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सरकारी फरमान के बाद पलायन को मजबूर हुए ग्रामीण, बोले- गांव की बहुत याद आती है

टिहरी बांध परियोजना के लिए प्राथमिक जांच का काम 1961 में शुरू कर दिया गया था. बांध निर्माण का कार्य शुरू होने के बाद बांध क्षेत्र में आने वाले 125 गांव के लोगों को मजबूरन अन्य स्थानों पर पलायन करना पड़ा. टिहरी के पंडियार गांव के लोगों का आरोप है कि टिहरी बांध निर्माण के लिए सरकार ने उन्हें नोटिस जारी किया था.

पलायन करने को मजबूर हुए थे ग्रामीण.
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Published : Jul 25, 2019, 4:18 PM IST

Updated : Jul 25, 2019, 8:00 PM IST

देहरादून: प्रदेश के दूरस्त इलाकों में मूलभूत सुविधाओं की कमी के कारण सूबे आज पलायन का दंश झेल रहा है. प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में आज कई गांव वीरान हो गए हैं. एक तरफ जहां कई लोग मूलभूत सुविधाओं की तलाश में पहाड़ों से पलायन कर मैदानी इलाकों का रुख कर रहे हैं. वहीं, टिहरी के पंडियार गांव के लोगों का आरोप है कि टिहरी बांध निर्माण के लिए सरकार ने उन्हें नोटिस जारी किया, जबकि उन्होंने इस बात का पुरजोर विरोध भी किया था.

पलायन करने को मजबूर हुए थे ग्रामीण.

बता दें कि टिहरी बांध परियोजना के लिए प्राथमिक जांच का काम 1961 में शुरू कर दिया गया था. इसके बाद इसकी रूपरेखा तय करने का कार्य साल 1972 में शुरू हुआ. साथ ही 600 मेगावाट का बिजली संयंत्र लगाया गया, जिसके बाद साल 1978 में बांध निर्माण का कार्य शुरू होने के बाद बांध क्षेत्र में आने वाले 125 गांव के लोगों को मजबूरन अन्य स्थानों पर पलायन करना पड़ा. इस दौरान जनपद टिहरी का पंडियार गांव पहला गांव था, जहां के लोगों को सबसे पहले अपना पैतृक गांव छोड़ मजबूरी में राजधानी या अन्य किसी स्थान पर पलायन करना पड़ा.

ईटीवी भारत की ओर से पलायन के खिलाफ चलाई जा रही खास मुहिम के तहत टीम ने पुरानी टिहरी के पंडियार गांव के मूल निवासियों का दर्द जाना. पंडियार गांव के रहने वाले सकलानी परिवार के सदस्यों ने अपना दर्द बखूबी बयां किया. उन्होंने बताया कि वो आज भी अपने गांव को याद करते हैं तो उनकी आंखें नम हो जाती हैं. उन्हें सबसे ज्यादा अफसोस तो इस बात का होता है कि उनके गांव के टिहरी बांध में समां जाने के बाद आज उनके पास कहने को अपना कोई गांव नहीं है. यही कारण है कि उनकी युवा पीढ़ी आज अपनी संस्कृति और अपनी बोली भाषा को भूलती जा रही है.

ये भी पढ़ें: कारगिल दिवस: शहादत के बाद घर पहुंची थी शहीद गिरीश की आखिरी चिट्ठी

पंडियार गांव को याद करते हुए मौके पर मौजूद कुछ बुजुर्ग महिलाओं ने बताया कि वो किसी भी कीमत पर अपने गांव को छोड़ना नहीं चाहती थीं. जब सरकार से उन्हें गांव खाली करने का नोटिस जारी किया गया तो उन्होंने इस बात का पुरजोर विरोध किया. इस दौरान कई बार उन्हें जेल तक जाना पड़ा, लेकिन सरकार के आगे किसी का जोर नहीं चल सका और गांव टिहरी बांध में हमेशा के लिए समा गया.

देहरादून: प्रदेश के दूरस्त इलाकों में मूलभूत सुविधाओं की कमी के कारण सूबे आज पलायन का दंश झेल रहा है. प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में आज कई गांव वीरान हो गए हैं. एक तरफ जहां कई लोग मूलभूत सुविधाओं की तलाश में पहाड़ों से पलायन कर मैदानी इलाकों का रुख कर रहे हैं. वहीं, टिहरी के पंडियार गांव के लोगों का आरोप है कि टिहरी बांध निर्माण के लिए सरकार ने उन्हें नोटिस जारी किया, जबकि उन्होंने इस बात का पुरजोर विरोध भी किया था.

पलायन करने को मजबूर हुए थे ग्रामीण.

बता दें कि टिहरी बांध परियोजना के लिए प्राथमिक जांच का काम 1961 में शुरू कर दिया गया था. इसके बाद इसकी रूपरेखा तय करने का कार्य साल 1972 में शुरू हुआ. साथ ही 600 मेगावाट का बिजली संयंत्र लगाया गया, जिसके बाद साल 1978 में बांध निर्माण का कार्य शुरू होने के बाद बांध क्षेत्र में आने वाले 125 गांव के लोगों को मजबूरन अन्य स्थानों पर पलायन करना पड़ा. इस दौरान जनपद टिहरी का पंडियार गांव पहला गांव था, जहां के लोगों को सबसे पहले अपना पैतृक गांव छोड़ मजबूरी में राजधानी या अन्य किसी स्थान पर पलायन करना पड़ा.

