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यहां खास अंदाज में होती है मां नंदा की पूजा, चढ़ते हैं 13 हजार फीट की ऊंचाई वाले ब्रह्मकमल - ब्रह्मकमल

पिथौरागढ़ के मुनस्यारी और बंगापानी में ब्रह्म कमल से मां नंदा की पूजा की जाती है. हर तीसरे साल ब्रह्मकमल लाने के लिए 2 दर्जन से अधिक गांवों के ग्रामीण 13 हजार 700 फीट की ऊंचाई पर स्थित छिपलाकेदार क्षेत्र से ब्रह्मकमल लाते हैं.

PITHORAGARH
पिथौरागढ़
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Published : Sep 16, 2021, 9:43 PM IST

Updated : Sep 16, 2021, 10:17 PM IST

पिथौरागढ़: उत्तराखंड में इन दिनों नंदाष्टमी महोत्सव की धूम मची हुई है. पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी और बंगापानी तहसील में नंदाष्टमी पर्व को खास अंदाज में मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. यहां लोग मां नंदा देवी की पूजा राज्य पुष्प ब्रह्मकमल से करते हैं. हर तीसरे साल ब्रह्मकमल लाने के लिए दो दर्जन से अधिक गांवों के ग्रामीण 13 हजार 700 फीट की ऊंचाई पर स्थित छिपलाकेदार क्षेत्र में जाते हैं. जहां कुंड में स्नान, परिक्रमा और पूजा-अर्चना कर ब्रह्मकमल लेकर वापस अपने गांव लौटते हैं, जिसके बाद पूरे विधि विधान से मां नंदा देवी की पूजा की जाती है.

मां नंदा देवी को भगवती की 6 अंगभूता देवियों में से एक माना जाता है. साथ ही नंदा देवी को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है. मान्यता है कि हिमालय की नंदा देवी को ब्रह्मकमल पुष्प प्रिय है. जिस कारण राज्य पुष्प ब्रह्मकमल से मां नंदा की पूजा करने का रिवाज पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है. साथ ही ग्रामीणों द्वारा पारंपरिक वेशभूषा में लोकगीतों के साथ गीत जाए जाते हैं. सदियों पुरानी इस परंपरा को यहां के लोग आज भी जीवित रखे हुए हैं.

यहां खास अंदाज में होती है मां नंदा की पूजा

ढोल-नगाड़ों के साथ छिपला जात में शिकरत करते श्रद्धालुः मुनस्यारी और बंगापानी तहसील के ग्रामीण मां नंदा देवी को चढ़ाए जाने वाले ब्रह्मकमल को लाने के लिए प्रत्येक तीसरे साल भादों के महीने में छिपलाकोट की यात्रा करते हैं. इसे छिपला जात के नाम से भी जाना जाता है. 30 से 90 किलोमीटर लंबी इस पैदल यात्रा में ग्रामीणों को करीब 5 से 7 दिन लगते हैं. छिपलाकोट से प्रसाद के रूप में केदार कुंड का पवित्र जल और पवित्र पुष्प ब्रहमकमल साथ लाने की परंपरा है. ढोल-नगाड़ों के साथ ग्रामीण ब्रह्मकमल लेकर वापस अपने गांव पहुंचते है, जहां नंदा देवी के मंदिर में पूजा की जाती है.

ये भी पढेंः बड़ी खबर: चारधाम यात्रा को हाईकोर्ट की हरी झंडी, कोविड प्रोटोकॉल का रखना होगा पूरा ध्यान

छिपलाकोट में जनेऊ संस्कार करना माना जाता है शुभः छिपलाकोट जात का विशेष महत्व यह है कि यहां बालकों का जनेऊ संस्कार किया जाता है. जिन बच्चों का जनेऊ संस्कार होना है, उन्हें नौलधप्या कहते है. सभी नौलधप्या सफेद पोषाक, सफेद पगड़ी, हाथों में शंख, लाल-सफेद रंग का ध्वज और गले में घंटी लेकर नंगे पांव यात्रा करते हैं. इस साल 103 बच्चों का छिपलाकोट में जनेऊ संस्कार किया गया है. छिपलाकोट में जनेऊ संस्कार करना शुभ माना जाता है. वहीं, मान्यता ये भी है कि इस यात्रा में बिना जनेऊ वाले पुरुषों और महिलाओं का जाना वर्जित है.

इन गांवों के ग्रामीण करते हैं शिरकतः गोल्फा, जारा जिबली, बरम, सैनराथी, किमखेत, बेडूमहर, डोर, होकरा, नामिक, गिन्नी, समकोट, डोकुला, सेलमाली, लास्पा, रिलकोट, मर्तोली, मापा, ल्वां, पांछू, गनघर, मिलम, बुर्फू, बिलजू, टोला, खिलांच, रालम.

पिथौरागढ़: उत्तराखंड में इन दिनों नंदाष्टमी महोत्सव की धूम मची हुई है. पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी और बंगापानी तहसील में नंदाष्टमी पर्व को खास अंदाज में मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है. यहां लोग मां नंदा देवी की पूजा राज्य पुष्प ब्रह्मकमल से करते हैं. हर तीसरे साल ब्रह्मकमल लाने के लिए दो दर्जन से अधिक गांवों के ग्रामीण 13 हजार 700 फीट की ऊंचाई पर स्थित छिपलाकेदार क्षेत्र में जाते हैं. जहां कुंड में स्नान, परिक्रमा और पूजा-अर्चना कर ब्रह्मकमल लेकर वापस अपने गांव लौटते हैं, जिसके बाद पूरे विधि विधान से मां नंदा देवी की पूजा की जाती है.

मां नंदा देवी को भगवती की 6 अंगभूता देवियों में से एक माना जाता है. साथ ही नंदा देवी को नवदुर्गाओं में से भी एक बताया गया है. मान्यता है कि हिमालय की नंदा देवी को ब्रह्मकमल पुष्प प्रिय है. जिस कारण राज्य पुष्प ब्रह्मकमल से मां नंदा की पूजा करने का रिवाज पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है. साथ ही ग्रामीणों द्वारा पारंपरिक वेशभूषा में लोकगीतों के साथ गीत जाए जाते हैं. सदियों पुरानी इस परंपरा को यहां के लोग आज भी जीवित रखे हुए हैं.

यहां खास अंदाज में होती है मां नंदा की पूजा

ढोल-नगाड़ों के साथ छिपला जात में शिकरत करते श्रद्धालुः मुनस्यारी और बंगापानी तहसील के ग्रामीण मां नंदा देवी को चढ़ाए जाने वाले ब्रह्मकमल को लाने के लिए प्रत्येक तीसरे साल भादों के महीने में छिपलाकोट की यात्रा करते हैं. इसे छिपला जात के नाम से भी जाना जाता है. 30 से 90 किलोमीटर लंबी इस पैदल यात्रा में ग्रामीणों को करीब 5 से 7 दिन लगते हैं. छिपलाकोट से प्रसाद के रूप में केदार कुंड का पवित्र जल और पवित्र पुष्प ब्रहमकमल साथ लाने की परंपरा है. ढोल-नगाड़ों के साथ ग्रामीण ब्रह्मकमल लेकर वापस अपने गांव पहुंचते है, जहां नंदा देवी के मंदिर में पूजा की जाती है.

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छिपलाकोट में जनेऊ संस्कार करना माना जाता है शुभः छिपलाकोट जात का विशेष महत्व यह है कि यहां बालकों का जनेऊ संस्कार किया जाता है. जिन बच्चों का जनेऊ संस्कार होना है, उन्हें नौलधप्या कहते है. सभी नौलधप्या सफेद पोषाक, सफेद पगड़ी, हाथों में शंख, लाल-सफेद रंग का ध्वज और गले में घंटी लेकर नंगे पांव यात्रा करते हैं. इस साल 103 बच्चों का छिपलाकोट में जनेऊ संस्कार किया गया है. छिपलाकोट में जनेऊ संस्कार करना शुभ माना जाता है. वहीं, मान्यता ये भी है कि इस यात्रा में बिना जनेऊ वाले पुरुषों और महिलाओं का जाना वर्जित है.

इन गांवों के ग्रामीण करते हैं शिरकतः गोल्फा, जारा जिबली, बरम, सैनराथी, किमखेत, बेडूमहर, डोर, होकरा, नामिक, गिन्नी, समकोट, डोकुला, सेलमाली, लास्पा, रिलकोट, मर्तोली, मापा, ल्वां, पांछू, गनघर, मिलम, बुर्फू, बिलजू, टोला, खिलांच, रालम.

Last Updated : Sep 16, 2021, 10:17 PM IST
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