हल्द्वानी: कुमाऊं की होली दुनिया भर में प्रसिद्ध (Famous Holi of Kumaon) है, जो अपनी सांस्कृतिक विशेषता (Historical Holi of Kumaon) के लिए पूरे देश में जानी जाती है. जिसकी झलक महानगरों में भी देखने को मिल जाती है. आमतौर पर देशभर में होली फरवरी- मार्च यानी फाल्गुन से शुरू होती है, लेकिन कुमाऊं क्षेत्र में बैठकी-होली पौष माह की ठंड में शुरू हो जाती है. यह होली शास्त्रीय संगीत पर आधारित होली है. जिसकी धूम हल्द्वानी के साथ ही साथ अन्य जनपदों में भी देखने को मिल रही है.
हल्द्वानी में बैठकी होली की धूम: हल्द्वानी में इन दिनों बैठकी होली की धूम (baithki holi in Haldwani uttarakhand) मची हुई है. यहां देर रात तक होली गायन की महफिलें जम रही हैं. इसमें देर रात तक शास्त्रीय रागों पर आधारित होली के गीत गाए जा रहे हैं. वहीं बैठकी होली (Haldwani baithki holi) का आनंद लेने के लिए रंगकर्मियों, कलाकारों और स्थानीय लोगों का जमावड़ा लगा है.
शास्त्रीय रागों वाली होली: इस बैठकी होली की विशेषता यह है कि यह शास्त्रीय रागों पर गायी जाती है. इसमें ईश्वर की आराधना के निर्वाण गीत गाए जाते हैं. वसंत के शुरू होते ही श्रृंगार रस के गाने शुरू हो जाते हैं. शिवरात्रि के बाद होली अपने पूरे उफान पर होती है. बैठकी होली शुद्ध शास्त्रीय गायन है, लेकिन शास्त्रीय गायन की तरह एकल गायन नहीं है. होली में भाग लेने वाला मुख्य कलाकार गीतों का मुखड़ा गाते हैं और श्रोता होल्यार भी बीच-बीच में साथ देते हैं, जिसे भाग लगाना कहते हैं. वहीं कुमाऊं में शाम होते ही संगीत प्रेमियों द्वारा अपने-अपने घरों में शास्त्रीय रागों पर आधारित बैठकी होली का गायन शुरू हो जाता है.
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जानिए क्या है इस होली की विशेषता: सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की इस बैठकी-होली का इतिहास 150 साल से भी अधिक पुराना है. पौष माह के पहले रविवार से गणपति वंदना के साथ ही बैठकी होली शुरू हो जाती है. कड़ाके की ठंड में भी होली गीतों के रसिक इस बैठकी होली गायन में देर रात्रि तक उत्साहपूर्वक भागीदारी करते हैं. इन दिनों देर रात तक कुमाऊं मंडल में होली की महफिलें सज रही हैं.
यह होली पूरे तीन महीनों तक चलेगी. इसके साथ ही इस होली की एक मुख्य विशेषता यह भी है कि यह शास्त्रीय रागों पर आधारित होती है, वहीं यह होली शिवरात्रि तक बिना रंगों के सिर्फ संगीत के साथ मनाई जाती है. सायं होते ही संगीत प्रेमियों द्वारा अपने अपने घरों में शास्त्रीय रागों पर आधारित बैठकी-होली का गायन शुरू हो जाता है. इस होली की एक खास बात यह है कि इस होली में न केवल हिन्दू धर्म के लोग हिस्सेदारी करते हैं, बल्कि मुस्लिम समुदाय के लोग भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं.
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क्या है होली का इतिहास: जानकारों के अनुसार कुमाऊं में होली गीतों के गायन की परम्परा सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से 1860 में शुरू हुई थी. इस होली में गायी जाने वाली बंदिशें विभिन्न रागों पर आधारित होती हैं, जो समय के अनुसार गाये जाते हैं. बैठकी-होली में गाये जाने वाले गानों का एक तरीका होता है जो कि राग काफी, जंगला काफी, खमाज, देश, विहाग, जैजेवन्ती, जोगिया आदि रागों में होली के पद गाये जाते हैं. होली रसिक बताते हैं कि अब कुछ नये रागों पर भी होली के पद गाये जाने की परम्परा नई पीढ़ी ने शुरू कर दी है.
इसके साथ कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि चन्द राजाओं की राजधानी रही अल्मोड़ा में चन्द राजाओं के समय से ही संगीत का खासा असर रहा है, क्योंकि संगीत राजघरानों से ही निकलकर आता था. चन्द राजा भी संगीत के खासा शौकीन थे. इसलिए अल्मोड़ा में उस दौर के प्रख्यात शास्त्रीय गायक अमानत अली खां और ठुमरी गायिका राम प्यारी इस गायकी को लेकर यहां आए थे. उस समय में अल्मोड़ा के संगीत प्रेमी ने उनसे संगीत सीखकर गाने लगे और तब से ही यहां शास्त्रीय संगीत पर आधारित इस अनोखी परम्परा की शुरुआत हुई.
अल्मोड़ा के साथ कुमाऊं के अन्य जिलों में बैठकी होली गायन कई चरणों में पूरा होता है. पहला चरण पौष मास के प्रथम रविवार से वसंत पंचमी तक चलता है इसमें निर्वाण पद गाए जाते हैं. जिसे आध्यात्मिक होली भी कहा जाता है. जिसमें गणेश वंदना से शुरुआत करके सूरदास की रचना, कबीर, तुलसीदास समेत कई रागों के गीत गाये जाते हैं. उसके बाद वसंत पंचमी से महाशिवरात्रि के एक दिन पूर्व तक श्रृंगारिक होली में भगवान कृष्ण के प्रेम गीतों का गायन किया जाता है. तीसरे चरण में महाशिवरात्रि से रंगों से युक्त एवं हंसी मजाक व ठिठोली युक्त गीतों का गायन होता है. अल्मोड़ा के हुक्का क्लब एवं त्रिपुरा सुन्दरी नवयुवक कला केन्द्र सहित कई जगहों में पौष माह के पहले रविवार से इसका आयोजन लगातार जारी है, जो कि छलड़ी तक चलेगा.