नैनीताल: यूं तो पूरे देश में होली का पर्व मनाया जाता है, लेकिन कुमाऊं की खड़ी होली का अपना अलग ही रंग है. गौरवशाली इतिहास समेटे पहाड़ की होली का ऐसा रंग कुमाऊं में ही देखा जाता है. ढोल और रागों पर झूमने के साथ इस होली में गौरवशाली इतिहास का वर्णन होता है. होल्यार भी इसके रंग में रंग जाते हैं, हालांकि पिछले कुछ सालों में रीति रिवाज परंपराओं में बदलाव आए हैं, बावजूद कुमाऊं की होली नजीर बनी हुई है.
15वीं शताब्दी में चंद राजाओं के दरबार से शुरू हुई कुमाऊं की खड़ी होली हर किसी को अपनी ओर खींच लाती है. कुमाऊं की खड़ी होली के देखने के लिए देश-विदेश से पर्यटक आते हैं.
कुमाऊं की खड़ी होती शिवरात्रि के बाद चीर बंधन के साथ शुरू हो जाती है जो छलड़ी तक चलती है. होल्यार अपने पैतृक मंदिर से खड़ी होली की शुरुआत करते हैं. होल्यार सबसे पहले अपने इष्ट देव, उसके बाद माता-पिता और बुजुर्गों को रंग लगाते हैं. फिर शुरू होती ही कुमाऊं की खड़ी होली.
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मंदिर से शुरू हुई होली गांव के हर घर-घर तक पहुंचती है. होल्यार होली का गायन करते हैं जिसके बाद घर के बुजुर्ग होल्यार को आशीष यानी आशीर्वाद देते हैं.
400 पुराना है इतिहास
कुमाऊं की होली का इतिहास 400 साल से ज्यादा पुराना है. ढोल की थाप के साथ कदमों की चहल कदमी और राग रागिनियों का समावेश इस खड़ी होली में मिलता है. कुमाऊं में चंपावत, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा और बागेश्वर समेत अन्य जिलों में हर साल कुमाउंनी होली का आयोजन किया जाता है.
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रामायण और महाभारत काल की गाथाओं को वर्णन
राग दादरा और राग कहरवा में गाई जाने वाली होली में कृष्ण राधा, राजा हरिश्चंद्र, श्रवण कुमार समेत रामायण और महाभारत काल की गाथाओं का वर्णन किया जाता है.
अनूठी परंपरा
इस होली में एक अनूठी परंपरा भी सदियों से चली आ रही है. नैनीताल में मुस्लिम समाज के लोग कुमाउंनी होली में प्रतिभाग करने जरूर आते हैं. यही कारण है कि नैनीताल की होली में कौमी एकता की मिसाल देखने को मिलती है. मुस्लिम समुदाय के लोग पिछले 50 सालों से कुमाउंनी होली में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं.