रुड़की: वक्त के साथ इंसान के लिए तकनीकों में बदलाव आया है. ग्रामोफोन के बाद टेलीफोन और अब हाथ में सुविधानुसार मोबाइल फोन. लेकिन, बरसों से चली आ रही परंपराओं को छोड़ना कितना कष्टकारी होता है, इसका एक उदाहरण रुड़की के दरगाह परिसर में लगा अष्टधातु का घंटा बताता है. बरसों से इबादतगारों और आसपास के देहातों के मेहनतकश किसानों के लिए सायरन का काम करने वाला घंटा आज बदलाव की भेंट चढ़ गया है. एक के बाद एक पुरानी रवायत (परंपराओं) को खत्म करते हुए दरगाह प्रशासन ने यहां लगे ऐतिहासिक अष्टधातु के घंटे को बजाना बंद कर दिया है. इसकी जगह अब लाउडस्पीकर ने ले ली है. स्थानीय लोग इसे ठीक नहीं मानते.
दरअसल, कुछ वक्त पहले अष्टधातु का बना ऐतिहासिक घंटा रहस्यमय परिस्थितियों में गायब हो गया था. उसकी जगह पीतल का घंटा लगाया गया. हालांकि ये घंटा अब किसी शो-पीस की तरह ही है. जिसपर अधिकांश दिनों पर्दा पड़ा रहता है. दरगाह प्रशासन का इस बारे में कहना है कि नए जमाने के साथ चलना जरूरी है. लाउडस्पीकर से अजान की परम्परा शुरू होने के बाद घंटा बजाने का अब कोई औचित्य नहीं रह गया है.
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हालांकि स्थानीय नागरिकों दरगाह प्रशासन की इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं कि आजादी से पूर्व दरगाह परिसर में गूलर के पेड़ पर अष्टधातु का बना ऐतिहासिक घंटा हुआ करता था. जिसके सायरन से इबादत के लिए लोग इकट्ठा होते थे. लेकिन उस घंटे के रहस्यमय परिस्थितियों में गायब होने के बाद पीतल का घंटा लगाया गया. फिर उसका इस्तेमाल कलियर में इबादते इलाही करने वाले सूफी इकराम और मेहनतकश किसानों को जगाने के लिए किया जाता था.
स्थानीय लोगों के अनुसार, रमजान में सहरी व अफ्तार करने में इसी घंटे को बजाकर लोगों को सूचना दी जाती थी. लेकिन वक्त के साथ खत्म होती रवायत में इस घंटे को भी बंद कर दिया गया. स्थानीय लोगों का कहना है कि लाख तरक्की हो, लेकिन बरसों से चली आ रही रवायतों पर रोक लगाना मुनासिब नहीं है. कई बार लोग घंटा बजाने की मांग कर चुके हैं, लेकिन दरगाह प्रशासन के कानों पर जूं नहीं रेंगती.
गौरतलब है कि दरगाह प्रशासन ने मेले एवं सामान्य दिनों की तमाम व्यवस्थाएं ठेका प्रथा को सौंप दी है और ठेकेदारी प्रथा ने सदियों से चली आ रही रवायतों को लील लिया है. मेले में अकीदत का मरकज रहने वाली खानकाहों के वजूद को दरकिनार कर दिया गया है. गूलर पर लगा घंटा भी बदलाव की भेंट चढ़ गया है.