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केदारघाटी में पांडव लीला की अनूठी परंपरा, देव निशानों को गंगा स्नान न कराने पर होती है अनहोनी

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Published : Nov 13, 2021, 5:39 PM IST

Updated : Nov 13, 2021, 9:06 PM IST

केदारघाटी के ग्रामीण अंचलों में एकादशी पर्व पर देव निशानों के गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य शुरू होता है. खासतौर पर भरदार के दरमोला गांव में पांडव नृत्य की अलग ही विशेषता है. केदारघाटी में यहां पांडवों ने स्वार्गारोहणी जाते समय अपने अस्त्र-शस्त्र छोडे़ थे. ऐसे में पांडव नृत्य से पहले देव निशानों को गंगा स्नान कराया जाता है. कहा जाता है कि ऐसा नहीं करने पर अनहोनी होती है.

pandav nritya
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रुद्रप्रयागः सर्दियों के मौसम में केदारघाटी के ग्रामीण इलाकों में काफी चहल-पहल देखने को मिलती है. इसका कारण यहां होने वाले पांडव लीला का आयोजन है. जिसमें प्रवासी अपने गांवों की ओर लौटते हैं. ऐसे में यहां का माहौल काफी धार्मिक सा बन जाता है. ऐसे में खाली पड़े वीरान घरों में रौनक भी देखने को मिलती है. साथ ही गांव भी खुशहाल नजर आता है. पांडव लीला की परंपरा सदियों से चली आ रही है, जिसका निर्वहन ग्रामीण आज भी कर रहे हैं.

वैसे तो केदारघाटी के लगभग हर गांव में पांडव नृत्य की पौराणिक परंपपरा है, लेकिन दरमोला भरदार एक ऐसा गांव है. जहां हर साल एकादशी पर्व से पांडव नृत्य की शुरूआत होती है. स्थानीय ग्रामीण सदियों से चली आ रही इस अनूठी परंपरा को बरकरार रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. गांव में हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों और पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों को गंगा स्नान के साथ ही पांडव नृत्य का आगाज होता है. एकादशी पर्व को इसलिए शुभ माना गया है, क्योंकि इस दिन भगवान नारायण और तुलसी विवाह संपन्न हुआ था. पांडव काल का स्कंद पुराण के केदारखंड में पूरा वर्णन मिलता है. एक ओर जहां ग्रामीण अपनी अटूट आस्था के साथ संस्कृति को बचा रहे है, वहीं दूसरी ओर आने वाली पीढ़ी भी इससे रूबरू हो रही है.

रामलीला का मंचन.

ये भी पढ़ेंः अध्यात्म और रोमांच का मिश्रण सहस्त्र ताल ट्रैक, जहां कुदरत की बरसती है नेमत

मंदाकिनी-अलकनंदा के तट पर गंगा स्नान से शुरू होती है पांडव नृत्यः गढ़वाल मंडल में हर साल नवंबर महीने से लेकर फरवरी महीने तक पूरी आस्था के साथ पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है. प्रत्येक गांवों में पांडव नृत्य के आयोजन की अलग-अलग रीति रिवाज और पौराणिक परंपराएं होती हैं. कहीं दो तो कहीं पांच सालों बाद पांडव नृत्य का आयोजन होता है, लेकिन भरदार क्षेत्र के ग्राम पंचायत दरमोला एकमात्र ऐसा गांव है, जहां हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों के मंदाकिनी व अलकनंदा के तट पर गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य शुरू करने परंपरा आज भी विद्यमान है.

इस गांव में यह परंपरा सदियों पूर्व से चली आ रही है. एकादशी की पूर्व संध्या पर दरमोला व स्वीली, सेम के ग्रामीण भगवान बदरीविशाल, लक्ष्मी नारायण, शंकरनाथ, नागराजा, चांमुडा देवी, हीत भैरवनाथ समेत कई देवताओं के नेजा-निशान व गाजे बाजों के साथ अलकनंदा-मंदाकिनी के संगम तट पर पहुंचते हैं. यहां पर रात्रि को जागरण और देव निशानों की चार पहर की पूजा अर्चना की जाती है.

ये भी पढ़ेंः सेलकु मेले में मायके आई बेटियां चढ़ाती हैं भेंट, डांगरियों पर आसन लगाते हैं सोमेश्वर देवता

एकादशी पर्व पर तड़के सभी देव निशानों और बाणों को गंगा स्नान कराने के बाद उनका श्रृंगार किया जाता है. इसके बाद पुजारी और अन्य ब्राह्मणों के वैदिक मंत्रोच्चारण के बाद देव निशानों की विशेष पूजा-अर्चना, हवन एवं आरती करते हैं. इस दौरान संगम तट पर दूर दराज क्षेत्रों से देव दर्शनों को पहुंचे भक्तों को देवता अपना आशीर्वाद भी देते हैं. इसके बाद ही देव निशानों को गांव में ले जाकर, इसी दिन यहां पांडव नृत्य का आयोजन शुरु किया जाता है.

भगवान विष्णु और तुलसी का हुआ था विवाहः पौराणिक परंपराओं के अनुसार पांडवों ने मोक्ष प्राप्ति के लिए स्वर्गारोहणी जाते समय अपने अस्त्र-शस्त्र केदारघाटी में छोड़ गए थे, तब से लेकर आज भी विभिन्न स्थानों पर इनकी पूजा होती चली आ रही है. मान्यता है कि एकादशी के भगवान विष्णु ने पांच महीनों की निंद्रा से जागकर तुलसी से साथ विवाह हुआ था. यह दिन देव निशान के गंगा स्नान व पांडव नृत्य शुरू करने के लिए शुभ माना गया है.

ये भी पढ़ेंः ढोल बजाकर ऊषा ने तोड़ी ढोल वादन की पंरपरा, बनाया आर्थिकी का सहारा

देव निशानों के गंगा स्नान न कराने पर होती है अनहोनीः बताया जाता है कि यदि इस दिन देव निशानों को गंगा स्नान के लिए नहीं लाया जाता है, तो गांव में अवश्य कुछ न कुछ अनहोनी अवश्य होती है. इसलिए ग्रामीण इस दिन को कभी नहीं भूलते हैं, भरदार क्षेत्र के अन्तर्गत दरमोला में पांडव नृत्य के आयोजन की सदियों से चली आ रही परंपरा आज भी कायम है. यहां एकादशी पर्व हमेशा से देव निशानों को गंगा स्नान कराया जाता है. जिसके बाद ही गांव में पांडव नृत्य की शुरूआत की जाती है. ऐसे पौराणिक संस्कृति को बचाने के लिए सभी को आगे की जरूरत है. जिससे भावी पीढ़ी भी इससे रूबरू हो सके.

गांवों में रामलीला का आयोजनः रुद्रप्रयाग जिले के ग्रामीण इलाकों में इन दिनों रामलीला का आयोजन किया जा रहा है. लीला में श्रवण कुमार से लेकर रावण वध और श्रीराम के राजतिलक की लीलाओं को दिखाया जा रहा है, जिसका दर्शक देर रात तक लुत्फ उठा रहे हैं. ऐसे में प्रवासी ग्रामीण अपने गांवों में आकर लीलाओं का आनंद ले रहे हैं. इससे जहां ग्रामीण इलाकों में रौनक देखने को मिल रही है, वहीं आपसी भाईचारा भी बढ़ रहा है.

बता दें कि पहले के समय में ग्रामीण अंचलों में मनोरंजन के साधन न होने पर इन लीलाओं का आयोजन किया जाता था, जिसका निर्वहन आज भी भावी पीढ़ी कर रही है. उस समय हर गांव-मोहल्लों में टेलीविजन के साथ ही बिजली की सुविधा नहीं थी. ऐसे में ग्रामीणों ने अपने मनोरंजन का साधन खुद ही तैयार किए. ये मनोरंजन के साधन धीरे-धीरे पूर्वजों की धरोहर बनने लगे, जिनका निर्वहन आज भी ग्रामीण करते आ रहे हैं. रुद्रप्रयाग जिले के बच्छणस्यूं, रानीगढ़, धनपुर, तल्लानागपुर, भरदार, लस्या, सिलगढ़, बांगर सहित अन्य पट्टियों में रामलीला का आयोजन लगभग हर ग्राम सभा में हो रहा है. लीला के आयोजन से गांव में जहां लोगों की भीड़ उमड़ रही है, वहीं क्षेत्र का माहौल काफी धार्मिक बना हुआ है.

ये भी पढ़ेंः फेमस है उत्तराखंड के रामनगर की 'रामलीला', देखिए VIDEO

धियाणियों को मायके आने का मिलता है मौकाः ये लीलाएं आपसी भाईचारा को बढ़ाने के साथ ही धियाणियों को अपने मायके आने का मौका मिलता है. इसके अलावा शहरी इलाकों में रोजगार कर रहे लोगों भी अपने गांवों की ओर रूख करते हैं. ग्रामीण जनता इन लीलाओं का आयोजन कर क्षेत्र की संस्कृति और सभ्यता को बरकरार रखते हैं. यह भावपूर्ण नजारा रहता है. इस मौसम में प्रवासी भी गांवों की ओर लौटते हैं. यह एकता का प्रतीक है. समाज में इसका अच्छा संदेश जाता है.

