देहरादून: उत्तराखंड का एक मात्र क्षेत्रीय दल उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) लगातार दो विधानसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाया है. ऐसे में पिछले 10 सालों में यूकेडी रसातल में पहुंच गई है और प्रदेश से अपनी पकड़ खोती जा रही है. 42 सालों से राजनीति के अखाड़े में ताल ठोकती यूकेडी अपना अस्तित्व बचाए रखने में भी नाकाम साबित हुई है. यही वजह है कि साल 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों यूकेडी का एक भी विधायक (MLA) चुनकर विधानसभा तक नहीं पहुंचा पाया. लिहाजा, पार्टी नेताओं ने इस जनादेश को स्वीकार किया है.
इस विधानसभा चुनाव में भी उत्तराखंड क्रांति दल (उक्रांद) अपना वजूद तक नहीं बचा सकी है. कभी मजबूत क्षेत्रीय दल के रूप में पहचान बनाने वाले उक्रांद की मान्यता इस बार भी छिन गई है. इससे पहले कम मतदान प्रतिशत के चलते पार्टी की मान्यता 2012 में भी खत्म की जा चुकी है. वहीं, चुनाव दर चुनाव उक्रांद का प्रदर्शन गिरा है. ऐसा नहीं है कि राज्य के एकमात्र क्षेत्रीय दल ने कभी अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवाई.
साल 2002 के विधानसभा चुनाव में यूकेडी ने दमदार प्रदर्शन किया. इस चुनाव में पार्टी ने 70 सीटों में से 62 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और चार पर जीत दर्ज की. इस चुनाव में यूकेडी का कुल 5.49 मत प्रतिशत रहा और 1,57,021 वोट पार्टी को मिले. वहीं, 2007 के चुनाव में भी यूकेडी का प्रदर्शन संतोषजनक रहा और पिछले चुनाव की तरह इस चुनाव में भी यूकेडी को 5.49 प्रतिशत वोट मिले. इस चुनाव में पार्टी ने तीन सीटों पर पताका फहरायी.
पढ़ें- धामी फिर बन सकते हैं उत्तराखंड के CM, ये रहे दो रास्ते और बाकी दावेदार
कहा जा सकता है कि यूकेडी का पतन 2012 के विधानसभा चुनाव से शुरू हुआ जब पार्टी के दो फाड़ हो गए. नेताओं की आपसी रार पार्टी पर भारी पड़ने लगी और अलग-अलग क्षत्रप आपस में टकराने लगे. जिसका असर इस विधानसभा चुनाव में देखने को मिला. हालांकि, इस चुनाव में भी पार्टी ने 44 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए लेकिन इनमें से केवल एक हो ही जीत हासिल हो पाई. इस विधानसभा चुनाव में पार्टी को जबरदस्त झटका लगा और 1.93 प्रतिशट वोट ही यूकेडी बटोर पाई. लिहाजा, 2017 के चुनाव में पार्टी के वजूद पर ही खतरा मंडराने लगा.
वहीं, इस चुनाव में उत्तराखंड के एकमात्र क्षेत्रीय दल को उबारना एक बड़ी चुनौती था. ऐसे में केंद्रीय अध्यक्ष पुष्पेश त्रिपाठी ने त्रिवेंद्र पंवार, दिवाकर भट्ट समेत सबको साधने की कोशिश की. ऐसे में उन्हें उम्मीद थी कि ऐसा होने से उक्रांद को प्रदेश में मजबूती मिलेगी. लिहाजा, यह चुनाव संयुक्त रूप से एक पंजीकृत पार्टी के रूप में लड़ा गया और पार्टी ने कुल 54 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए लेकिन एक भी प्रत्याशी जीत हासिल नहीं कर पाया. पार्टी को कुल 0.07 प्रतिशत वोट ही मिले. ऐसे में इस बार भी पार्टी की मान्यता छीन ली गई.
पढ़ें- Election 2022: उत्तराखंड में BJP की जीत के ये रहे बड़े कारण, विस्तार से जानिए
ऐसे में इस चुनाव में भी एक मात्र क्षेत्रीय दल यूकेडी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा. हालांकि, पार्टी ने 2022 के चुनाव के लिए काफी जोर लगाया था. नए चेहरों को पार्टी में शामिल किया गया. वहीं, यह पहला मौका भी था कि उत्तराखंड क्रांति दल के केंद्रीय अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी इस बार विधानसभा चुनाव नहीं लड़े. इस चुनाव में पार्टी ने 51 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे लेकिन इस बार यूकेडी का कोई प्रत्याशी जीत नहीं पाया.
वहीं, इस जनादेश को स्वीकारते हुए यूकेडी के केंद्रीय महामंत्री जय प्रकाश उपाध्याय का कहना है कि हम स्वीकार करते हैं कि हमारे द्वारा प्रत्याशियों को निहत्था मैदान में भेज दिया गया था. इस कारण वह राष्ट्रीय पार्टियों की अनैतिक लड़ाई में धराशायी हो गए. कई प्रत्याशियों ने ईवीएम पर भी प्रश्नचिन्ह लगाए हैं जो निश्चित ही संदेह पैदा कर रहे हैं. जयप्रकाश उपाध्याय का कहना है कि हम यह भी जानते हैं कि जनता ने उत्तराखंड क्रांति दल के नेतृत्व को स्वीकार नहीं किया, और हम नेतृत्व करने में विफल रहे हैं. ऐसे में हम लकीर के फकीर बन कर रह गए हैं. जिस रूप में यूकेडी प्रत्याशी चुनाव लड़े हैं उससे यह तय हो गया है कि इस प्रकार से राष्ट्रीय पार्टियों से मुकाबला नहीं किया जा सकता है.
इस वजह से नहीं बढ़ पाया जनाधार: उत्तराखंड में यूकेडी के जनाधार के ना बढ़ने की वजह यूकेडी के खुद के नेताओं की महत्वाकांक्षा रही. 2007 में यूकेडी ने भाजपा को समर्थन दिया और यूकेडी कोटे से दिवाकर भट्ट कैबिनेट मंत्री बने. 2012 के चुनावों में भी यूकेडी के एकमात्र विधायक प्रीतम सिंह पंवार ने कांग्रेस को समर्थन दिया और यूकेडी के कोटे से सरकार में मंत्री रहे. खास बात ये रही कि जो भी विधायक सरकारों में मंत्री बने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया. दिवाकर भट्ट को 2012 में पार्टी से निकाला गया और उसके बाद प्रीतम सिंह पंवार को भी पार्टी से निष्कासित कर दिया गया. यही वजह रही कि नेताओं की महत्वाकांक्षा और आपसी गुटबाजी की वजह से यूकेडी का जनाधार गिरता पर चला गया और इस बात को खुद नेता भी मानते हैं.