देहरादूनः उत्तराखंड में एक बार फिर से सशक्त भू-कानून (land law) बनाने की मांग तूल पकड़ने लगी है. इसी कड़ी में आज देहरादून के गांधी पार्क में विभिन्न संगठनों ने भू-कानून संयुक्त संघर्ष मोर्चा के बैनर तले धरना दिया और सशक्त को कानून बनाने की मांग की.
भाकपा माले के गढ़वाल संयोजक इंद्रेश मैखुरी का कहना है कि त्रिवेंद्र सरकार ने साल 2018 में जो भू-कानून पास किया था. इसमें बड़े पूंजीपतियों को प्रदेश की जमीनें लूटने का खुला लाइसेंस दे दिया गया. जो अपने आप में एक शर्मनाक है, क्योंकि पूरे देश में हिमालयी राज्यों में ऐसा कोई कानून नहीं है, जो पूरी तरह से जमीनें खरीदने की छूट प्रदान करता हो.
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उन्होंने कहा कि साल 2018 में पास किए गए भू-कानून को तत्काल प्रभाव से निरस्त किया जाए. तमाम संगठन सरकार से मांग करते हैं कि सरकार विधानसभा के शीतकालीन अधिवेशन में 2018 के कानून को निरस्त करते हुए जनता की भावनाओं के अनुरूप कानून बनाए. वहीं, धरने में महिला मंच, राज्य आंदोलनकारियों से जुड़े तमाम संगठन, वामपंथी पार्टियां शामिल हुईं. सबने एक स्वर में जनता की भावनाओं के अनुरूप सशक्त भू-कानून बनाने की मांग उठाई.
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क्या होता है भू-कानून और उत्तराखंड में क्या है इसका इतिहास? भू-कानून का सीधा-सीधा मतलब भूमि के अधिकार से है. यानी आपकी भूमि पर केवल आपका अधिकार है न कि किसी और का. जब उत्तराखंड बना था तो उसके बाद साल 2002 तक बाहरी राज्यों के लोग उत्तराखंड में केवल 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीद सकते थे.
साल 2007 में बतौर मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी ने यह सीमा 250 वर्ग मीटर कर दी. इसके बाद 6 अक्टूबर 2018 को बीजेपी के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत एक नया अध्यादेश लाए, जिसका नाम 'उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950 में संशोधन का विधेयक' था. इसे विधानसभा में पारित किया गया.
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इसमें धारा 143 (क), धारा 154(2) जोड़ी गई. यानी पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया गया. अब कोई भी राज्य में कहीं भी भूमि खरीद सकता था. साथ ही इसमें उत्तराखंड के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, यूएसनगर में भूमि की हदबंदी (सीलिंग) खत्म कर दी गई. इन जिलों में तय सीमा से अधिक भूमि खरीदी या बेची जा सकेगी.
उत्तराखंड की अगर बात करें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2000 के आंकड़ों पर नजर डालें तो उत्तराखंड की कुल 8,31,227 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज थी. इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से ऊपर की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 1,08,863 थी. इन 1,08,863 परिवारों के नाम 4,02,422 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी.
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यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग. बाकी 5 एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28,803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि, किस तरह राज्य के लगभग 12 फीसदी किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि है. बची 88 फीसदी कृषि आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुंच चुकी है. हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड का भू-कानून बहुत ही लचीला है, इसलिए सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग, एक सशक्त, हिमाचल के जैसे भू-कानून की मांग कर रहे हैं.
क्यों चाहिए हिमाचल जैसा कानूनः पहचान का संकट सभ्यता का सबसे बड़ा संकट होता है. उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति भी अपनी पहचान बनाए रखना चाहती है. देश के विभिन्न हिस्सों से आए लोग यदि उत्तराखंड में बेरोट-टोक जमीन खरीद करते रहेंगे तो यहां के सीमांत व छोटे किसान भूमिहीन हो सकते हैं. हिमाचल ने इस संकट को अपने अस्तित्व में आने पर ही पहचान लिया था. प्रदेश निर्माता और पहले मुख्यमंत्री डॉ. वाईएस परमार ने ऐसे कानूनों की नींव रखी कि हिमाचल की भूमि बाहरी लोग न ले पाएं. यहां बाहरी राज्यों के लोग जमीन नहीं खरीद सकते.
यदि किसी को जमीन खरीदनी हो तो उसे भू-सुधार कानून की धारा-118 के तहत सरकार से अनुमति लेनी होती है. यही कारण हैं कि हिमाचल में बाहरी राज्यों के धन्नासेठ या फिर प्रभावशाली लोग न के बराबर जमीन खरीद पाए हैं. प्रियंका वाड्रा जैसे केस न के बराबर हैं. ऐसे प्रभावशाली लोगों को धारा-118 के तहत अनुमति मिलने में खास रुकावट नहीं आती. फिर भी प्रभावशाली से प्रभावशाली व्यक्ति को भी हिमाचल में कृषि योग्य जमीन खरीदने की अनुमति नहीं मिलती.