देहरादून: जरा सा याद कर लो अपने वायदे जुबान को, गर तुम्हे अपनी जुबां का कहा याद आए... ये लाइनें उन राजनेताओं और राजनीतिक दलों के लिए सटीक बैठती हैं, जो सत्ता में आने के लिए तो तमाम वादे कर देते हैं. लेकिन धरातल पर उतारने के लिए प्रयासरत नहीं दिखाई देते हैं. उत्तराखंड में भी कुछ ऐसे ही मुद्दे और वादे हैं, जो साल दर साल वक्त के साथ पुराने तो हो रहे हैं. लेकिन उन पर सियासत की रोटियां सेकने के सिवाय कभी गंभीरता से कोई काम नहीं हो पाया. राज्य स्थापना दिवस पर ईटीवी भारत भी सियासतदानों को ऐसे ही वादे और बातें याद दिला रहा है.
वैसे तो 21 साल का समय कुछ कम नहीं होता, लेकिन राजनेताओं को अपने वादों को लेकर ये समय भी कम ही नजर आता है. उत्तराखंड में पिछले 21 सालों में 4 निर्वाचित सरकारें रही हैं. इस दौरान ऐसे कई मुद्दे राजनीतिक दलों के एजेंडे में रहे हैं, जिसने जनता को चुनावी दौर में रिझाने की कोशिश तो की. लेकिन आज तक इन पर गंभीर प्रयास नहीं हो पाए. इसकी वैसे तो अपनी अलग-अलग कई वजह हो सकती हैं. लेकिन प्रदेश निर्माण को लेकर सड़कों पर आंदोलन करने वाले राज्य जानकारी मानते हैं कि इसकी सबसे बड़ी वजह उत्तराखंड में सरकारों का रिमोट कंट्रोल केंद्र के हाथों में होना है. राज्य आंदोलनकारियों ने प्रदेश में 20 सालों से विभिन्न मुद्दों और वादों को लेकर अपनी बातें रखीं.
भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकायुक्त का गठन: राज्य गठन के बाद से उत्तराखंड में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा रहा है. पहली निर्वाचित सरकार से लेकर मौजूदा सरकारों तक चुनाव के दौरान भ्रष्टाचार को लेकर राजनीतिक दल एक दूसरे पर आरोप लगाते रहे हैं. शायद इसीलिए केंद्र में अन्ना हजारे आंदोलन के बाद से ही उत्तराखंड में भी लोकायुक्त के गठन की मांग सबसे ज्यादा प्रबल रही है. खास बात यह है कि भाजपा जैसे राजनीतिक दल ने 100 दिनों के भीतर लोकायुक्त का गठन किए जाने तक का वादा कर दिया. आज भाजपा सरकार 5 साल पूरे करने जा रही है. लेकिन अब तक लोकायुक्त के गठन पर कोई भी कदम सरकार आगे नहीं बढ़ा पाई है.
पलायन के मुद्दे पर घोषणा पत्र में किए गए दावे अधूरे: अलग राज्य निर्माण की परिकल्पना का एक बड़ा कारण पलायन भी रहा है. इसीलिए राज्य स्थापना के बाद राजनीतिक दलों ने सरकार में आने के लिए पलायन दूर करने को लेकर खूब वादे भी किए. पार्टियों के इन दावों से हटकर पिछले 21 सालों से किसी भी सरकार ने पलायन को रोकने के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाए. इस मामले में त्रिवेंद्र सिंह रावत ने पलायन आयोग तो जरूर बनाया. लेकिन यह आयोग सिवाय बड़ा बजट खर्च करने और आंकड़े जुटाने के अलावा कोई काम नहीं कर पाया.
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रोजगार का मुद्दा आज भी जस का तस: प्रदेश में रोजगार उत्तर प्रदेश के समय से ही एक बड़ा मुद्दा रहा है. इस दौरान पहाड़ी क्षेत्र मे युवाओं को रोजगार नहीं मिलने के कारण लोगों में आक्रोश बढ़ा और अलग राज्य की स्थापना को लेकर आंदोलन ने तेजी पकड़ी. युवाओं को रोजगार देने के लिए भी राजनेताओं ने बड़े-बड़े वादे कर डाले. बीजेपी सरकार हो या कांग्रेस, दोनों ही सरकारों ने रोजगार के मामले पर युवाओं को रिझाने की कोशिश की. प्रदेश में बड़ी संख्या में युवाओं की मौजूदगी को देखते हुए राजनीतिक दलों के फोकस पर युवा रहे, लेकिन यह फोकस केवल चुनावी रहा. बेरोजगारी के मामले पर राज्य सरकारों ने 21 सालों में कुछ खास प्रयास नहीं किए.
गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने में विफल: उत्तराखंड में गैरसैंण राज्य आंदोलन से लेकर सरकार के घोषणा पत्र तक में शामिल रहा है. पहाड़ी प्रदेश की राजधानी पहाड़ पर हो और इससे पहाड़ों में विकास की रफ्तार को तेज किया जाए. कुछ इसी सोच के साथ गैरसैंण को ही स्थाई राजधानी बनाने की हमेशा से ही मांग रही. लेकिन पहले कम जानकारी और सत्ता पाने तक का मकसद लिए राजनीतिक दलों ने देहरादून को ही स्थाई राजधानी घोषित किया. इसके बाद राजनीतिक दलों के एजेंडे में गैरसैंण रहा, लेकिन इस पर प्रयास नहीं हुए. हालांकि, त्रिवेंद्र सिंह रावत ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित किया है. लेकिन गैरसैंण केवल नाम की ही राजधानी रही और ना तो ग्रीष्मकाल में यहां पर सरकार जाने की हिम्मत जुटा पाई और ना ही स्थाई राजधानी की दिशा में कोई काम हो पाया.
स्वास्थ्य सुविधाएं पहाड़ पर पहुंचाने का वादा: राजनीतिक दलों ने स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर भी एक से बढ़कर एक दावे किए. भाजपा ने तो एयर एंबुलेंस तक की शुरुआत करने की बात कही लेकिन जनता की अपेक्षाओं के अनुसार पहाड़ पर स्वास्थ्य सुविधाओं को जुटाने में कोई भी सरकार कामयाब नहीं हो पाई. हालात यह हैं कि मामूली सी बीमारी के लिए भी पहाड़ के लोगों को हजारों लाखों रुपए खर्च कर मैदानों में आना पड़ता है. उधर, सामान्य मेडिकल से जुड़ी मशीनें भी पहाड़ी जनपदों में मौजूद नहीं है. इसके लिए भी लोग हल्द्वानी या देहरादून पर ही निर्भर दिखाई देते हैं. यानी स्वास्थ्य के मामले पर भी राजनीतिक दलों ने अपने वादों को पूरी तरह से भुला दिया.
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राजनेताओं ने ऊर्जा प्रदेश का सपना दिखाया: उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश के रूप में खूब प्रचारित प्रसारित किया गया. राज्य के लोगों को ऊर्जा के जरिए ही बड़े राजस्व के सपने भी दिखाए गए, लेकिन स्थिति यह है कि आज ऊर्जा निगम भारी घाटे में चल रहा है. न तो ऊर्जा निगम सरकार को पर्याप्त रॉयल्टी दे पा रहा है और न ही कर्मचारियों की मांग पूरी हो पा रही है. उधर, प्रदेश में आए दिन बिजली कटौती को लेकर भी दिक्कतें बनी रहती हैं. न तो राज्य में कोई बड़ी परियोजना ठीक से संचालित हो पाई और न ही छोटी छोटी परियोजनाओं के मसले पर सरकार कदम आगे बढ़ा पाई.
शिक्षा पर भी पहाड़ के लोग मैदानों पर निर्भर: उत्तराखंड में शिक्षा को लेकर भी राजनीतिक दलों के दावे कम नहीं रहे. सरकारी स्कूलों में बेहतर शिक्षा और रोजगार परक शिक्षा की बात कही गई लेकिन हकीकत में सरकारी विद्यालयों के बंद होने का सिलसिला जारी रहा. निजी स्कूलों में लोगों द्वारा बच्चे पढ़ाई जाने की मजबूरी भी दिखाई देती रही. अच्छी शिक्षा के लिए निजी स्कूलों ने लोगों की जेब काटी और सरकारी स्कूल प्रदेश के खजाने को केवल खाली करने तक ही सीमित दिखाई दिए हैं.
इस मामले में राजनीतिक दलों की तरफ से अपने अपने तर्क रखे जाते हैं. यहां भी राजनीति करने से राजनेता पीछे नहीं हटते. भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता विपिन कैंथोला कहते हैं कि पिछले करीब साढे़ 4 साल में सरकार ने बहुत अच्छा काम किया है. रोड कनेक्टिविटी से लेकर रेल मार्ग को बेहतर करने और हवाई मार्ग को स्थापित करने पर सरकार ने पूरा फोकस किया है. लेकिन लोकायुक्त शिक्षा स्वास्थ्य जैसी विषयों पर सरकार क्यों फेल हो गई इसका जवाब उनके पास नहीं था.
बीजेपी पिछले 21 सालों में राज्य के सपनों को साकार करने में खुद को नाकाम नहीं मान रही, तो कांग्रेस ने भी उसी दिशा पर अपना बयान दिया. कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल ने कहा कि कांग्रेस की सरकार के दौरान राज्य में मूलभूत सुविधाओं को जुटाने के लिए पूरे प्रयास किए गए लेकिन भाजपा सरकारों में कुछ अधूरापन दिखाई दिया. इसी के चलते प्रदेश में उन सपनों को पूरा नहीं किया जा सका, जो राज्य आंदोलनकारी और प्रदेश की आम जनता ने देखे थे.