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महेंद्र प्रताप@मसूरी कनेक्शन: वाजपेयी को शिकस्त देने वाले राजा जिनके नाम पर यूनिवर्सिटी बनेगी

राजा महेंद्र प्रताप सिंह की मसूरी से कई यादें जुड़ी हुई हैं. मसूरी के पिक्चर पैलेस के पास उनकी कोठी हुआ करती थी. यहां उनकी बेटी भक्ति देवी रहती थीं. उनसे मिलने राजा महेंद्र प्रताप सिंह मसूरी आया करते थे.

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राजा महेंद्र प्रताप सिंह
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Published : Sep 18, 2021, 5:13 PM IST

Updated : Sep 18, 2021, 6:12 PM IST

मसूरी: बीते मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर यूनिवर्सिटी का शिलान्यास किया. जिसके बाद से ही राजा महेंद्र प्रताप सिंह को जानने के लिए सोशल मीडिया के साथ ही तमाम सर्च इंजन पर उन्हें लेकर जानकारियां जुटाई जा रही हैं. इसके साथ ही लोग उनसे जुड़ी यादों को भी साझा कर रहे हैं. राजा महेंद्र प्रताप सिंह का मसूरी से भी खास नाता था. आजादी के बाद राजा महेन्द्र प्रताप सिंह अक्सर मसूरी आया करते थे. मसूरी के पिक्चर पैलेसे के पास उनकी कोठी हुआ करती थी. यहां उनकी बेटी भक्ति देवी रहती थीं. आजकल यहां एक होटल बन गया है.

मसूरी के इतिहासकार गोपाल भारद्वाज बताते हैं आजादी के बाद राजा महेंद्र प्रताप सिंह लगातार मसूरी आते रहे. उनकी बेटी यहीं भक्ति भवन में निवास करती थीं. राजा महेंद्र प्रताप, गोपाल भारद्वाज के ज्योतिष पिता से अक्सर मिलने आया करते थे. वहीं, उन्होंने अपने दोनों बच्चों की जन्मपत्री भी बनवाई थी. गोपाल भारद्वाज के पास आज भी उनकी बेटी भक्ति देवी की जन्मपत्री मौजूद है.

मसूरी से जुड़ी राजा महेंद्र प्रताप की यादें.

पढ़ें- रामनगर में सज गया तितलियों का संसार, 15 दिनों तक चलने वाले 'तितली त्यार' का आगाज

उन्होंने कहा कि राजा महेंद्र प्रताप का पोता आज भी देहरादून मैक्स हॉस्पिटल के पास रहता है. उन्होंने कहा उनके नाम पर यूनिवर्सिटी का शिलान्यास होने पर अब पूरा देश खुश है.

गोपाल भारद्वाज ने बताया कि राजा महेंद्र प्रताप सिंह स्वदेशी आंदोलन में शामिल हुए थे. जिसके बाद उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं और स्थानीय कारीगरों के साथ छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने का निर्णय लिया. वह सामाजिक बुराइयों, खासकर छुआछूत के बहुत खिलाफ थे. इस बुराई को खत्म करने के लिए उन्होंने 1911 में अल्मोड़ा के एक टम्टा परिवार के यहां भोजन किया, जो कि उस दौर में एक बड़ा संदेश था.

पढ़ें- रंग-बिरंगी तितलियों का संसार देखना चाहते हैं तो चले आइए यहां

यही नहीं 1912 में उन्होंने आगरा के एक मेहतर परिवार के साथ भी भोजन किया था. उन्होंने अपने राज्य में विदेशी निर्मित कपड़ों को जलाने के लिए आंदोलन शुरू किया.

पढ़ें- उत्तराखंड में आज से शुरू होगी तितलियों की गणना, देखिए कॉर्बेट का अद्भुत संसार

इतिहासकार गोपाल भारद्वाज बताते हैं कि राजा महेंद्र प्रताप सिंह (1 दिसंबर 1886-29 अप्रैल 1979) एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, लेखक, क्रांतिकारी, भारत की अंतरिम सरकार में राष्ट्रपति थे. जिन्होंने 1915 में काबुल से प्रथम विश्व युद्ध के दौरान निर्वासन में भारत सरकार के रूप में कार्य किया. उन्होंने 1940 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान में भारत के कार्यकारी बोर्ड का भी गठन किया. उन्होंने एमएओ कॉलेज के अपने साथी छात्रों के साथ वर्ष 1911 में बाल्कन युद्ध में भी भाग लिया. उनकी सेवाओं के सम्मान में, भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया. उन्हें आर्यन पेशवा के नाम से भी जाना जाता है.

