देहरादून: हर साल प्रदेश के पहाड़ी जनपदों के जंगलों में लगने वाली आग का एक बड़ा कारण पिरूल यानी चीड़ की पत्तियां होती हैं. जिससे वन संपदा को हर साल भारी नुकसान पहुंचता है. ऐसे में राज्य सरकार वनाग्नि का कारण बनने वाले पिरूल को लेकर एक बार फिर नई पिरूल नीति लेकर आई है. इस नीति के तहत पिरूल को एक जगह एकत्रित कर प्लांट लगाकर विद्युत उत्पादन किया जाएगा. इससे प्रदेश के दुरुस्त पहाड़ी जनपदों में रहने वाले लोगों को आय का नया साधन मिलेगा. साथ ही ऊर्जा विभाग के पास विद्युत उत्पादन का एक नया स्रोत भी बढ़ जाएगा.
बता दें कि उत्तराखंड सरकार की इस नई पिरूल और बायोमास नीति के लिए उत्तराखंड रिन्यूएबल एनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी यानि उरेडा ने गुरुवार से बिडिंग कॉल की प्रक्रिया शुरू कर दी है. इस सम्बंध में जानकारी देते हुए उरेडा के उप परियोजना अधिकारी एलडी शर्मा ने बताया कि आने वाले 1 से 2 महीने के अंदर इस नीति के तहत बिडिंग की प्रक्रिया पूरी कर ली जाएगी.
वहीं बिडिंग में जिस किसी व्यक्ति का नाम आएगा वह व्यक्ति अपने स्तर पर पिरूल से बिजली उत्पादन का कार्य शुरू करेगा. जो बिजली पैदा होगी उसे यूपीसीएल उत्तराखंड विद्युत नियामक आयोग द्वारा निर्धारित दामों में खरीदा जाएगा.
बता दें कि प्रदेश के कई ऐसे पहाड़ी जनपद है, जहां पिरूल की अच्छी खासी मात्रा उपलब्ध है. इसमें विशेषकर कुमाऊं मंडल के चंपावत, अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिले शामिल हैं. इसके अलावा गढ़वाल मंडल की बात करें तो पौड़ी और टिहरी जनपद में पिरूल काफी अच्छी मात्रा में उपलब्ध रहता है. कुल मिलाकर देखें तो प्रदेश के 2 हजार मीटर से कम ऊंचाई वाले पहाड़ी जनपदों के कई हिस्सों में पिरूल अच्छी खासी मात्रा में उपलब्ध है.
बहरहाल, अब ये देखना दिलचस्प होगा कि पिरूल से बिजली बनाने में राज्य सरकार की ये नई नीति कितनी सफल हो पाती है. इससे पहले भी राज्य सरकार साल 2011 में पिरूल से कोयला बनाने की नीति लेकर आई थी. लेकिन ये योजना परवान चढ़ने से पहले ही धराशाही हो गई थी. इसके अलावा राज्य सरकार एक बार फिर पिरूल से निजात पाने के लिए पिरूल से बायोमेट्रिक ऑयल बनाने की योजना भी लेकर आई थी. लेकिन यह योजना भी शुरू होने से पहले ही ठंडे बस्ते में चली गई थी.