देहरादून: जापान की ऐसी तकनीक जिसके जरिए लैंटाना का खत्मा होगा, जिसकी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तारीफ कर चुके हैं. उत्तराखंड ने जापान की इसी मियावाकी तकनीक को पायलेट प्रोजेक्ट के रूप में कुछ जगहों पर शुरू कर बेहतर परिणाम पाए हैं. अच्छी बात ये है कि इससे ना केवल जंगल खड़े करने में मदद मिल पा रही है, बल्कि वनस्पतियों के लिए अभिशाप बने लैंटाना को भी खत्म किया जा सकता है.
40 से ज्यादा देशों में लैंटाना गंभीर समस्या: उत्तराखंड के वनों और आरक्षित क्षेत्रों तक अपनी पैठ बनाने वाले लैंटाना पर तमाम प्रयासों के बावजूद भी नियंत्रण नहीं पाया जा सका है. वैसे यह समस्या उत्तराखंड या भारत की ही नहीं, बल्कि दुनिया के 40 से ज्यादा देशों में की भी है. भारत के लिए चिंता, इसलिए ज्यादा है, क्योंकि लैंटाना के लिए यहां की धरती और मौसम बेहद अनुकूल है. शायद यही कारण है कि 1807 में ब्रिटिश द्वारा भारत में ब्यूटीफिकेशन के लिए लाए गए लैंटाना ने आज देश के 40% हिस्से पर कब्जा कर लिया है. वैसे तो उत्तराखंड में भी लैंटाना उन्मूलन जैसे कई कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं, लेकिन बेहद तेजी से दोबारा पनपने वाले इस पौधे को खत्म करना मुश्किल हो गया है.
कहां से दुनियाभर में पनपा लैंटाना: लैंटाना पौधे का मूल मध्य और दक्षिण अमेरिका को माना जाता है. फ्लोरिडा के एक कस्बे का नाम तो लैंटाना के नाम से ही है. शुरुआत में इस पौधे को ब्यूटीफिकेशन के लिए कई जगह पर ले जाया गया, लेकिन बाद में इसके तेजी से पनपने और दूसरी वनस्पतियों को खत्म करने की प्रवृत्तियों ने इसे एक खतरा बना दिया. वैसे तो अमेरिका से इसकी शुरुआत हुई, लेकिन यहां पर सर्दियों के मौसम में यह खत्म हो जाता है और गर्मियों में एक बार फिर यह पनपने लगता है. भारत समेत मध्य एशिया और अफ्रीका में भी मौसम अनुकूल होने के कारण 12 महीने यह पौधा पनपता भी है और इसका प्रसार भी होता है.
मियावाकी तकनीक से खत्म होगा लैंटाना: उत्तराखंड ने जापानी तकनीक के जरिए लैंटाना को खत्म किया जाएगा, इसलिए कालसी क्षेत्र में सफल प्रयोग भी किया गया है. इस जापानी तकनीक का नाम मियावाकी तकनीक है, जिसे जापान के बॉटेनिस्ट अकीरा मियावाकि ने विकसित किया था. इसके जरिए कालसी क्षेत्र में एक बड़े क्षेत्र में लैंटाना को खत्म किया गया है. हालांकि इसके लिए एक लंबी प्रक्रिया को अपनाया जाता है और उसके बाद अभिशाप बने इस पौधे को खत्म किया जा रहा है.
जमीन को करीब 3 फीट गहरा खोदकर मिट्टी की होती है जांच: सबसे पहले इसके लिए जिस भी जमीन में पौधे लगाए जाते हैं, वहां का वातावरण उस पौधे के अनुकूल होना चाहिए. अगर इसी इलाके के किसी पौधे को चुना जाता है, तो इसकी सफलता का प्रतिशत बढ़ जाता है. जिस भी बीज को इस क्षेत्र में बोया जाता है, वह इसी क्षेत्र के किसी पौधे का होना भी जरूरी है. इस तरह एक पौधों की नर्सरी तैयार की जाती है. उसके बाद जमीन को करीब 3 फीट गहरा खोदते हुए यहां की मिट्टी की जांच की जाती है. मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने के लिए जैविक खाद, गोबर, नारियल के छिलके जैसी चीजें मिट्टी में मिलाई जाती हैं. अब इसी क्षेत्र में उगाए गए पौधों को यहां करीब आधे से 1 फीट की दूरी पर लगाया जाता है. उसके बाद यहां पर आल बिछाई जाती है, ताकि नमी धूप से कम ना हो.
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कालसी में इस तकनीक का किया गया सफल प्रयोग: पहले यहां पर मौजूद लैंटाना को पूरी तरह से हटाने और हटाते वक्त इसके बीज और फूलों के इस मिट्टी पर ना गिरने जैसी बातों का ख्याल रखा जाता है. देहरादून के कालसी में इसका सफल प्रयोग किया गया है. जिसकी भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के महानिदेशक ने भी तारीफ की है. वहीं, डॉक्टर सीपी गोयल कहते हैं कि उत्तराखंड ने लैंटाना उन्मूलन के लिए मियावाकी तकनीक का सफल प्रयोग किया है. ये तकनीक भविष्य में भी सफल होती है तो इसे आगे बढ़ाया जाएगा.
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