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न काष्ठ रहा न कलाकार, अंतिम सांसें गिन रही पुश्तैनी विरासत - काष्ठ कला अंतिम सांसें गिन रहा

उत्तराखंड में सरकारी उपेक्षा और पैसे की वजह से काष्ठ कला अंतिम सांसें गिन रहा है. गेठी और सानन की लकड़ी से बनने वाले बर्तन अब रसोई से कोसों दूर हो चुके हैं.

Woodwork in Uttarakhand
अंतिम सांसें गिन रहे काष्ठशिल्प
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Published : May 16, 2020, 5:32 PM IST

Updated : May 18, 2020, 6:40 PM IST

रामनगर: उत्तराखंड के पहाड़ों में हर घर की शान बढ़ाने वाली काष्ठ कला अब यादों में सिमट गई है. उत्तराखंड काष्ठ कला के लिए प्रसिद्ध है. काष्ठ कारीगर लकड़ी से पाली, ठेकी, कुमया भदेल, ढौकली आदि तैयार करते थे. लेकिन सरकारी उपेक्षा और उचित पैसे नहीं मिलने के कारण उत्तराखंड में अब न काष्ठ रहा और न कलाकार.

उत्तराखंड में काष्ठ कला अब विलुप्त होने की कगार पर है. बागेश्वर से हर साल रामनगर के गर्जिया में काष्ठ कलाकार कारोबार करने के लिए पहुंचते हैं. वन विभाग द्वारा आवंटित सूखे पेड़ों से ये कलाकार लकड़ी में जीवन उकेरते हैं. पाली, ठेकी, नलिया, कुमया भदेल, ढौकली उत्तराखंड के हर घर की शान बढ़ाया करते थे. पहाड़ों में राजी जनजाति के लोग ही लकड़ी के बर्तन बनाने की परम्परागत कला जानते हैं.

बुरे दौर से गुजर रही काष्ठकला.

ये भी पढ़ें: बाबा केदार का 'सफेद श्रृंगार', सफेद चादर में ढकी केदारनाथ की पहाड़ियां

कैसे बनाते हैं बर्तन

राजी जनजाति के लोग हर साल रामनगर में आकर कोसी और बौर नदी किनारे अपना डेरा जमाकर पनचक्की की मदद से लकड़ी के बर्तन तैयार करते हैं. कारीगर अपने कौशल के बदौलत नदी की धारा को एक नाली से गुजारते हैं. नाली में एक पंखा लगा रहता है, जो पानी की तेज धार गिरने पर घूमता है. उस पंखे के साथ खराद जुड़ा होता है, जिसकी मदद से काष्ठकार लकड़ी के बर्तन बनाते हैं. गेठी और सानन की लकड़ी से बनने वाले बर्तन किसी जमाने में उत्तराखंड के हर घर की शान बढ़ाया करते थेे.

हाशिए पर राजी जनजाति और काष्ठ कला

काष्ठ कारीगर कुंदन राम के मुताबिक वे हर साल बागेश्वर से रामनगर बर्तन बनाने के लिए आते हैं. पहले बागेश्वर से करीब 20 कारीगरों का दल आता था. जो अब मात्र 3 लोगों पर ही सिमट गया है. कुंदन राम के मुताबिक उपेक्षा और उचित मूल्य नहीं मिलने के कारण कारीगर काष्ठ कला से दूर होते जा रहे हैं. उनके गांव में अब मात्र 29 ही काष्ठ कारीगर बचे हुए हैं.

काष्ठ कारीगर कुंदन राम बताते हैं कि इस काम के जरिए 15 से 20 हजार रुपए की आमदनी होती है. जिससे पूरे साल घर का खर्चा चलता है. हमारी चौथी पीढ़ी इस काम में लगी हुई है. अगर सरकार इस कला पर ध्यान नहीं देती तो जल्द ही उत्तराखंड के काष्ठकला विलुप्त हो जाएगी.

कम दिखते हैं लकड़ी के बर्तन

सूखी लकड़ियों के सहारे बर्तन बना रहे कुंदन राम काष्ठ कला को नया आयाम देने में जुटे हुए हैं. दशकों पहले कुमाऊं में काष्ठ से निर्मित बर्तनों का चलन था. राजी जनजाति के लोगों का ही बर्तन बनाने की परंपरागत कला आजीविका का साधन है.

उत्तराखंड में काष्ठ कला से जुड़े परिवारों के सामने भी रोजी-रोटी का संकट हो गया है. जिसकी वजह से वे अब दूसरे व्यवसाय को अपना रहे हैं. इतिहासकार भी मानते हैं जल्द ही सरकार को इस को संजोने के लिए कदम उठाना चाहिए, नहीं तो इसको विलुप्त होते देर नहीं लगेगी.

कारीगरों का मोह भंग

उत्तराखंड की काष्ठ कला का अपना विशिष्ट स्थान है. जिसका प्रभाव देवभूमि के लोक कला, वास्तुकला और चित्रकला में स्पष्ट तौर से देखने को मिलता है. आधुनिकता आज इस परम्परागत कला को लील रही है और काष्ठ के कारीगरों का इस व्यवसाय से मोह भंग हो रहा है. सरकार को इसे बढ़ावा और जीवंत रखने के लिए बढ़ावा देने की आवश्यकता है.

