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रोटी की चाह में नहीं बिकने देंगे अपनी जमीन, उत्तराखंड में छिड़े भू-कानून आंदोलन की कहानी - What is the demand of Uttarakhand land law

उत्तराखंड में इन दिनों तेजी से भू-कानून की मांग उठ रही है. सोशल मीडिया पर भी इसे लेकर चलाये जा रहे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं. युवा जोर-शोर से भू-कानून की मांग को उठाने में लगे हुए हैं.

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भू-कानून
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Published : Jun 30, 2021, 6:18 PM IST

Updated : Jul 1, 2021, 5:24 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड में हिमाचल की तर्ज पर भू-कानून (land law) की मांग इन दिनों सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा ट्रेंड (trend) कर रही है. पहली बार फेसबुक, इंस्टाग्राम (Instagram) पर कोई राजनीतिक मुद्दा इतना गरमा रहा है. इससे उत्तराखंड की इस भू-कानून (Uttarakhand Land Law) की मांग में उन लोगों को भी ऊर्जा मिली है, जो पिछले लंबे समय से इसकी लड़ाई लड़ रहे हैं.

युवाओं द्वारा सोशल मीडिया (social media) पर चलाए जा रहे इस अभियान में 1 जुलाई को अपने घर पर 15 मिनट के सांकेतिक धरने की अपील की गई है. जिसके बाद यह कैंपेन तेजी से आगे बढ़ने वाला है. आइये आपको बताते हैं क्या है भू-कानून और इससे क्या लाभ मिलेगा.

उत्तराखंड में छिड़ा भू-कानून आंदोलन

छाया भू-कानून की मांग

यह पहली बार नहीं है जब उत्तराखंड का कोई राजनीतिक मुद्दा इंस्टाग्राम पर ट्रेंड कर रहा है. इंस्टाग्राम युवाओं का पसंदीदा प्लेटफॉर्म है. इस इस पर ज्यादातर युवा अपना समय बिताते हैं. अगर राजनीतिक मुद्दों की बात करें तो यह अक्सर ट्विटर पर सिमट कर रह जाता है, लेकिन इस बार उत्तराखंड के युवाओं ने भू-कानून की मांग की जिम्मेदारी अपने हाथ में ले ली है. इस मुहिम को ट्वीट से आगे फेसबुक और इंस्टाग्राम तक ले गये हैं.

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उत्तराखंड मांगे भू-कानून.

यही वजह है कि पिछले कुछ दिनों से हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भू-कानून का मुद्दा ही छाया हुआ है. भू-कानून को लेकर चलाया जा रहा हैशटैग ट्रेंड कर रहा है. दरअसल, खाली होते उत्तराखंड के गांव, कम होते रोजगार और पलायन के बाद यहां पर लगातार बाहरी लोगों का आगमन चरम पर है, जिसके कारण यहां बड़ी संख्या में जमीनें खरीदी और बेची जा रही हैं.

रोटी की चाह में नहीं बिकने
उत्तराखंड में छिड़ा भू-कानून आंदोलन

पढ़ें- धारचूला क्षेत्र में भूकंप की वजह का वैज्ञानिकों ने लगाया पता, ये है वजह

उत्तराखंड में हिमाचल की तरह एक सख्त भू-कानून की मांग को लेकर पिछले कई सालों से अभियान चला रहे सागर रावत बताते हैं कि यह लड़ाई उत्तराखंड के जल-जंगल-जमीन, संस्कृति, रोटी-बेटी और हक हकूक की लड़ाई है. वहीं भू-कानून को लेकर उत्तराखंड के कुमाऊं से आने वाले आरजे पंकज जीना ने भी इंस्टाग्राम पर भू-कानून को लेकर कैंपेन शुरू किया हुआ है.

रोटी की चाह में नहीं बिकने
उत्तराखंड में छिड़ा भू-कानून आंदोलन

इसके अलावा ट्विटर, फेसबुक पर भी #उत्तराखंड_मांगे_भू_कानून बहुत ज्यादा ट्रेंड कर रहा है. पिछले दो दिन से सोशल मीडिया पर भू-कानून के नाम से हैशटैग छाया हुआ है. वहीं कई युवा संगठन इस कैंपेन को सोशल मीडिया पर चला रहे हैं.

पढ़ें- जून में हुई सामान्य से 35% अधिक बारिश, चमोली और बागेश्वर ने तोड़ा रिकॉर्ड

गढ़-कुमाऊं संगठन ने पूरे दिन भू-कानून को लेकर सोशल मीडिया पर पोस्ट किये. वहीं इसके अलावा लोकगीत, पोस्टर और एनिमेशन के जरिये युवा इस मुहिम को ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर चला रहे हैं. 1 जुलाई को इस मुहिम को अगले स्तर पर ले जाने के लिए सभी से सोशल मीडिया पर अपने ही घर पर 15 मिनट का सांकेतिक वर्चुअल धरना देने की अपील की गई है.

रोटी की चाह में नहीं बिकने
सोशल मीडिया पर युवाओं ने शुरू किया अभियान.

क्या होता है भू-कानून और उत्तराखंड में क्या है इसका इतिहास

भू-कानून का सीधा-सीधा मतलब भूमि के अधिकार से है. यानी आपकी भूमि पर केवल आपका अधिकार है न की किसी और का. जब उत्तराखंड बना था तो उसके बाद साल 2002 तक बाहरी राज्यों के लोग उत्तराखंड में केवल 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीद सकते थे. वर्ष 2007 में बतौर मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी ने यह सीमा 250 वर्ग मीटर कर दी. इसके बाद 6 अक्टूबर 2018 को भाजपा के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत एक नया अध्यादेश लाए, जिसका नाम 'उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950 में संशोधन का विधेयक' था. इसे विधानसभा में पारित किया गया.

इसमें धारा 143 (क), धारा 154(2) जोड़ी गई. यानी पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया गया. अब कोई भी राज्य में कहीं भी भूमि खरीद सकता था. साथ ही इसमें उत्तराखंड के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, यूएसनगर में भूमि की हदबंदी (सीलिंग) खत्म कर दी गई. इन जिलों में तय सीमा से अधिक भूमि खरीदी या बेची जा सकेगी.

रोटी की चाह में नहीं बिकने
उत्तराखंड में भू-कानून की मांग तेज

पढ़ें- कोरोना की तीसरी लहर को लेकर स्वास्थ्य विभाग अलर्ट, किया बच्चों का हेल्थ चेकअप

उत्तराखंड की अगर बात करें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2000 के आंकड़ों पर नजर डालें तो उत्तराखंड की कुल 8,31,227 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज थी. इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से ऊपर की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 1,08,863 थी. इन 1,08,863 परिवारों के नाम 4,02,422 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी.

यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग. बाकी 5 एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28,803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि, किस तरह राज्य के लगभग 12 फीसदी किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि है. बची 88 फीसदी कृषि आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुंच चुकी है. हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड का भू कानून बहुत ही लचीला है इसलिए सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग, एक सशक्त, हिमाचल के जैसे भू-कानून की मांग कर रहे हैं.

पढ़ें- हाईकमान ने सीएम तीरथ को दिल्ली बुलाया, राजनीतिक गलियारों में चर्चा तेज

क्या है हिमाचल का भू-कानून

1972 में हिमाचल में एक सख्त कानून बनाया गया. इस कानून के अंतर्गत बाहर के लोग हिमाचल में जमीन नहीं खरीद सकते थे. दरअसल, हिमाचल उस वक्त इतना सम्पन्न नहीं था. डर था कि कहीं हिमाचल के लोग बाहरी लोगों को अपनी जमीन न बेच दें. जाहिर सी बात थी कि वो भूमिहीन हो जाते. भूमिहीन होने का अर्थ है कि अपनी संस्कृति और सभ्यता को भी खोने का खतरा.

पढ़ें- समग्र शिक्षा अभियान के तहत 921 करोड़ का बजट पास, बच्चों को मिलेगी मुफ्त यूनिफार्म

दरअसल, हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार ये कानून लेकर आए थे. लैंड रिफॉर्म एक्ट 1972 में प्रावधान के तहत एक्ट के 11वें अध्याय में Control on Transfer of Lands में धारा -118 के तहत हिमाचल में कृषि भूमि नहीं खरीदी जा सकती. गैर हिमाचली नागरिक को यहां जमीन खरीदने की इजाजत नहीं है. कमर्शियल प्रयोग के लिए आप जमीन किराए पे ले सकते हैं.

