देहरादून: उत्तराखंड विधासनभा चुनाव 2022 के परिणाम 10 मार्च को आएंगे. नई सरकार किसकी होगी इसका फैसला तो 10 मार्च को होगा, लेकिन उससे पहले आपका उस उत्तराखंड से परिचय कराते हैं, जिसको एक पहाड़ी राज्य होने के नाते यूपी से अलग तो किया गया था. लेकिन आज उनकी राजनीति के केंद्र बिंदु में मैदानी क्षेत्र हावी हो गया. जानिए उत्तराखंड की राजनीति में कैसे पहाड़ का वर्चस्व खत्म होता गया और मैदान का दबदबा बढ़ता गया. यही नहीं, एक छोटा राज्य होने के बाद भी उत्तराखंड पिछले 22 सालों से राजनीतिक अस्थिरता का सामना कर रहा है.
9 नवंबर 2000 को यूपी से अलग करके उत्तराखंड (तत्कालीन नाम उत्तरांचल) का 27वें राज्य में रूप में गठन किया गया था. राज्य गठन के वक्त उत्तराखंड के अंतर्गत आने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा और विधान परिषद के कुल 30 विधायकों को लेकर अंतरिम विधानसभा का गठन किया गया. इसके बाद बीजेपी हाईकमान ने बुजुर्ग नित्यानंद स्वामी को पहली अंतरिम सरकार की कमान सौंपने का फरमान सुनाया तो विधायक दल के अधिकांश सदस्य इस फैसले को पचा नहीं पाए.
नतीजतन, मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले ही स्वामी नित्यानंद का विरोध सार्वजनिक हो गया. हालांकि हाईकमान के इस फरमान के सामने सबको झुकना पड़ा और पार्टी ने स्वामी को मुख्यमंत्री बना दिया. लेकिन स्वामी के विरोध की चिंगारी ज्यादा दिनों तक शांत नहीं रह पाई. हाईकमान को आखिर में अपना फैसला बदलना पड़ा. जिसका परिणाम ये हुआ है कि स्वामी को कुर्सी छोड़नी पड़ी.
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भगत सिंह कोश्यारी की ताजपोशी: अंतरिम सरकार में ही भगत सिंह कोश्यारी प्रदेश के दूसरे सीएम बने. हालांकि, वो भी ज्यादा दिनों तक सीएम पद पर नहीं रह सके. क्योंकि उनके सत्ता संभालने के चंद महीनों बाद ही 2002 की शुरुआत में उत्तराखंड का पहला विधानसभा चुनाव हुआ. इस चुनाव में पार्टी को अंतर्कलह का खामियाजा भुगतना पड़ा और राज्य निर्माण का श्रेय लेने के बाद भी बीजेपी हार गई. जनता ने बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर कांग्रेस को चुना.
प्रदेश की पहली निर्वाचित सरकार: उत्तर प्रदेश से अलग होकर बने उत्तराखंड के 2002 चुनावी नतीजे कांग्रेस के लिए सियासी तौर पर संजीवनी से कम नहीं थे. यूपी में रहते हुए कांग्रेस की वापसी की संभावना नहीं दिख रही थी. लेकिन 70 विधानसभा सीटों में से 36 पर जीत हासिल कर उत्तराखंड का पहला चुनाव कांग्रेस ने जीता. राज्य बनने के बाद दो साल तक सरकार संभालने वाली बीजेपी को मात्र 19 सीटों से संतुष्ट रहना पड़ा था.
कांग्रेस ने ये चुनाव तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष हरीश रावत के नेतृत्व में लड़ा था. जीत का पूरा श्रेय भी हरीश रावत को मिला. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री का ताज उनके सिर सजेगा. लेकिन यहां उनकी किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया और कांग्रेस हाईकमान ने तीन बार उत्तर प्रदेश की सत्ता संभालने वाले नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी.
हालांकि, तिवारी के सीएम बनने के बाद सवाल उठे कि कांग्रेस हाईकमान ने उनको क्यों चुना? यहां सतपाल महाराज का जिक्र आना लाजिमी है. ऐसा इसलिए क्योंकि 2002 में अगर हरीश रावत ने सीएम की कुर्सी गंवा दी थी, तो इसका एक बड़ा कारण सतपाल महाराज ही रहे थे.
दरअसल, मुख्यमंत्री की रेस में सतपाल महाराज भी थे. चुनाव के दौरान भी उन्होंने कई मौकों पर अपने तेवर दिखाए थे. वे किसी भी हालत में अपने समर्थकों को टिकट दिलवाना चाहते थे. पार्टी को इस प्रेशर के आगे झुकना पड़ा और तब गुणा-गणित के बाद महाराज के 11 पसंदीदा उम्मीदवारों को तुरंत टिकट दिया गया. इस लिस्ट में उनकी पत्नी अमृता रावत का नाम भी शामिल था. उस समय महाराज ने कांग्रेस हाईकमान को ये संदेश दिया था कि अगर वो मुख्यमंत्री नहीं बन सकते तो फिर हरीश रावत भी नहीं बनेंगे. ये देखते हुए कांग्रेस को उत्तराखंड के लिए एक ऐसा मुख्यमंत्री चेहरा चाहिए था. जो सभी को स्वीकार भी हो जाता और जिसके पास प्रशासनिक अनुभव भी होता और एनडी तिवारी हर मामले में फिट थे.
