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हुड़कियां बौल पर हुई धान की रोपाई, लोकसंस्कृति को जिंदा रखने का प्रयास - लोक गीतों की संस्कृति

खेतों में हुड़किया बौल के गूंजते स्वर आज भी पहाड़ की उस संस्कृति को जिंदा कर देती है, जिसे युवा पीढ़ी धीरे-धीरे दूर होती जा रही है.

हुड़किया बौल
हुड़किया बौल
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Published : Jul 26, 2020, 10:10 PM IST

रामनगर: उत्तराखंड अपनी लोक संस्कृति और रीती रिवाजों को लेकर हमेशा जाना जाता है. यहा की प्राचीन संस्कृति जनमानस में रची बसी है. हालांकि धीरे-धीरे युवा इन रीती रिवाजों से दूर होते जा रहे है. बावजूद उसके कुछ जंगहों पर आज भी उन परमपराओं को निभाया जा रहा है. जिसमें से एक है 'हुड़किया बौल'.

पढ़ें- उत्तराखंडः सदियों पुरानी परंपरा 'हुड़किया बौल' को आज भी संजोए हुए हैं ये ग्रामवासी

उत्तराखंड में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा रही है. हुड़किया बौल इसमें प्रमुख है. खेती और सामूहिक श्रम से जुड़ी यह परंपरा सिमटती कृषि के साथ ही कम होती चली जा रही है. लेकिन रामनगर के ग्रामीण इलाकों में बसे लोगों ने आज भी इस संस्कृति को जिंदा रखा है. यहां किसान हुड़किया बौल पर धान की रोपाई करते है. हुड़किया बौल पर धान की रुपाई ये नजारा उम्मेदपुर गांव में देखने के मिला.

लोकसंस्कृति को जिंदा रखने का प्रयास.

यह है हुड़किया बौल

हुड़किया बौल हुड़का व बौल शब्द से मिलकर बना है. जिसका अर्थ है कई हाथों का सामूहिक रूप से कार्य करना. उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की रोपाई व मडुवे की गोड़ाई के समय हुड़किया बौल गाए जाते हैं. पहले भूमि के देवता भूमियां, पानी के देवता इंद्र, छाया के देव मेघ की वंदना से शुरुआत होती है. फिर हास्य व वीर रस आधारित राजुला मालूशाही, सिदु-बिदु, जुमला बैराणी आदि पौराणिक गाथाएं गाई जाती हैं. हुड़के को थाम देता कलाकार गीत गाता है, जबकि रोपाई लगाती महिलाएं उसे दोहराती हैं. हुड़के की गमक और अपने बोलों से कलाकार काम में फुर्ती लाने का प्रयास करता है.

ऐसे होते हैं हुड़किया बौल के स्वर

  • सेलो दिया बितो हो धरती माता
  • दैंणा है जाया हो भुमियां देवा
  • दैंणा है जाया हो धरती माता
  • हैंणा है जाया हो पंचनाम देवा
  • सेवो द्यो बिदो भुम्याल देवा..

ऐसा माना जाता है कि हुड़किया बौल के चलते दिन-भर रोपाई के बावजूद थकान महसूस नहीं होती. हुड़के की थाप पर लोकगीतों में ध्यान लगाकर महिलाएं तेजी से रोपाई के कार्य को निपटाती हैं. समूह में कार्य कर रही महिलाओं को हुड़का वादक अपने गीतों से जोश भरने का काम करता है. यह परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी कुमाऊं के कई हिस्सों में जीवंत है.

रामनगर: उत्तराखंड अपनी लोक संस्कृति और रीती रिवाजों को लेकर हमेशा जाना जाता है. यहा की प्राचीन संस्कृति जनमानस में रची बसी है. हालांकि धीरे-धीरे युवा इन रीती रिवाजों से दूर होते जा रहे है. बावजूद उसके कुछ जंगहों पर आज भी उन परमपराओं को निभाया जा रहा है. जिसमें से एक है 'हुड़किया बौल'.

पढ़ें- उत्तराखंडः सदियों पुरानी परंपरा 'हुड़किया बौल' को आज भी संजोए हुए हैं ये ग्रामवासी

उत्तराखंड में लोकगीतों की समृद्ध परंपरा रही है. हुड़किया बौल इसमें प्रमुख है. खेती और सामूहिक श्रम से जुड़ी यह परंपरा सिमटती कृषि के साथ ही कम होती चली जा रही है. लेकिन रामनगर के ग्रामीण इलाकों में बसे लोगों ने आज भी इस संस्कृति को जिंदा रखा है. यहां किसान हुड़किया बौल पर धान की रोपाई करते है. हुड़किया बौल पर धान की रुपाई ये नजारा उम्मेदपुर गांव में देखने के मिला.

लोकसंस्कृति को जिंदा रखने का प्रयास.

यह है हुड़किया बौल

हुड़किया बौल हुड़का व बौल शब्द से मिलकर बना है. जिसका अर्थ है कई हाथों का सामूहिक रूप से कार्य करना. उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में धान की रोपाई व मडुवे की गोड़ाई के समय हुड़किया बौल गाए जाते हैं. पहले भूमि के देवता भूमियां, पानी के देवता इंद्र, छाया के देव मेघ की वंदना से शुरुआत होती है. फिर हास्य व वीर रस आधारित राजुला मालूशाही, सिदु-बिदु, जुमला बैराणी आदि पौराणिक गाथाएं गाई जाती हैं. हुड़के को थाम देता कलाकार गीत गाता है, जबकि रोपाई लगाती महिलाएं उसे दोहराती हैं. हुड़के की गमक और अपने बोलों से कलाकार काम में फुर्ती लाने का प्रयास करता है.

ऐसे होते हैं हुड़किया बौल के स्वर

  • सेलो दिया बितो हो धरती माता
  • दैंणा है जाया हो भुमियां देवा
  • दैंणा है जाया हो धरती माता
  • हैंणा है जाया हो पंचनाम देवा
  • सेवो द्यो बिदो भुम्याल देवा..

ऐसा माना जाता है कि हुड़किया बौल के चलते दिन-भर रोपाई के बावजूद थकान महसूस नहीं होती. हुड़के की थाप पर लोकगीतों में ध्यान लगाकर महिलाएं तेजी से रोपाई के कार्य को निपटाती हैं. समूह में कार्य कर रही महिलाओं को हुड़का वादक अपने गीतों से जोश भरने का काम करता है. यह परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी कुमाऊं के कई हिस्सों में जीवंत है.

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