2007 में धूमल सरकार ने धारा-118 में संशोधन किया और कहा कि बाहरी राज्य का व्यक्ति, जो हिमाचल में 15 साल से रह रहा है, वो यहां जमीन ले सकता है. बाद में अगली सरकार ने इसे बढ़ा कर 30 साल कर दिया.

पढ़ें- BJP का तीन दिवसीय चिंतन शिविर संपन्न, CM बोले- 2022 विधानसभा चुनाव का रोड मैप तैयार

भू-कानून की मांग चुनावी वर्ष में बन सकता है बड़ा मुद्दा

वैसे तो भू-कानून की मांग उत्तराखंड में समय-समय पर राजनीतिक और सामाजिक लोगों द्वारा उठाई जाती रही है. अब इस मुहिम में युवाओं का जुड़ना कहीं ना कहीं राजनीतिक पार्टियों के लिए भी कान खड़े करने वाली बात है. ऊपर से यह चुनावी साल है. जिससे अनुमान लगाया जा रहा है कि चुनावों में भी भू-कानून की मांग जोर पकड़ सकती है. सोशल मीडिया के माध्यम से जोर पकड़ रही मुहिम में सियासी नेता भी अब उतर पड़े हैं.

पढ़ें- सपा ने आगामी विधानसभा चुनाव के लिए कसी कमर, बनाई रणनीति

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इस मामले पर साफ कहा है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में उत्तराखंड में भू-कानून में सुधार के लिए प्रयास किये, लेकिन उन्हें पूरा समय नहीं मिल पाया. उन्होंने कहा आने वाली सरकार के लिए जमीनों का बंदोबस्त पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. वहीं, कांग्रेस प्रवक्ता ने भी युवाओं को समर्थन देते हुए कहा कि उत्तराखंड में सख्त भू-कानून लागू होना चाहिए. वहीं दूसरी तरफ भाजपा भी मौके को देखते हुए मुद्दे को भुना रही है. इस विषय को लेकर अपनी गंभीरता को दिखा रही है.

देहरादून: उत्तराखंड में हिमाचल की तर्ज पर भू-कानून (land law) की मांग इन दिनों सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा ट्रेंड (trend) कर रही है. पहली बार फेसबुक, इंस्टाग्राम (Instagram) पर कोई राजनीतिक मुद्दा इतना गरमा रहा है. इससे उत्तराखंड की इस भू-कानून (Uttarakhand Land Law) की मांग में उन लोगों को भी ऊर्जा मिली है, जो पिछले लंबे समय से इसकी लड़ाई लड़ रहे हैं.

युवाओं द्वारा सोशल मीडिया (social media) पर चलाए जा रहे इस अभियान में 1 जुलाई को अपने घर पर 15 मिनट के सांकेतिक धरने की अपील की गई है. जिसके बाद यह कैंपेन तेजी से आगे बढ़ने वाला है. आइये आपको बताते हैं क्या है भू-कानून और इससे क्या लाभ मिलेगा.

उत्तराखंड में छिड़ा भू-कानून आंदोलन

छाया भू-कानून की मांग

यह पहली बार नहीं है जब उत्तराखंड का कोई राजनीतिक मुद्दा इंस्टाग्राम पर ट्रेंड कर रहा है. इंस्टाग्राम युवाओं का पसंदीदा प्लेटफॉर्म है. इस इस पर ज्यादातर युवा अपना समय बिताते हैं. अगर राजनीतिक मुद्दों की बात करें तो यह अक्सर ट्विटर पर सिमट कर रह जाता है, लेकिन इस बार उत्तराखंड के युवाओं ने भू-कानून की मांग की जिम्मेदारी अपने हाथ में ले ली है. इस मुहिम को ट्वीट से आगे फेसबुक और इंस्टाग्राम तक ले गये हैं.

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उत्तराखंड मांगे भू-कानून.

यही वजह है कि पिछले कुछ दिनों से हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भू-कानून का मुद्दा ही छाया हुआ है. भू-कानून को लेकर चलाया जा रहा हैशटैग ट्रेंड कर रहा है. दरअसल, खाली होते उत्तराखंड के गांव, कम होते रोजगार और पलायन के बाद यहां पर लगातार बाहरी लोगों का आगमन चरम पर है, जिसके कारण यहां बड़ी संख्या में जमीनें खरीदी और बेची जा रही हैं.

रोटी की चाह में नहीं बिकने
उत्तराखंड में छिड़ा भू-कानून आंदोलन

पढ़ें- धारचूला क्षेत्र में भूकंप की वजह का वैज्ञानिकों ने लगाया पता, ये है वजह

उत्तराखंड में हिमाचल की तरह एक सख्त भू-कानून की मांग को लेकर पिछले कई सालों से अभियान चला रहे सागर रावत बताते हैं कि यह लड़ाई उत्तराखंड के जल-जंगल-जमीन, संस्कृति, रोटी-बेटी और हक हकूक की लड़ाई है. वहीं भू-कानून को लेकर उत्तराखंड के कुमाऊं से आने वाले आरजे पंकज जीना ने भी इंस्टाग्राम पर भू-कानून को लेकर कैंपेन शुरू किया हुआ है.

रोटी की चाह में नहीं बिकने
उत्तराखंड में छिड़ा भू-कानून आंदोलन

इसके अलावा ट्विटर, फेसबुक पर भी #उत्तराखंड_मांगे_भू_कानून बहुत ज्यादा ट्रेंड कर रहा है. पिछले दो दिन से सोशल मीडिया पर भू-कानून के नाम से हैशटैग छाया हुआ है. वहीं कई युवा संगठन इस कैंपेन को सोशल मीडिया पर चला रहे हैं.

पढ़ें- जून में हुई सामान्य से 35% अधिक बारिश, चमोली और बागेश्वर ने तोड़ा रिकॉर्ड

गढ़-कुमाऊं संगठन ने पूरे दिन भू-कानून को लेकर सोशल मीडिया पर पोस्ट किये. वहीं इसके अलावा लोकगीत, पोस्टर और एनिमेशन के जरिये युवा इस मुहिम को ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम पर चला रहे हैं. 1 जुलाई को इस मुहिम को अगले स्तर पर ले जाने के लिए सभी से सोशल मीडिया पर अपने ही घर पर 15 मिनट का सांकेतिक वर्चुअल धरना देने की अपील की गई है.

रोटी की चाह में नहीं बिकने
सोशल मीडिया पर युवाओं ने शुरू किया अभियान.

क्या होता है भू-कानून और उत्तराखंड में क्या है इसका इतिहास

भू-कानून का सीधा-सीधा मतलब भूमि के अधिकार से है. यानी आपकी भूमि पर केवल आपका अधिकार है न की किसी और का. जब उत्तराखंड बना था तो उसके बाद साल 2002 तक बाहरी राज्यों के लोग उत्तराखंड में केवल 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीद सकते थे. वर्ष 2007 में बतौर मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी ने यह सीमा 250 वर्ग मीटर कर दी. इसके बाद 6 अक्टूबर 2018 को भाजपा के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत एक नया अध्यादेश लाए, जिसका नाम 'उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950 में संशोधन का विधेयक' था. इसे विधानसभा में पारित किया गया.

इसमें धारा 143 (क), धारा 154(2) जोड़ी गई. यानी पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया गया. अब कोई भी राज्य में कहीं भी भूमि खरीद सकता था. साथ ही इसमें उत्तराखंड के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, यूएसनगर में भूमि की हदबंदी (सीलिंग) खत्म कर दी गई. इन जिलों में तय सीमा से अधिक भूमि खरीदी या बेची जा सकेगी.

रोटी की चाह में नहीं बिकने
उत्तराखंड में भू-कानून की मांग तेज

पढ़ें- कोरोना की तीसरी लहर को लेकर स्वास्थ्य विभाग अलर्ट, किया बच्चों का हेल्थ चेकअप

उत्तराखंड की अगर बात करें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2000 के आंकड़ों पर नजर डालें तो उत्तराखंड की कुल 8,31,227 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज थी. इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से ऊपर की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 1,08,863 थी. इन 1,08,863 परिवारों के नाम 4,02,422 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी.

यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग. बाकी 5 एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28,803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि, किस तरह राज्य के लगभग 12 फीसदी किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि है. बची 88 फीसदी कृषि आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुंच चुकी है. हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड का भू कानून बहुत ही लचीला है इसलिए सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग, एक सशक्त, हिमाचल के जैसे भू-कानून की मांग कर रहे हैं.

पढ़ें- हाईकमान ने सीएम तीरथ को दिल्ली बुलाया, राजनीतिक गलियारों में चर्चा तेज

क्या है हिमाचल का भू-कानून

1972 में हिमाचल में एक सख्त कानून बनाया गया. इस कानून के अंतर्गत बाहर के लोग हिमाचल में जमीन नहीं खरीद सकते थे. दरअसल, हिमाचल उस वक्त इतना सम्पन्न नहीं था. डर था कि कहीं हिमाचल के लोग बाहरी लोगों को अपनी जमीन न बेच दें. जाहिर सी बात थी कि वो भूमिहीन हो जाते. भूमिहीन होने का अर्थ है कि अपनी संस्कृति और सभ्यता को भी खोने का खतरा.

पढ़ें- समग्र शिक्षा अभियान के तहत 921 करोड़ का बजट पास, बच्चों को मिलेगी मुफ्त यूनिफार्म

दरअसल, हिमाचल के प्रथम मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत सिंह परमार ये कानून लेकर आए थे. लैंड रिफॉर्म एक्ट 1972 में प्रावधान के तहत एक्ट के 11वें अध्याय में Control on Transfer of Lands में धारा -118 के तहत हिमाचल में कृषि भूमि नहीं खरीदी जा सकती. गैर हिमाचली नागरिक को यहां जमीन खरीदने की इजाजत नहीं है. कमर्शियल प्रयोग के लिए आप जमीन किराए पे ले सकते हैं.

2007 में धूमल सरकार ने धारा-118 में संशोधन किया और कहा कि बाहरी राज्य का व्यक्ति, जो हिमाचल में 15 साल से रह रहा है, वो यहां जमीन ले सकता है. बाद में अगली सरकार ने इसे बढ़ा कर 30 साल कर दिया.

पढ़ें- BJP का तीन दिवसीय चिंतन शिविर संपन्न, CM बोले- 2022 विधानसभा चुनाव का रोड मैप तैयार

भू-कानून की मांग चुनावी वर्ष में बन सकता है बड़ा मुद्दा

वैसे तो भू-कानून की मांग उत्तराखंड में समय-समय पर राजनीतिक और सामाजिक लोगों द्वारा उठाई जाती रही है. अब इस मुहिम में युवाओं का जुड़ना कहीं ना कहीं राजनीतिक पार्टियों के लिए भी कान खड़े करने वाली बात है. ऊपर से यह चुनावी साल है. जिससे अनुमान लगाया जा रहा है कि चुनावों में भी भू-कानून की मांग जोर पकड़ सकती है. सोशल मीडिया के माध्यम से जोर पकड़ रही मुहिम में सियासी नेता भी अब उतर पड़े हैं.

पढ़ें- सपा ने आगामी विधानसभा चुनाव के लिए कसी कमर, बनाई रणनीति

पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इस मामले पर साफ कहा है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में उत्तराखंड में भू-कानून में सुधार के लिए प्रयास किये, लेकिन उन्हें पूरा समय नहीं मिल पाया. उन्होंने कहा आने वाली सरकार के लिए जमीनों का बंदोबस्त पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. वहीं, कांग्रेस प्रवक्ता ने भी युवाओं को समर्थन देते हुए कहा कि उत्तराखंड में सख्त भू-कानून लागू होना चाहिए. वहीं दूसरी तरफ भाजपा भी मौके को देखते हुए मुद्दे को भुना रही है. इस विषय को लेकर अपनी गंभीरता को दिखा रही है.

Last Updated : Jul 1, 2021, 5:24 PM IST
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