हरिद्वार: राजा से रंक बनने की कहानियां तो आपने बहुत सुनी होंगी. लेकिन राजा से संत बनने वाले प्रोफेसर वीरेंद्र सिंह पाल की कहानी अपने आप में अनोखी है. वीरेंद्र पाल सिंह उत्तराखंड के सीमांत पिथौरागढ़ जनपद के रहने वाले हैं. वह राजशाही पाल वंश परिवार के वारिस हैं. वीरेंद्र सिंह पाल का परिचय केवल इतना ही नहीं है. वह पीसीएस की नौकरी ठुकरा चुके हैं. यही नहीं राजनीति में भी वीरेंद्र सिंह पाल का अपना दबदबा है, लेकिन यह सब बीते जमाने की बात हो चुकी हैं.
राजशाही के वंशज ने पहने गेरुवे वस्त्र
सब छोड़कर अब वे आध्यात्मिक शांति की खोज में गेरुवे वस्त्र धारण कर चुके हैं. वीरेंद्र सिंह पाल की नई पहचान अब वीरेंद्रानंद गिरि हो गई है और संन्यासियों के सबसे बड़े अखाड़ों में एक जूना अखाड़े में वे महामंडलेश्वर बन चुके हैं. राजशाही परिवार में जन्मे वीरेंद्रानंद बड़े शिक्षाविद रहे हैं. 1992 में पीसीएस में चयनित हुए. 02 साल तक नौकरी करने के बाद उन्होंने गरीब बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के लिए कई स्कूल खोलने का मन बनाया और पीसीएस की नौकरी ठुकरा दी.
चुनाव भी लड़े वीरेंद्र सिंह पाल, अब हैं महामंडलेश्वर
सन् 2017 में पिथौरागढ़ जिले की धारचूला विधानसभा सीट से भाजपा के टिकट पर उन्होंने चुनाव लड़ा और 24 हजार वोट हासिल किए. हालांकि उन्हें शिकस्त मिली. यहां भी वीरेंद्र सिंह पाल का मन नहीं लगा और लोक कल्याण के लिए उन्होंने अब गेरुवे वस्त्र धारण कर लिये हैं. महामंडलेश्वर बनने के बाद पहाड़ों के सीमांत क्षेत्रों के विकास के लिए क्या हैं उनके बड़े उद्देश्य हैं.
पहाड़ की बदहाल शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था सुधारना चाहते हैं
पलायन, अशिक्षा, बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी समस्याओं से जूझ रही पहाड़ की जनता के लिए स्वामी वीरेंद्रानंद गिरि बहुत कुछ करना चाहते हैं. फिर वो स्कूल की स्थापना हो या बड़े अस्पतालों को पहाड़ों पर ले जाना. जूना अखाड़े के कई संत अब इन्हीं के नेतृत्व में पहाड़ों पर विकास कार्य करेंगे जिसके लिए रोड मैप तैयार कर लिया गया है.
संतों से उम्मीद
राजनीति की तरह ही संत परम्परा से भी लोक कल्याण किया जा सकता है. लेकिन बीते सालों में जिस तरह राजनीति में गिरावट देखने को मिली है उसके बाद वीरेंद्र सिंह पाल से वीरेंद्रानंद बने संत पहाड़ों में विकास की एक नई उम्मीद दिखाते नजर आ रहे हैं.
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पाल वंश के बारे में जानिए
पाल वंश का उद्भव लगभग 750 ई. में गोपाल से हुआ. इस वंश ने बिहार अखंडित बंगाल पर लगभग 750 से 1174 ईसवी तक शासन किया. इस राजवंश की स्थापना गोपाल ने की थी, जो एक स्थानीय प्रमुख था. गोपाल आठवीं शताब्दी के मध्य में शासक बना. उसके उत्तराधिकारी धर्मपाल (शासनकाल 770-810 ई.) ने अपने शासनकाल में साम्राज्य का काफी विस्तार किया. कुछ समय तक कन्नौज, उत्तर प्रदेश तथा उत्तर भारत पर भी उसका नियंत्रण रहा.