पर पंचाग की गणना के बाद ही शुभ दिन निश्चित किया जाता है. केदारघाटी में पांडव नृत्य अधिकांश गांवों में आयोजित किए जाते हैं, लेकिन अलकनंदा व मंदाकनी नदी के किनारे वाले क्षेत्रों में पांडव नृत्य अस्त्र-शस्त्रों के साथ किया जाता है, जबकि पौड़ी जनपद के कई क्षेत्रों में मंडाण के साथ यह नृत्य भव्य रूप से आयोजित होता है.

पांडव नृत्य की एक अनूठी परंपरा

नृत्य के दौरान पांडवों के जन्म से लेकर मोक्ष तक का सजीव चित्रण किया जाता है. केदारघाटी के भरदार क्षेत्र में पांडव नृत्य की एक अनूठी परंपरा है. यहां हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों के गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य का आयोजन सदियों से चला आ रहा है. एकादशी का पर्व इसलिए शुभ माना गया है कि इस दिन भगवान नारायण और तुलसी विवाह संपन्न हुआ था.

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स्कंद पुराण में पांडव काल का वर्णन

स्कंद पुराण के केदारखंड में पांडव काल का पूरा वर्णन मिलता है. इससे जहां एक ओर ग्रामीण अपनी अटूट आस्था के साथ संस्कृति को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भावी पीढ़ी भी इससे रूबरू करा रहे हैं. प्रत्येक गांवों में पांडव नृत्य के आयोजन की अलग-अलग परम्पराएं हैं. कहीं पांच तो कहीं दस साल बाद पांडव नृत्य का आयोजन होता है. लेकिन भरदार क्षेत्र के ग्राम पंचायत दरमोला एकमात्र ऐसा गांव है, जहां हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों के साथ मंदाकिनी व अलकनंदा के तट पर गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य शुरू करने परंपरा है.

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