रुद्रप्रयागः सर्दियों के मौसम में केदारघाटी के ग्रामीण इलाकों में काफी चहल-पहल देखने को मिलती है. इसका कारण यहां होने वाले पांडव लीला का आयोजन है. जिसमें प्रवासी अपने गांवों की ओर लौटते हैं. ऐसे में यहां का माहौल काफी धार्मिक सा बन जाता है. ऐसे में खाली पड़े वीरान घरों में रौनक भी देखने को मिलती है. साथ ही गांव भी खुशहाल नजर आता है. पांडव लीला की परंपरा सदियों से चली आ रही है, जिसका निर्वहन ग्रामीण आज भी कर रहे हैं.

वैसे तो केदारघाटी के लगभग हर गांव में पांडव नृत्य की पौराणिक परंपपरा है, लेकिन दरमोला भरदार एक ऐसा गांव है. जहां हर साल एकादशी पर्व से पांडव नृत्य की शुरूआत होती है. स्थानीय ग्रामीण सदियों से चली आ रही इस अनूठी परंपरा को बरकरार रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. गांव में हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों और पांडवों के अस्त्र-शस्त्रों को गंगा स्नान के साथ ही पांडव नृत्य का आगाज होता है. एकादशी पर्व को इसलिए शुभ माना गया है, क्योंकि इस दिन भगवान नारायण और तुलसी विवाह संपन्न हुआ था. पांडव काल का स्कंद पुराण के केदारखंड में पूरा वर्णन मिलता है. एक ओर जहां ग्रामीण अपनी अटूट आस्था के साथ संस्कृति को बचा रहे है, वहीं दूसरी ओर आने वाली पीढ़ी भी इससे रूबरू हो रही है.

रामलीला का मंचन.

ये भी पढ़ेंः अध्यात्म और रोमांच का मिश्रण सहस्त्र ताल ट्रैक, जहां कुदरत की बरसती है नेमत

मंदाकिनी-अलकनंदा के तट पर गंगा स्नान से शुरू होती है पांडव नृत्यः गढ़वाल मंडल में हर साल नवंबर महीने से लेकर फरवरी महीने तक पूरी आस्था के साथ पांडव नृत्य का आयोजन किया जाता है. प्रत्येक गांवों में पांडव नृत्य के आयोजन की अलग-अलग रीति रिवाज और पौराणिक परंपराएं होती हैं. कहीं दो तो कहीं पांच सालों बाद पांडव नृत्य का आयोजन होता है, लेकिन भरदार क्षेत्र के ग्राम पंचायत दरमोला एकमात्र ऐसा गांव है, जहां हर साल एकादशी पर्व पर देव निशानों के मंदाकिनी व अलकनंदा के तट पर गंगा स्नान के साथ पांडव नृत्य शुरू करने परंपरा आज भी विद्यमान है.

इस गांव में यह परंपरा सदियों पूर्व से चली आ रही है. एकादशी की पूर्व संध्या पर दरमोला व स्वीली, सेम के ग्रामीण भगवान बदरीविशाल, लक्ष्मी नारायण, शंकरनाथ, नागराजा, चांमुडा देवी, हीत भैरवनाथ समेत कई देवताओं के नेजा-निशान व गाजे बाजों के साथ अलकनंदा-मंदाकिनी के संगम तट पर पहुंचते हैं. यहां पर रात्रि को जागरण और देव निशानों की चार पहर की पूजा अर्चना की जाती है.

ये भी पढ़ेंः सेलकु मेले में मायके आई बेटियां चढ़ाती हैं भेंट, डांगरियों पर आसन लगाते हैं सोमेश्वर देवता

एकादशी पर्व पर तड़के सभी देव निशानों और बाणों को गंगा स्नान कराने के बाद उनका श्रृंगार किया जाता है. इसके बाद पुजारी और अन्य ब्राह्मणों के वैदिक मंत्रोच्चारण के बाद देव निशानों की विशेष पूजा-अर्चना, हवन एवं आरती करते हैं. इस दौरान संगम तट पर दूर दराज क्षेत्रों से देव दर्शनों को पहुंचे भक्तों को देवता अपना आशीर्वाद भी देते हैं. इसके बाद ही देव निशानों को गांव में ले जाकर, इसी दिन यहां पांडव नृत्य का आयोजन शुरु किया जाता है.