पढ़ें- परिवर्तन यात्रा में लोगों की पॉकेट साफ कर रहे थे 'हाथ', लोगों ने जेबकतरे को जमकर धुना

1895 में राजा महेंद्र प्रताप सिंह को अलीगढ़ के सरकारी हाई स्कूल में भर्ती कराया गया था. लेकिन जल्द ही उन्होंने मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेजिएट स्कूल में प्रवेश लिया, जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बन गया. भारत को यूरोपीय देशों के बराबर लाने के लिए प्रताप ने 24 मई 1909 को वृंदावन में अपने महल में स्वतंत्र स्वदेशी तकनीकी संस्थान प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की. उन्हें 1932 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया. 1913 में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में गांधी के अभियान में भाग लिया.

उन्होंने अफगानिस्तान और भारत की स्थिति के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए दुनिया भर में यात्रा की. 1925 में वो तिब्बत के एक मिशन पर गए और दलाई लामा से मिले. वह मुख्य रूप से अफगानिस्तान की ओर से एक अनौपचारिक आर्थिक मिशन पर थे, लेकिन वे भारत में ब्रिटिश क्रूरताओं को भी उजागर करना चाहते थे.

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स्वदेशी आंदोलन में शामिल, स्वदेशी वस्तुओं और स्थानीय कारीगरों के साथ छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने का निर्णय लिया. वह सामाजिक बुराइयों, खासकर छुआछूत के बहुत खिलाफ थे. इस बुराई को खत्म करने के लिए उन्होंने 1911 में अल्मोड़ा के एक टम्टा परिवार और 1912 में आगरा के एक मेहतर परिवार के साथ भोजन किया था. उन्होंने अपने राज्य में विदेशी निर्मित कपड़ों को जलाने के लिए आंदोलन शुरू किया. 20 दिसंबर 1914 को 28 वर्ष की आयु में प्रताप ने बाहरी समर्थन प्राप्त करके भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के चंगुल से मुक्त करने की इच्छा के साथ तीसरी बार भारत छोड़ दिया. 1 दिसंबर 1915 को प्रथम विश्व युद्ध (उनके 28 वें जन्मदिन) के दौरान, प्रताप ने अफगानिस्तान के काबुल में भारत की पहली अंतरिम सरकार की स्थापना की. एक निर्वासित सरकार का उन्होंने खुद को राष्ट्रपति, मौलवी बरकतुल्लाह को प्रधानमंत्री और मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को गृहमंत्री घोषित किया.

पढ़ें- आज से शुरू होगी चारधाम यात्रा, एसओपी जारी, इन राज्यों के लिए होगी सख्ती

ब्रिटिश विरोधी ताकतों ने उनके आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन अंग्रेजों के प्रति स्पष्ट वफादारी के कारण, अमीर भारत में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के अभियान में देरी करते रहे. उन्होंने 1940 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान में भारत के कार्यकारी बोर्ड का गठन किया. अंत में ब्रिटिश सरकार मान गई और राजा महेंद्र प्रताप को सम्मान के साथ टोक्यो से भारत आने की अनुमति दी गई. वह पेरिस के जहाज पर 32 साल बाद भारत लौटे. 9 अगस्त 1946 को मद्रास में उतरे. भारत पहुंचने पर वे तुरंत महात्मा गांधी से मिलने के लिए वर्धा पहुंचे.

