देहरादून: कोविड के इस दौर में जहां इंसान, इंसान से दूर भाग रहा है, वहीं कुछ लोग अपनों की मौत और उनका अंतिम संस्कार करने से भी डर रहे हैं. ऐसे में देहरादून के कुछ लोग कोविड के जोखिम के बीच इंसानियत को जिंदा रखने का काम कर रहे हैं. जिन शवों का अंतिम संस्कार करने के लिए उनके अपने लोग आगे नहीं आ रहे हैं, उनका यह लोग स्वेच्छा से अंतिम संस्कार कर रहे हैं.
कोविड काल ने दिया बेहिसाब दर्द
कोविड महामारी में समाज के कई चेहरे देखने के मिले हैं. एक तरफ जहां इस दौर ने लोगों को दुख-दर्द और बेहिसाब मौतें दी हैं, वहीं दूसरी तरफ अपनों से अपनों को दूर करती लाचार इंसानियत भी हमें इसी दौर में देखने को मिल रही है.
कोरोना ने रिश्ते-नाते भी किए तार-तार
ये वही दौर है जब जन्म देने वाले माता-पिता की मृत्यु हो जाने के बाद उनके ही बच्चे हाथ लगाने से पीछे हट रहे हैं. डर भले ही अपनी जान का है, लेकिन तार-तार इंसानियत हो रही है. कई मामलों में तो परिवार में किसी की मौत हो जा रही है और उस परिवार में कोई और अंतिम संस्कार करने लायक है ही नहीं. कई बार परिवार के बाकी लोक भी कोविड पॉजिटिव हैं और वो भी अस्पतालों में अलग-थलग पड़े हैं.
इस स्थिति में मजबूर होती इंसानियत को जिंदा रखने के लिए देहरादून के कुछ लोग आगे आये हैं. कोविड से होने वाली ऐसी मौत जिसमें शव का कोई अंतिम संस्कार करने वाला नहीं है. या फिर परिवार में कोई मजबूरी है. या परिवार वाले शव को छूना नहीं चाहते हैं, तो यह लोग उस पुण्य आत्मा को चार कंधे देने के साथ-साथ पूरे धार्मिक कर्मकांड से उसका अंतिम संस्कार कर रहे हैं.
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अमित पारिख और उनके दोस्त कर रहे 'अनमोल मदद'
देहरादून में रहने वाले अमित पारिख और उनके ज्यादातर साथी सिख समुदाय से हैं. जहां भी कोविड से कोई मौत हो जाती है और शव को कोई छूने के लिए आगे नहीं बढ़ता है तो ये लोग वहां आकर सतनाम-सतनाम के राग के साथ शव को अंतिम संस्कार के लिए ले जाते हैं.
देहरादून के इन युवाओं की ये स्वयंसेवा गर्व का अहसास कराती है. लोगों को चार कंधे देने वाले इस दल में अमित पारिख के साथ-साथ उनकी टीम के सदस्य संतोष सिंह नागपाल, रविंद्र सिंह आनंद, गुरजिंदर सिंह आनंद, अमरजीत सिंह कुकरेजा, नीरज ढींगरा, हरदीप मौजूद हैं. ईटीवी भारत से बात करते हुए इस दल बताया कि कोविड ने इन्हें कैसे-कैसे दिन दिखाए हैं, जहां बेटा अपने पिता के शव के पास जाने तक के लिए राजी नहीं है.
कोविड से मृत के पास जाने से भी डरते हैं लोग
टीम के सदस्यों ने बताया कि उनके द्वारा कोविड के शुरुआती दौर में देखा गया कि लोग कोविड से इतना दहशत खाए हुए हैं कि वो कोविड से मर जाने के बाद शव के पास जाने तक के लिए तैयार नहीं हैं. इतना ही नहीं इस दल के लोगों का कहना है कि कई बार कई घंटे तक शव ऐसे ही पड़ा रहता है. कोई उसे हाथ लगाने तक के लिए राजी नहीं होता है. इन स्वयंसेवियों ने बताया कि वो व्यक्ति जिसने जीवन भर परिवार को बनाने में लगाया और उसके आखिरी समय में इस तरह की दुर्गति होते देख इन लोगों द्वारा सेवा का एक नया तरीका अपनाया गया. लोगों की इस तरह से सेवा शुरू की है कि अब तक देहरादून में ही इन लोगों द्वारा 80 शवों का दाह संस्कार किया जा चुका है. टीम के सदस्यों ने बताया कि लोगों में इतनी जागरूकता नहीं थी कि इंसान के मर जाने के बाद भले ही वह कोविड इंफेक्टेड रहता है, लेकिन सावधानी बरती जाए तो संक्रमण से बचा जा सकता है.
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बिना संगठन बनाए कर रहे बड़ा काम
देहरादून के इन गुमनाम स्वंसेवकों का ना तो कोई संगठन है. ना ही ये किसी संस्था से जुड़े हैं. इन लोगों से जब हमने पूछा तो पता चला कि यह लोग हम और आप जैसे ही बिल्कुल सामान्य मध्यम वर्ग के लोग हैं. इनमें से कोई दुकान चलाता है. कोई व्यवसाई है तो कोई नौकरी करता है. इनके परिवार वालों को भी इनकी बहुत चिंता होती है, लेकिन चार कंधों के इस मदद के काम से इन्हें देखने वाले हर किसी को प्रेरणा मिलती है. टीम के लोगों का कहना है कि शुरू में तो जब यह लोग अंतिम संस्कार से पहले पीपीई किट पहनते थे, तो लोग अपने घरों के दरवाजे बंद कर देते थे. अब लोग आगे आ रहे हैं और उनका जो मकसद था इंसानियत को जिंदा रखने को वो पूरा हो रहा है. इसके अलावा इन लोगों द्वारा राशन, दवाई और अन्य जरूरत का सामान भी जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने का लगातार काम किया जा रहा है.