कालाढूंगी: कुमाऊं की संस्कृति में ढोल, दमाऊं, नगाड़ा, छोलिया नृत्य आदि को अटूट हिस्सा माना जाता है. वहीं, इन को बजाने वालो को दास की उपाधि या भगवान का सेवक बताया गया है. कुमाऊं में होने वाले हर शुभ अवसर पर इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है, लेकिन पाश्चात्य सभ्यता को बढ़ावा मिलते ही कुमाऊं की ये संस्कृति के ऊपर खतरा मंडराने लगा है, जिसका संरक्षण करना बेहद जरूरी है.
कुमाऊं के इतिहास से ही ढोल दमाऊं, छोलिया नृत्य का विशेष महत्व माना गया है. कुमाऊं में होने वाले हर शुभ कार्य में इनकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती थी, जो अब धीरे-धीरे लुप्त होने की कगार पर खड़ा है, जिसका संरक्षण बेहद जरूरी है. ढोल दमाऊं बजाने वालों को दास कहा जाता है इनको भगवान का सेवक भी कहा जाता है. पूर्व के समय में दासों को अलग अलग गांव बांटे जाते थे और अलग अलग मंदिर भी इनको दिए गए थे.
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कुमाऊं इतिहास के अनुसार, मंदिर में पूजा अर्चना, भागवत कथा और कई दैवीय कार्यक्रमों में इनका होना आवश्यक माना गया है. भगवान को जाग्रत करने का काम दासों का होता है और दैवीय मंत्रोच्चार के समय कई मंत्र ऐसे होते है, जिन्हें महिलाओं, बच्चों और अन्य को सुनना वर्जित होता है. उस समय दास ढोल बजाकर मंत्रोच्चार की ध्वनि को कम कर देते है इसका भी विशेष महत्व माना गया है. इसके अलावा शादी बरातों में भी इनका विशेष महत्व माना गया है. कहा जाता है कि पूर्व के समय में ढोल नगाड़ों से ही दूसरों को सूचित किया जाता था.
देश भर में विख्यात मां कोटगाड़ी मंदिर पांखू (जिला पिथौरागढ़) के मुख्य पुजारी और कुमाऊं की संस्कृति के जानकार पीताम्बर पाठक ने बताया कि कुमाऊं के इतिहास में ढोल, दमाऊं और दासों को सर्वोच्च स्थान दिया गया है. कुमाऊं की संस्कृति में कोई भी शुभ कार्य इनके बिना असम्भव है. आज के समय में कुमाऊं की धरोहर को गहरा आघात पहुंचा है, जिसको संजोकर रखना आम जनमानस का फर्ज है.