भगवान विष्णु और तुलसी का हुआ था विवाहः पौराणिक परंपराओं के अनुसार पांडवों ने मोक्ष प्राप्ति के लिए स्वर्गारोहणी जाते समय अपने अस्त्र-शस्त्र केदारघाटी में छोड़ गए थे, तब से लेकर आज भी विभिन्न स्थानों पर इनकी पूजा होती चली आ रही है. मान्यता है कि एकादशी के भगवान विष्णु ने पांच महीनों की निंद्रा से जागकर तुलसी से साथ विवाह हुआ था. यह दिन देव निशान के गंगा स्नान व पांडव नृत्य शुरू करने के लिए शुभ माना गया है.

ये भी पढ़ेंः ढोल बजाकर ऊषा ने तोड़ी ढोल वादन की पंरपरा, बनाया आर्थिकी का सहारा

देव निशानों के गंगा स्नान न कराने पर होती है अनहोनीः बताया जाता है कि यदि इस दिन देव निशानों को गंगा स्नान के लिए नहीं लाया जाता है, तो गांव में अवश्य कुछ न कुछ अनहोनी अवश्य होती है. इसलिए ग्रामीण इस दिन को कभी नहीं भूलते हैं, भरदार क्षेत्र के अन्तर्गत दरमोला में पांडव नृत्य के आयोजन की सदियों से चली आ रही परंपरा आज भी कायम है. यहां एकादशी पर्व हमेशा से देव निशानों को गंगा स्नान कराया जाता है. जिसके बाद ही गांव में पांडव नृत्य की शुरूआत की जाती है. ऐसे पौराणिक संस्कृति को बचाने के लिए सभी को आगे की जरूरत है. जिससे भावी पीढ़ी भी इससे रूबरू हो सके.

गांवों में रामलीला का आयोजनः रुद्रप्रयाग जिले के ग्रामीण इलाकों में इन दिनों रामलीला का आयोजन किया जा रहा है. लीला में श्रवण कुमार से लेकर रावण वध और श्रीराम के राजतिलक की लीलाओं को दिखाया जा रहा है, जिसका दर्शक देर रात तक लुत्फ उठा रहे हैं. ऐसे में प्रवासी ग्रामीण अपने गांवों में आकर लीलाओं का आनंद ले रहे हैं. इससे जहां ग्रामीण इलाकों में रौनक देखने को मिल रही है, वहीं आपसी भाईचारा भी बढ़ रहा है.

बता दें कि पहले के समय में ग्रामीण अंचलों में मनोरंजन के साधन न होने पर इन लीलाओं का आयोजन किया जाता था, जिसका निर्वहन आज भी भावी पीढ़ी कर रही है. उस समय हर गांव-मोहल्लों में टेलीविजन के साथ ही बिजली की सुविधा नहीं थी. ऐसे में ग्रामीणों ने अपने मनोरंजन का साधन खुद ही तैयार किए. ये मनोरंजन के साधन धीरे-धीरे पूर्वजों की धरोहर बनने लगे, जिनका निर्वहन आज भी ग्रामीण करते आ रहे हैं. रुद्रप्रयाग जिले के बच्छणस्यूं, रानीगढ़, धनपुर, तल्लानागपुर, भरदार, लस्या, सिलगढ़, बांगर सहित अन्य पट्टियों में रामलीला का आयोजन लगभग हर ग्राम सभा में हो रहा है. लीला के आयोजन से गांव में जहां लोगों की भीड़ उमड़ रही है, वहीं क्षेत्र का माहौल काफी धार्मिक बना हुआ है.

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धियाणियों को मायके आने का मिलता है मौकाः ये लीलाएं आपसी भाईचारा को बढ़ाने के साथ ही धियाणियों को अपने मायके आने का मौका मिलता है. इसके अलावा शहरी इलाकों में रोजगार कर रहे लोगों भी अपने गांवों की ओर रूख करते हैं. ग्रामीण जनता इन लीलाओं का आयोजन कर क्षेत्र की संस्कृति और सभ्यता को बरकरार रखते हैं. यह भावपूर्ण नजारा रहता है. इस मौसम में प्रवासी भी गांवों की ओर लौटते हैं. यह एकता का प्रतीक है. समाज में इसका अच्छा संदेश जाता है.

Last Updated : Nov 13, 2021, 9:06 PM IST
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