बढ़ावा देने की जरूरत

वर्तमान में काष्ठ कला से जुड़े परिवारों के सामने भी रोजी रोटी का संकट पैदा हो गया है. जिससे वे अपना पुश्तैनी रोजगार छोड़ने को विवश हैं. काष्ठ कला के कारीगरों का कहना है कि सरकार को इस अतीत की घरोहर को संजोए रखने के लिए प्रयास करने होंगे, जिससे आने वाली पीढ़ी भी इस कला से रूबरू हो सके.

रामनगर: उत्तराखंड के पहाड़ों में हर घर की शान बढ़ाने वाली काष्ठ कला अब यादों में सिमट गई है. उत्तराखंड काष्ठ कला के लिए प्रसिद्ध है. काष्ठ कारीगर लकड़ी से पाली, ठेकी, कुमया भदेल, ढौकली आदि तैयार करते थे. लेकिन सरकारी उपेक्षा और उचित पैसे नहीं मिलने के कारण उत्तराखंड में अब न काष्ठ रहा और न कलाकार.

उत्तराखंड में काष्ठ कला अब विलुप्त होने की कगार पर है. बागेश्वर से हर साल रामनगर के गर्जिया में काष्ठ कलाकार कारोबार करने के लिए पहुंचते हैं. वन विभाग द्वारा आवंटित सूखे पेड़ों से ये कलाकार लकड़ी में जीवन उकेरते हैं. पाली, ठेकी, नलिया, कुमया भदेल, ढौकली उत्तराखंड के हर घर की शान बढ़ाया करते थे. पहाड़ों में राजी जनजाति के लोग ही लकड़ी के बर्तन बनाने की परम्परागत कला जानते हैं.

बुरे दौर से गुजर रही काष्ठकला.

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कैसे बनाते हैं बर्तन

राजी जनजाति के लोग हर साल रामनगर में आकर कोसी और बौर नदी किनारे अपना डेरा जमाकर पनचक्की की मदद से लकड़ी के बर्तन तैयार करते हैं. कारीगर अपने कौशल के बदौलत नदी की धारा को एक नाली से गुजारते हैं. नाली में एक पंखा लगा रहता है, जो पानी की तेज धार गिरने पर घूमता है. उस पंखे के साथ खराद जुड़ा होता है, जिसकी मदद से काष्ठकार लकड़ी के बर्तन बनाते हैं. गेठी और सानन की लकड़ी से बनने वाले बर्तन किसी जमाने में उत्तराखंड के हर घर की शान बढ़ाया करते थेे.

हाशिए पर राजी जनजाति और काष्ठ कला

काष्ठ कारीगर कुंदन राम के मुताबिक वे हर साल बागेश्वर से रामनगर बर्तन बनाने के लिए आते हैं. पहले बागेश्वर से करीब 20 कारीगरों का दल आता था. जो अब मात्र 3 लोगों पर ही सिमट गया है. कुंदन राम के मुताबिक उपेक्षा और उचित मूल्य नहीं मिलने के कारण कारीगर काष्ठ कला से दूर होते जा रहे हैं. उनके गांव में अब मात्र 29 ही काष्ठ कारीगर बचे हुए हैं.

काष्ठ कारीगर कुंदन राम बताते हैं कि इस काम के जरिए 15 से 20 हजार रुपए की आमदनी होती है. जिससे पूरे साल घर का खर्चा चलता है. हमारी चौथी पीढ़ी इस काम में लगी हुई है. अगर सरकार इस कला पर ध्यान नहीं देती तो जल्द ही उत्तराखंड के काष्ठकला विलुप्त हो जाएगी.

कम दिखते हैं लकड़ी के बर्तन

सूखी लकड़ियों के सहारे बर्तन बना रहे कुंदन राम काष्ठ कला को नया आयाम देने में जुटे हुए हैं. दशकों पहले कुमाऊं में काष्ठ से निर्मित बर्तनों का चलन था. राजी जनजाति के लोगों का ही बर्तन बनाने की परंपरागत कला आजीविका का साधन है.

उत्तराखंड में काष्ठ कला से जुड़े परिवारों के सामने भी रोजी-रोटी का संकट हो गया है. जिसकी वजह से वे अब दूसरे व्यवसाय को अपना रहे हैं. इतिहासकार भी मानते हैं जल्द ही सरकार को इस को संजोने के लिए कदम उठाना चाहिए, नहीं तो इसको विलुप्त होते देर नहीं लगेगी.

कारीगरों का मोह भंग

उत्तराखंड की काष्ठ कला का अपना विशिष्ट स्थान है. जिसका प्रभाव देवभूमि के लोक कला, वास्तुकला और चित्रकला में स्पष्ट तौर से देखने को मिलता है. आधुनिकता आज इस परम्परागत कला को लील रही है और काष्ठ के कारीगरों का इस व्यवसाय से मोह भंग हो रहा है. सरकार को इसे बढ़ावा और जीवंत रखने के लिए बढ़ावा देने की आवश्यकता है.

बढ़ावा देने की जरूरत

वर्तमान में काष्ठ कला से जुड़े परिवारों के सामने भी रोजी रोटी का संकट पैदा हो गया है. जिससे वे अपना पुश्तैनी रोजगार छोड़ने को विवश हैं. काष्ठ कला के कारीगरों का कहना है कि सरकार को इस अतीत की घरोहर को संजोए रखने के लिए प्रयास करने होंगे, जिससे आने वाली पीढ़ी भी इस कला से रूबरू हो सके.

Last Updated : May 18, 2020, 6:40 PM IST
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