तिवारी के पांच साल के कार्यकाल में ऐसे कई मौके पैदा किए गये जब उनको बगावत का सामना करना पड़ा. लेकिन अपने अनुभव के बूते वो हर बाधा पार कर गए और उत्तराखंड के इतिहास के इकलौते ऐसे मुख्यमंत्री रहे जिसने अपने पांच साल सत्ता में पूरे किए. हालांकि, उन्होंने 2007 का चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया था. नारायण दत्त तिवारी को उत्तराखंड का विकास पुरुष भी कहा जाता है. तिवारी देश के इकलौते ऐसे नेता थे, जो दो-दो प्रदेशों के सीएम रहे.
2007 में बीजेपी जीती लेकिन अंतर्कलह कायम रहा: उधर, 2007 में जनता ने कांग्रेस के बजाय बीजेपी पर विश्वास जताया. बीजेपी ने सीनियर नेता भुवन चंद्र खंडूड़ी को सीएम बनाया गया, लेकिन बीजेपी का एक गुट इसे पचा नहीं पाया और पार्टी में अंतर्कलह शुरू हो गई. इसका परिणाम ये हुआ है कि 2009 में लोकसभा चुनाव में बीजेपी उत्तराखंड की पांचों सीटें हार गई. खंडूड़ी को इस हार का जिम्मेदार ठहराते हुए केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा दिया था. काफी खींचतान के बाद राज्य की बागडोर रमेश पोखरियाल निशंक को सौंप दी गई थी.
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निशंक की राह रही मुश्किल: निशंक भले ही मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन उनकी राह में भी कांटे बिछे हुए थे. उन्हें भी 2011 में लगभग सवा दो साल के कार्यकाल के बाद मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा और सीएम की कुर्सी वापस खंडूड़ी के पास चली गई. निशंक पर सीएम रहते हुए हरिद्वार कुंभ में बड़े भ्रष्टाचार का आरोप लगा था.
2012 में बीजेपी ने अंतर्कलह का नुकसान भुगता: 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को अंतर्कलह का नुकसान भुगतान पड़ा. हालांकि, इस बार जनता ने किसी भी दल को बहुमत नहीं दिया. कांग्रेस को 70 में से 32 और बीजेपी को 31 सीटें मिली. खंडूड़ी सीएम होते भी कोटद्वार से चुनाव हार गए. हालांकि आखिर में कांग्रेस गठजोड़ कर सरकार बनाने में कामयाब हो गई थी. कांग्रेस ने टिहरी से सांसद विजय बहुगुणा को सीएम बनाया जबकि हरीश रावत तब भी मुख्यमंत्री पद की रेस में सबसे आगे थे.
बहुगुणा का विरोध: कांग्रेस में हरीश रावत के गुट ने विजय बहुगुणा को सीएम बनाने का काफी विरोध किया. इसका परिणाम था कि बहुगुणा भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और उन्हें महज पौने दो साल में ही मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया. बहुगुणा पर सीएम रहते हुए 2013 में आपदा के दौरान भ्रष्टाचार का आरोप लगा था. जिसके बाद कांग्रेस ने हरीश रावत को प्रदेश की कमान सौंपी और 2017 का चुनाव भी उनके नेतृत्व में लड़ा. इस चुनाव में हरीश रावत के साथ-साथ कांग्रेस भी बुरी तरह हार गई थी. हरीश रावत खुद दो सीटों से चुनाव हारे थे, जिसमें से एक हरिद्वार ग्रामीण और दूसरी किच्छा सीट थी. हरिद्वार ग्रामीण पर इस बार हरीश रावत की बेटी अनुपमा चुनाव लड़ी हैं.
2017 में त्रिवेंद्र को मिली कमान: 2017 के चुनाव में मोदी लहर के आगे कांग्रेस टिक नहीं पाई और मात्र 11 सीटों पर सिमटकर रह गई. बीजेपी ने 70 में से 57 सीटें जीती थीं. बीजेपी ने त्रिवेंद्र सिंह रावत को सीएम बनाया, लेकिन वो भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और चार साल पूरा होने से पहले सीएम के पद से हटा दिए गए. इसके बाद बीजेपी ने तीरथ सिंह रावत को सीएम बनाया, लेकिन वो भी चंद महीनों के सीएम ही रहे. आखिर में चुनाव से पांच महीने पहले बीजेपी ने पुष्कर सिंह धामी को सीएम बनाया. बीजेपी इस बार का चुनाव भी सीएम धामी के नेतृत्व में लड़ी है.
2022 में जनता ने किसको उत्तराखंड के भविष्य की जिम्मेदारी दी है. इसका फैसला 10 मार्च के चुनाव परिणाम करेंगे, लेकिन एक बात तो साफ है कि 22 साल के उत्तराखंड ने अभीतक अस्थिर राजनीति ही देखी है, जो यहां के विकास में बड़ी बाधा बनी है.