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कबूतरी देवी के गीतों में झलकता है पहाड़ का दर्द, कुमाऊं से थी आकाशवाणी की पहली गायिका

कबूतरी देवी आकाशवाणी की पहली कुमाउंनी लोक गायिका थी, जो किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. 70 के दशक में उन्होंने रेडियो जगत में अपने लोक गीतों को नई पहचान दिलाई थी. उनके आवाज का जादू ही ऐसा था कि 70 से 80 के दशक में उनके लोकगीत उत्तराखंड के लोगों के सिर चढ़कर बोलता था.

Kabutari Devi
कबूतरी देवी के गीतों में झलकता है पहाड़ का दर्द.
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Published : Mar 8, 2020, 1:31 PM IST

Updated : Jun 4, 2020, 3:03 PM IST

देहरादून: 70 के दशक जैसे ही आकाशवाणी से कबूतरी देवी के लोकगीत की आवाज लोगों के कानों तक पहुंचती थी हर दिल उनके गीतों में लीन हो जाता था. उन्होंने पहली बार पहाड़ के गांव से स्टूडियो पहुंचकर रेडियो जगत में अपने गीतों से धूम मचा दी थी. उनकी आवाज में ऐसा जादू था कि सुनने वाले उनके गीतों में लीन हो जाते थे. आज भले ही कबूतरी देवी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी गीत आज भी देवभूमि के आभामंडल में गूंजते रहते हैं. उनके गाए हुए लोकगीत उन्हें हमारे बीच जीवन्त करते हैं.

70 के दशक में गीतों से मचाया धमाल

कबूतरी देवी आकाशवाणी की पहली कुमाउंनी लोक गायिका थी, जो किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. 70 के दशक में उन्होंने रेडियो जगत में अपने लोक गीतों को नई पहचान दिलाई थी. उनके आवाज का जादू ही ऐसा था कि 70 से 80 के दशक में उनके लोकगीत उत्तराखंड के लोगों के सिर चढ़कर बोलता था. कबूतरी देवी ने पर्वतीय लोक संगीत को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया था. उनका ये योगदान अतुल्यीय है.

पढ़ें-महिला दिवस विशेष : भाषा, गरिमा, ज्ञान और स्वाभिमान का अर्थ 'सुषमा स्वराज

गीतों में झलकता है पहाड़ का दर्द

कबूतरी देवी के गीत में पलायन, चिड़िया, पहाड़, नदी नाले, जंगल, घास के मैदान और प्रदेश के प्रसिद्ध मंदिरों का जिक्र हुआ करता था. जिसका लोग जमकर लुत्फ उठाते थे. उत्तराखंड की तीजनबाई कही जाने वाली कबूतरी देवी सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के क्वीतड़ ब्लॉक मूनाकोट की रहने वाली थी. उन्होंने आकाशवाणी के लिए करीब 100 से अधिक गीत गाए. करीब 20 साल गरीबी में बिताने के बाद 2002 से उनकी प्रतिभा को सही सम्मान मिलने लगा. इसके लिए कई सामाजिक संगठन भी आगे आए.

पढ़ें-अंतरराष्ट्रीय महिला दिवसः हालातों को हराकर सफलता के शिखर पर पहुंची ममता, महिलाओं को बना रही आत्मनिर्भर

बिना तालीम के पाया मुकाम

कुमाऊं कोकिला के नाम से अपनी पहचान बनाने वाली कबूतरी देवी को राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया. कबूतरी देवी ने तो स्कूल पढ़ा और न ही किसी संगीत घराने से ही उनका ताल्लुक रहा, लेकिन जंगल में घास लेने जाने समय ही वे संगीत का रियाज किया करती थी और जब खनकती आवाज लोगों ने आकाशवाणी से सुनीं तो वे सुनते ही रह गए. कबूतरी देवी ही वे लोक गायिका थी जिन्होंने पर्वतीय लोक शैली को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया था.

आज भी हर घर में गूंजता हैं उनके गीत

कबूतरी देवी के 'आज पनि ज्यों-ज्यों, भोव पनि ज्यों-ज्यों' गीत ने संगीत प्रेमियों में हलचल मचा दी थी. ये गाना उनका आज भी पर्वतीय क्षेत्रों में काफी सुना जाता है. 'पहाड़ो को ठंडो पाणि कि भलि मीठी वाणी' गीत आज भी पर्वतीय क्षेत्रों के कार्यक्रमों में गाया जाता है. कबूतरी देवी के आवाज में इतनी मिठास थी कि लोग उन्हें तीजनबाई के नाम से भी पुकारते थे.7 जुलाई 2018 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा तो कह दिया हो, लेकिन उनके लोकगीत में योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. जहां आज देवभूमि की लोकगीत आधुनिकता की चकाचौंध में मुंबइया फिल्मों की संस्कृति को ढो रही है. वहीं पारंपरिक गीत आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.