ईटीवी भारत की ओर से पलायन के खिलाफ चलाई जा रही खास मुहिम के तहत टीम ने पुरानी टिहरी के पंडियार गांव के मूल निवासियों का दर्द जाना. पंडियार गांव के रहने वाले सकलानी परिवार के सदस्यों ने अपना दर्द बखूबी बयां किया. उन्होंने बताया कि वो आज भी अपने गांव को याद करते हैं तो उनकी आंखें नम हो जाती हैं. उन्हें सबसे ज्यादा अफसोस तो इस बात का होता है कि उनके गांव के टिहरी बांध में समां जाने के बाद आज उनके पास कहने को अपना कोई गांव नहीं है. यही कारण है कि उनकी युवा पीढ़ी आज अपनी संस्कृति और अपनी बोली भाषा को भूलती जा रही है.

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पंडियार गांव को याद करते हुए मौके पर मौजूद कुछ बुजुर्ग महिलाओं ने बताया कि वो किसी भी कीमत पर अपने गांव को छोड़ना नहीं चाहती थीं. जब सरकार से उन्हें गांव खाली करने का नोटिस जारी किया गया तो उन्होंने इस बात का पुरजोर विरोध किया. इस दौरान कई बार उन्हें जेल तक जाना पड़ा, लेकिन सरकार के आगे किसी का जोर नहीं चल सका और गांव टिहरी बांध में हमेशा के लिए समा गया.

Intro:Special story on palayan

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Folder Name- palayan ki majboori


देहरादून- मूलभूत सुविधाओं के अभाव में आज पहाड़ी प्रदेश उत्तराखंड के कई गांव वीरान होते जा रहे हैं। एक तरफ जहां कई लोग मूलभूत सुविधाओं की तलाश में पहाड़ों से पलायन कर मैदानी इलाकों का रुख कर रहे हैं । वहीं प्रदेश के एक पहाड़ी जनपद की दास्तान यह भी है कि यहां के कई लोगो ने राज्य सरकार के दबाव में मजबूरन पलायन किया ।

यहां हम बात कर रहे हैं टिहरी बांध निर्माण की । बात दें कि टिहरी बांध परियोजना के लिए प्राथमिक जांच का काम 1961 में शुरू कर दिया गया था । इसके बाद इसकी रूपरेखा तय करने का कार्य साल 1972 में शुरू हुआ । इसके लिए 600 मेगा वाट का बिजली संयंत्र लगाया गया । जिसके बाद साल 1978 में बांध निर्माण का कार्य शुरू होने के बाद बांध क्षेत्र में आने वाले 125 गांव के लोगों को मजबूरन अपने गांव को छोड़ अन्य स्थानों पर पलायन करना पड़ा । इस दौरान जनपद टिहरी का पंडियार गांव वह पहला गाँव था जहां के लोगो को सबसे पहले अपना पैतृक गांव छोड़ मजबूरी में देहरादून या अन्य किसी स्थान पर पलायन करना पड़ा ।







Body:ईटीवी भारत की ओर से पलायन के खिलाफ चलाई जा रही खास मुहिम के तहत आज हमने पुरानी टिहरी के पंडियार गांव के मूल निवासियों से खास बातचीत की । बता दें कि यह लोग बीते कई सालों से मजबूरी में पलायन कर देहरादून में रह रहे हैं ।

ईटीवी भारत से खास बातचीत में टिहरी के पंडियार गांव के रहने वाले सकलानी परिवार के सदस्यों ने अपना दर्द बखूबी बयां किया । उन्होंने बताया कि वह आज भी अपने गांव को याद करते हैं तो उनकी आंखें नम हो जाती हैं । उन्हें सबसे ज्यादा अफसोस तो इस बात का होता है कि उनके गांव के टिहरी बांध में समा जाने के बाद आज उनके पास कहने को अपना कोई गांव नहीं है । यही कारण है कि उनकी युवा पीढ़ी आज अपनी संस्कृति और अपनी बोली भाषा को भूलती जा रही है ।

अपने पंडियार गांव को याद करते हुए मौके पर मौजूद कुछ बुजुर्ग महिलाओं ने बताया कि वह किसी भी कीमत पर अपने गांव को छोड़ना नही चाहती थी । इसलिए जब सरकार से उन्हें गांव खाली करने का नोटिस जारी किया गया तो उन्होंने इस बात का पुरजोर विरोध किया । इस दौरान कई बार उन्हें जेल तक जाना पड़ा । लेकिन आखिरकार सरकार के आगे किसी का जोर नहीं चल सका और उनका काम गांव टिहरी बांध में हमेशा- हमेशा के लिए समा गया ।

हालांकि तत्कालीन सरकार की तरफ से उन्हें 600 रुपए प्रति नाली के हिसाब से जमीन का मुआवजा भी दिया गया । लेकिन यह मुआवजा अपने गांव के प्रति उनके लगाव के आगे कुछ भी नहीं था । आज स्थिति कुछ यह है कि राज्य सरकार टिहरी विस्थापितों की कोई सुध नहीं ले रही है ।




Conclusion:आज भी कई बार वह अपने जनपद टिहरी के किसी गांव में दोबारा बसना तो जरूर चाहते हैं । लेकिन बिजली, पानी, स्कूल, और स्वास्थ्य की मूलभूत सुविधाओं के अभाव में आखिर वह किसी गांव में बसे तो बसे कैसे ? ऐसे में मजबूरन वह अपने बच्चों के उत्तम भविष्य के लिए कई सालों से राजधानी देहरादून में ही रहने को मजबूर हैं ।
Last Updated : Jul 25, 2019, 8:00 PM IST
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