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आजादी के बाद भी उन्होंने आम आदमी को सत्ता हस्तांतरण के लिए अपना संघर्ष जारी रखा. उनकी दृष्टि थी कि पंचायत राज ही एकमात्र ऐसा उपकरण है जो लोगों के हाथों में वास्तविक शक्ति डाल सकता है. वह 1957-1962 में दूसरी लोकसभा के सदस्य थे. वह 1957 के लोकसभा चुनाव में मथुरा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से भारतीय जनसंघ (जो बाद में भाजपा में विकसित हुआ) उम्मीदवार और भारत के भावी प्रधानमंत्री, अटल बिहारी वाजपेयी को हराकर एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुने गए.

मसूरी: बीते मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर यूनिवर्सिटी का शिलान्यास किया. जिसके बाद से ही राजा महेंद्र प्रताप सिंह को जानने के लिए सोशल मीडिया के साथ ही तमाम सर्च इंजन पर उन्हें लेकर जानकारियां जुटाई जा रही हैं. इसके साथ ही लोग उनसे जुड़ी यादों को भी साझा कर रहे हैं. राजा महेंद्र प्रताप सिंह का मसूरी से भी खास नाता था. आजादी के बाद राजा महेन्द्र प्रताप सिंह अक्सर मसूरी आया करते थे. मसूरी के पिक्चर पैलेसे के पास उनकी कोठी हुआ करती थी. यहां उनकी बेटी भक्ति देवी रहती थीं. आजकल यहां एक होटल बन गया है.

मसूरी के इतिहासकार गोपाल भारद्वाज बताते हैं आजादी के बाद राजा महेंद्र प्रताप सिंह लगातार मसूरी आते रहे. उनकी बेटी यहीं भक्ति भवन में निवास करती थीं. राजा महेंद्र प्रताप, गोपाल भारद्वाज के ज्योतिष पिता से अक्सर मिलने आया करते थे. वहीं, उन्होंने अपने दोनों बच्चों की जन्मपत्री भी बनवाई थी. गोपाल भारद्वाज के पास आज भी उनकी बेटी भक्ति देवी की जन्मपत्री मौजूद है.

मसूरी से जुड़ी राजा महेंद्र प्रताप की यादें.

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उन्होंने कहा कि राजा महेंद्र प्रताप का पोता आज भी देहरादून मैक्स हॉस्पिटल के पास रहता है. उन्होंने कहा उनके नाम पर यूनिवर्सिटी का शिलान्यास होने पर अब पूरा देश खुश है.

गोपाल भारद्वाज ने बताया कि राजा महेंद्र प्रताप सिंह स्वदेशी आंदोलन में शामिल हुए थे. जिसके बाद उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं और स्थानीय कारीगरों के साथ छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने का निर्णय लिया. वह सामाजिक बुराइयों, खासकर छुआछूत के बहुत खिलाफ थे. इस बुराई को खत्म करने के लिए उन्होंने 1911 में अल्मोड़ा के एक टम्टा परिवार के यहां भोजन किया, जो कि उस दौर में एक बड़ा संदेश था.

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यही नहीं 1912 में उन्होंने आगरा के एक मेहतर परिवार के साथ भी भोजन किया था. उन्होंने अपने राज्य में विदेशी निर्मित कपड़ों को जलाने के लिए आंदोलन शुरू किया.

पढ़ें- उत्तराखंड में आज से शुरू होगी तितलियों की गणना, देखिए कॉर्बेट का अद्भुत संसार

इतिहासकार गोपाल भारद्वाज बताते हैं कि राजा महेंद्र प्रताप सिंह (1 दिसंबर 1886-29 अप्रैल 1979) एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार, लेखक, क्रांतिकारी, भारत की अंतरिम सरकार में राष्ट्रपति थे. जिन्होंने 1915 में काबुल से प्रथम विश्व युद्ध के दौरान निर्वासन में भारत सरकार के रूप में कार्य किया. उन्होंने 1940 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान में भारत के कार्यकारी बोर्ड का भी गठन किया. उन्होंने एमएओ कॉलेज के अपने साथी छात्रों के साथ वर्ष 1911 में बाल्कन युद्ध में भी भाग लिया. उनकी सेवाओं के सम्मान में, भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया. उन्हें आर्यन पेशवा के नाम से भी जाना जाता है.

