देहरादून: प्रख्यात पत्रकार, व्यंग्यकार, रंगमंच के कलाकार और लेखक उर्मिल कुमार थपलियाल आज हमारे बीच शरीर से नहीं हैं, लेकिन उनकी कला जिंदा है. अभावों में बचपन बिताने वाले उर्मिल कुमार की कर्मस्थली उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ रही. लखनऊ और उसके आसपास गांवों में होने वाली नौटंकी ने उनके अंदर के दबे-छिपे कलाकार को आकार दिया.
उर्मिल कुमार थपलियाल के दादा भवानी दत्त थपलियाल अपने जमाने के जाने-माने नाट्यकार थे. 20वीं सदी की शुरुआत में भवानी दत्त ने प्रह्लाद और जय विजय दो नाटक लिखे थे. प्रह्लाद इतना प्रसिद्ध हुआ कि इसकी तुलना उस समय के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रसिद्ध नाटक अंधेर नगरी चौपट राजा से की गई.
भवानी दत्त ने प्रह्लाद को भारत और हिरण्यकश्यप को ब्रिटिश शासन का प्रतीक बताया. इस नाटक ने तब तहलका मचा दिया था. ये वही समय था जब 1911 में जयशंकर प्रसाद सुदूर वाराणसी में ध्रुव स्वामिनी लिख रहे थे. उधर गढ़वाल में भवानी दत्त थपलियाल प्रह्लाद लिख रहे थे. इतने दूर रहने के बाद भी दोनों की सोच मेल खा रही थी.
दुर्भाग्य से उर्मिल कुमार थपलियाल को अपने दादा से मिलने का मौका नहीं मिला. लेकिन उनकी सारी कलाकारी संस्कृति के रूप में उर्मिल कुमार के डीएनए में आ गई थी. उर्मिल जब 7-8 साल के थे तो गांव की रामलीला में सीता का अभिनय करते थे. इसी तरह रामलीला में अभिनय करते हुए उनके अंदर का कलाकार विकसित होता रहा.
अभावों और बिखरे जीवन की यात्रा का महत्वपूर्ण पड़ाव 1965 में लखनऊ बना. लखनऊ दूरदर्शन में उर्मिल कुमार थपलियाल नाटक लिखा करते थे. पहाड़ से आए इस युवा ने लखनऊ और उसके आसपास के गांवों में कला के स्रोत खोजने शुरू किए. सआदतगंज में उन्होंने जो पहली नौटंकी देखी उसने उनका मन मोह लिया.
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सआदतगंज की नौटंकी उर्मिल कुमार थपलियाल को इतनी भाई कि उन्होंने फिर नौटंकी देखने का कोई मौका नहीं छोड़ा. नौटंकी की खुली गायकी उन्हें खूब भाई. नौटंकी के माध्यम से ही उनका परिचय उस समय की बड़ी कलाकार गुलाब बाई से हुआ. हाथरस के गिरिराज जी से भी नौटंकी के माध्यम से ही मित्रता हुई. नौटंकी की उनकी शिक्षा फॉर्मल नहीं थी, लेकिन ये उनके दिल के अंदर तक उतर गई.
उर्मिल कुमार थपलियाल लखनऊ आकाशवाणी में लोकप्रिय कार्यक्रम हवामहल के लिए नाटक लिखते थे. वो आकाशवाणी पर भी नौटंकी को स्थान दिलाना चाहते थे. इसके लिए रास्ता भी निकाला गया. दो कार्यक्रमों के बीच जो दो-ढाई मिनट का समय बचता था. उसमें नौटंकी के छोटे-छोटे फिलर डालकर नौटंकी को आम आदमी तक पहुंचाया.
अपने काम के साथ-साथ उर्मिल कुमार थपलियाल नौटंकी में इतने गहरे पैठ गए कि उनके जीवन का ये एक महत्वपूर्ण हिस्सा हो गया. वो नौटंका का नया कंटेट लेकर आए. तब के लखनऊ के लोकप्रिय समाचार पत्र स्वतंत्र भारत में लगातार 27 साल तक वो नौटंकी लिखते रहे. उन्होंने इसे 'आज की नौटंकी' नाम दिया. ये व्यंग्य कॉलम बहुत लोकप्रिय हुआ था. इन दिनों उर्मिल कुमार थपलियाल उत्तराखंड की एक पत्रिका रीजनल रिपोर्टर में 'बकमबम जी बकमबम' नाम से कॉलम लिख रहे थे. ये कॉलम बहुत लोकप्रिय था.
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उर्मिल कुमार थपलियाल रंगमंच को जीवन दर्शन मानते थे. वो कहते थे रंगमंच और जीवन दोनों नश्वर हैं. वो कहा करते थे कि रंगमंच पूरे समाज का आईना है. समाज में जो घट रहा है वो रंगमच दिखाता है. उर्मिल कुमार थपलियाल कहा करते थे कि युवा जिस विधा में जाना चाहते हैं उसकी जानकारी जरूर होनी चाहिए. इसके साथ ही वो युवाओं को सलाह देते थे कि जिस विधा में आप जाना चाहते हैं क्या उसमें आपका भविष्य है. वो कहते थे कलाकार को अगर सफलता चाहिए तो उसे सिनेमा में जाना चाहिए. अगर संतुष्टि चाहिए तो रंगमंच पर आना चाहिए. उर्मिल जिंदगी को ट्यूबलाइट कहते थे. वो कहते थे कि जिंदगी भी स्थिरता लेने में समय लेती है.
बहुत कम लोग जानते होंगे कि उर्मिल कुमार थपलियाल का प्रमाण पत्रों में नाम सोहन लाल थपलियाल था. लेकिन उनका रचनाकर्म दुनिया के सामने उर्मिल कुमार थपलियाल के नाम से है. दुनिया उन्हें उनके मूल नाम से नहीं बल्कि रचना वाले नाम उर्मिल कुमार थपलियाल के नाम से जानती है. वो रहते तो लखनऊ में थे लेकिन उनके मन में उत्तराखंड को लेकर बड़ी कसक थी. वो मानते थे कि अपनी स्थापना के बाद जिस रफ्तार और जिस तरह से उत्तराखंड को आगे बढ़ना चाहिए था वो नहीं हो सका. इसके लिए वो नेताओं के साथ ही राज्य के लोगों को भी बराबर का दोषी मानते थे.