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'भगवान के सेवकों' पर मंडराने लगा खतरा, पाश्चात्य सभ्यता बन रही सबसे बड़ा कारण - उत्तराखंड में कुमाऊं सभ्यता

कालाढूंगी में ढोल, नगाड़ों की सभ्यता पाश्चात्य शैली के कारण धीरे धीरे खत्म होती जा रही है. इसके संरक्षण को करना बेहद जरूरी है.

'भगवान के सेवकों' पर मंडराने लगा खतरा.
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Published : Nov 10, 2019, 6:02 PM IST

कालाढूंगी: कुमाऊं की संस्कृति में ढोल, दमाऊं, नगाड़ा, छोलिया नृत्य आदि को अटूट हिस्सा माना जाता है. वहीं, इन को बजाने वालो को दास की उपाधि या भगवान का सेवक बताया गया है. कुमाऊं में होने वाले हर शुभ अवसर पर इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है, लेकिन पाश्चात्य सभ्यता को बढ़ावा मिलते ही कुमाऊं की ये संस्कृति के ऊपर खतरा मंडराने लगा है, जिसका संरक्षण करना बेहद जरूरी है.

'भगवान के सेवकों' पर मंडराने लगा खतरा.

कुमाऊं के इतिहास से ही ढोल दमाऊं, छोलिया नृत्य का विशेष महत्व माना गया है. कुमाऊं में होने वाले हर शुभ कार्य में इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी, जो अब धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर खड़ा है, जिसका संरक्षण बेहद जरूरी है. ढोल दमाऊं बजाने वालों को दास कहा जाता है इनको भगवान का सेवक भी कहा जाता है. पूर्व के समय में दासों को अलग अलग गांव बांटे जाते थे और अलग अलग मंदिर भी इनको दिए गए थे.

ये भी पढ़ें: अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम को लेकर नाराज हुईं नेता प्रतिपक्ष, सरकार को दी ये नसीहत

कुमाऊं इतिहास के अनुसार, मंदिर में पूजा अर्चना, भागवत कथा और कई दैवीय कार्यक्रमों में इनका होना आवश्यक माना गया है. भगवान को जाग्रत करने का काम दासों का होता है और दैवीय मंत्रोच्चार के समय कई मंत्र ऐसे होते है, जिन्हें महिलाओं, बच्चों और अन्य को सुनना वर्जित होता है. उस समय दास ढोल बजाकर मंत्रोच्चार की ध्वनि को कम कर देते है इसका भी विशेष महत्व माना गया है. इसके अलावा शादी बरातों में भी इनका विशेष महत्व माना गया है. कहा जाता है कि पूर्व के समय में ढोल नगाड़ों से ही दूसरों को सूचित किया जाता था.

देश भर में विख्यात मां कोटगाड़ी मंदिर पांखू (जिला पिथौरागढ़) के मुख्य पुजारी और कुमाऊं की संस्कृति के जानकार पीताम्बर पाठक ने बताया कि कुमाऊं के इतिहास में ढोल, दमाऊं और दासों को सर्वोच्च स्थान दिया गया है. कुमाऊं की संस्कृति में कोई भी शुभ कार्य इनके बिना असम्भव है. आज के समय में कुमाऊं की धरोहर को गहरा आघात पहुंचा है, जिसको संजोकर रखना आम जनमानस का फर्ज है.

कालाढूंगी: कुमाऊं की संस्कृति में ढोल, दमाऊं, नगाड़ा, छोलिया नृत्य आदि को अटूट हिस्सा माना जाता है. वहीं, इन को बजाने वालो को दास की उपाधि या भगवान का सेवक बताया गया है. कुमाऊं में होने वाले हर शुभ अवसर पर इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है, लेकिन पाश्चात्य सभ्यता को बढ़ावा मिलते ही कुमाऊं की ये संस्कृति के ऊपर खतरा मंडराने लगा है, जिसका संरक्षण करना बेहद जरूरी है.

'भगवान के सेवकों' पर मंडराने लगा खतरा.

कुमाऊं के इतिहास से ही ढोल दमाऊं, छोलिया नृत्य का विशेष महत्व माना गया है. कुमाऊं में होने वाले हर शुभ कार्य में इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी, जो अब धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर खड़ा है, जिसका संरक्षण बेहद जरूरी है. ढोल दमाऊं बजाने वालों को दास कहा जाता है इनको भगवान का सेवक भी कहा जाता है. पूर्व के समय में दासों को अलग अलग गांव बांटे जाते थे और अलग अलग मंदिर भी इनको दिए गए थे.

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कुमाऊं इतिहास के अनुसार, मंदिर में पूजा अर्चना, भागवत कथा और कई दैवीय कार्यक्रमों में इनका होना आवश्यक माना गया है. भगवान को जाग्रत करने का काम दासों का होता है और दैवीय मंत्रोच्चार के समय कई मंत्र ऐसे होते है, जिन्हें महिलाओं, बच्चों और अन्य को सुनना वर्जित होता है. उस समय दास ढोल बजाकर मंत्रोच्चार की ध्वनि को कम कर देते है इसका भी विशेष महत्व माना गया है. इसके अलावा शादी बरातों में भी इनका विशेष महत्व माना गया है. कहा जाता है कि पूर्व के समय में ढोल नगाड़ों से ही दूसरों को सूचित किया जाता था.

देश भर में विख्यात मां कोटगाड़ी मंदिर पांखू (जिला पिथौरागढ़) के मुख्य पुजारी और कुमाऊं की संस्कृति के जानकार पीताम्बर पाठक ने बताया कि कुमाऊं के इतिहास में ढोल, दमाऊं और दासों को सर्वोच्च स्थान दिया गया है. कुमाऊं की संस्कृति में कोई भी शुभ कार्य इनके बिना असम्भव है. आज के समय में कुमाऊं की धरोहर को गहरा आघात पहुंचा है, जिसको संजोकर रखना आम जनमानस का फर्ज है.

Intro:कुमाऊँ की संस्कृति का अटूट हिस्सा माना जाता है ढोल, दमुआ, नगाड़ा, छोलिया नृत्य आदि, इनको बजाने वालो को दास की उपाधि दी गई है। दास को भगवान का सेवक बताया गया है जो कुमाऊँ मैं होने वाले हर शुभ अवसर पर इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है, लेकिन पश्च्यात सभ्यता को बढ़ावा मिलते ही कुमाऊँ की ये संस्कृति के ऊपर खतरा मंडराने लगा है, जिसका संरक्षण होना बेहद जरूरी है।Body:कुमाऊँ के इतिहास की बात करे तो इसमें ढोल, नगाड़े, दमुआ, छोलिया नृत्य का विशेष महत्व माना गया है। कुमाऊँ मैं होने वाले हर शुभ कार्य मैं इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी जो अब लुप्त होने की कगार पर खड़ा है जिसका संरक्षण बेहद जरूरी है। ढोल दमुआ बजाने वालो को दास कहा जाता है इनको भगवान का सेवक भी कहा जाता है। पूर्व के समय मैं दासों को अलग अलग गांव बांटे जाते थे और अलग अलग मंदिर भी इनको दिए गए थे। कुमाऊँ इतिहास के अनुसार मंदिर मैं पूजा अर्चना, भागवत कथा और भी कई दैवीय कार्यक्रमों मैं इनका होना आवश्यक माना गया है। भगवान को जाग्रत करने का काम दासों का है और दैवीय मंत्रोच्चार के समय कई मंत्र ऐसे होते है जिन्हें महिलाओं, बच्चों तथा अन्य को सुनना वर्जित होता है उस समय दास ढोल बजाकर मंत्रोच्चार की ध्वनि को कम कर देते है इसका भी विशेष महत्व माना गया है। इसके अलावा शादी बरातों मैं भी इनका विशेष महत्व माना गया है, कहा जाता है कि पूर्व के समय मैं ढोल नगाड़ों से ही दूसरों को सूचित किया जाता था, ढोल दमुआ आज के दौर मैं पुरानी बातें साबित हो रही है, जिसको संजोकर रखकर कुमाऊँ की लुप्त होती संस्कृति को बचाया जा सकता है।Conclusion:देश भर मैं विख्यात माँ कोटगाडी मंदिर पांखू (जनपद पिथौरागढ़) के मुख्य पुजारी और कुमाऊँ की संस्कृति के जानकार पीताम्बर पाठक ने बताया कि कुमाऊँ के इतिहास मैं ढोल, दमुआ, और दासों को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। कुमाऊँ की संस्कृति मैं कोई भी शुभ कार्य इनके बिना असम्भव है। आज के समय मैं कुमाऊँ की धरोहर को गहरा आघात पहुंचा है जिसको संजोकर रखना एक आमजन का फर्ज है। साथ ही उन्होंने बताया कि सरकार को भी इस ओर ध्यान देकर ठोस कदम उठाने चाहिए जिससे अपनी संस्कृति के उत्थान के लिए नए आयाम जोड़े जा सके।
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