पढ़ें- परिवर्तन यात्रा में लोगों की पॉकेट साफ कर रहे थे 'हाथ', लोगों ने जेबकतरे को जमकर धुना

1895 में राजा महेंद्र प्रताप सिंह को अलीगढ़ के सरकारी हाई स्कूल में भर्ती कराया गया था. लेकिन जल्द ही उन्होंने मुहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेजिएट स्कूल में प्रवेश लिया, जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बन गया. भारत को यूरोपीय देशों के बराबर लाने के लिए प्रताप ने 24 मई 1909 को वृंदावन में अपने महल में स्वतंत्र स्वदेशी तकनीकी संस्थान प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की. उन्हें 1932 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया. 1913 में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में गांधी के अभियान में भाग लिया.

उन्होंने अफगानिस्तान और भारत की स्थिति के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए दुनिया भर में यात्रा की. 1925 में वो तिब्बत के एक मिशन पर गए और दलाई लामा से मिले. वह मुख्य रूप से अफगानिस्तान की ओर से एक अनौपचारिक आर्थिक मिशन पर थे, लेकिन वे भारत में ब्रिटिश क्रूरताओं को भी उजागर करना चाहते थे.

पढ़ें-9/11 को जब अमेरिका हुआ था छलनी, कमल शर्मा ने कैमरे में कैद की थी आतंकी दरिंदगी


स्वदेशी आंदोलन में शामिल, स्वदेशी वस्तुओं और स्थानीय कारीगरों के साथ छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने का निर्णय लिया. वह सामाजिक बुराइयों, खासकर छुआछूत के बहुत खिलाफ थे. इस बुराई को खत्म करने के लिए उन्होंने 1911 में अल्मोड़ा के एक टम्टा परिवार और 1912 में आगरा के एक मेहतर परिवार के साथ भोजन किया था. उन्होंने अपने राज्य में विदेशी निर्मित कपड़ों को जलाने के लिए आंदोलन शुरू किया. 20 दिसंबर 1914 को 28 वर्ष की आयु में प्रताप ने बाहरी समर्थन प्राप्त करके भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के चंगुल से मुक्त करने की इच्छा के साथ तीसरी बार भारत छोड़ दिया. 1 दिसंबर 1915 को प्रथम विश्व युद्ध (उनके 28 वें जन्मदिन) के दौरान, प्रताप ने अफगानिस्तान के काबुल में भारत की पहली अंतरिम सरकार की स्थापना की. एक निर्वासित सरकार का उन्होंने खुद को राष्ट्रपति, मौलवी बरकतुल्लाह को प्रधानमंत्री और मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को गृहमंत्री घोषित किया.

पढ़ें- आज से शुरू होगी चारधाम यात्रा, एसओपी जारी, इन राज्यों के लिए होगी सख्ती

ब्रिटिश विरोधी ताकतों ने उनके आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन अंग्रेजों के प्रति स्पष्ट वफादारी के कारण, अमीर भारत में ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के अभियान में देरी करते रहे. उन्होंने 1940 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान में भारत के कार्यकारी बोर्ड का गठन किया. अंत में ब्रिटिश सरकार मान गई और राजा महेंद्र प्रताप को सम्मान के साथ टोक्यो से भारत आने की अनुमति दी गई. वह पेरिस के जहाज पर 32 साल बाद भारत लौटे. 9 अगस्त 1946 को मद्रास में उतरे. भारत पहुंचने पर वे तुरंत महात्मा गांधी से मिलने के लिए वर्धा पहुंचे.

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आजादी के बाद भी उन्होंने आम आदमी को सत्ता हस्तांतरण के लिए अपना संघर्ष जारी रखा. उनकी दृष्टि थी कि पंचायत राज ही एकमात्र ऐसा उपकरण है जो लोगों के हाथों में वास्तविक शक्ति डाल सकता है. वह 1957-1962 में दूसरी लोकसभा के सदस्य थे. वह 1957 के लोकसभा चुनाव में मथुरा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से भारतीय जनसंघ (जो बाद में भाजपा में विकसित हुआ) उम्मीदवार और भारत के भावी प्रधानमंत्री, अटल बिहारी वाजपेयी को हराकर एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुने गए.

Last Updated : Sep 18, 2021, 6:12 PM IST
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