देहरादून: 70 के दशक जैसे ही आकाशवाणी से कबूतरी देवी के लोकगीत की आवाज लोगों के कानों तक पहुंचती थी हर दिल उनके गीतों में लीन हो जाता था. उन्होंने पहली बार पहाड़ के गांव से स्टूडियो पहुंचकर रेडियो जगत में अपने गीतों से धूम मचा दी थी. उनकी आवाज में ऐसा जादू था कि सुनने वाले उनके गीतों में लीन हो जाते थे. आज भले ही कबूतरी देवी हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी गीत आज भी देवभूमि के आभामंडल में गूंजते रहते हैं. उनके गाए हुए लोकगीत उन्हें हमारे बीच जीवन्त करते हैं.

70 के दशक में गीतों से मचाया धमाल

कबूतरी देवी आकाशवाणी की पहली कुमाउंनी लोक गायिका थी, जो किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. 70 के दशक में उन्होंने रेडियो जगत में अपने लोक गीतों को नई पहचान दिलाई थी. उनके आवाज का जादू ही ऐसा था कि 70 से 80 के दशक में उनके लोकगीत उत्तराखंड के लोगों के सिर चढ़कर बोलता था. कबूतरी देवी ने पर्वतीय लोक संगीत को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया था. उनका ये योगदान अतुल्यीय है.

पढ़ें-महिला दिवस विशेष : भाषा, गरिमा, ज्ञान और स्वाभिमान का अर्थ 'सुषमा स्वराज

गीतों में झलकता है पहाड़ का दर्द

कबूतरी देवी के गीत में पलायन, चिड़िया, पहाड़, नदी नाले, जंगल, घास के मैदान और प्रदेश के प्रसिद्ध मंदिरों का जिक्र हुआ करता था. जिसका लोग जमकर लुत्फ उठाते थे. उत्तराखंड की तीजनबाई कही जाने वाली कबूतरी देवी सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के क्वीतड़ ब्लॉक मूनाकोट की रहने वाली थी. उन्होंने आकाशवाणी के लिए करीब 100 से अधिक गीत गाए. करीब 20 साल गरीबी में बिताने के बाद 2002 से उनकी प्रतिभा को सही सम्मान मिलने लगा. इसके लिए कई सामाजिक संगठन भी आगे आए.

पढ़ें-अंतरराष्ट्रीय महिला दिवसः हालातों को हराकर सफलता के शिखर पर पहुंची ममता, महिलाओं को बना रही आत्मनिर्भर

बिना तालीम के पाया मुकाम

कुमाऊं कोकिला के नाम से अपनी पहचान बनाने वाली कबूतरी देवी को राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया. कबूतरी देवी ने तो स्कूल पढ़ा और न ही किसी संगीत घराने से ही उनका ताल्लुक रहा, लेकिन जंगल में घास लेने जाने समय ही वे संगीत का रियाज किया करती थी और जब खनकती आवाज लोगों ने आकाशवाणी से सुनीं तो वे सुनते ही रह गए. कबूतरी देवी ही वे लोक गायिका थी जिन्होंने पर्वतीय लोक शैली को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया था.

आज भी हर घर में गूंजता हैं उनके गीत

कबूतरी देवी के 'आज पनि ज्यों-ज्यों, भोव पनि ज्यों-ज्यों' गीत ने संगीत प्रेमियों में हलचल मचा दी थी. ये गाना उनका आज भी पर्वतीय क्षेत्रों में काफी सुना जाता है. 'पहाड़ो को ठंडो पाणि कि भलि मीठी वाणी' गीत आज भी पर्वतीय क्षेत्रों के कार्यक्रमों में गाया जाता है. कबूतरी देवी के आवाज में इतनी मिठास थी कि लोग उन्हें तीजनबाई के नाम से भी पुकारते थे.7 जुलाई 2018 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा तो कह दिया हो, लेकिन उनके लोकगीत में योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. जहां आज देवभूमि की लोकगीत आधुनिकता की चकाचौंध में मुंबइया फिल्मों की संस्कृति को ढो रही है. वहीं पारंपरिक गीत आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.

Last Updated : Jun 4, 2020, 3:03 PM IST
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