देहरादूनः उत्तराखंड में मूल निवास 1950 को लागू करने की मांग तूल पकड़ रहा है. इतना ही नहीं आगामी 24 दिसंबर को देहरादून में 'मूल निवास स्वाभिमान महारैली' होने जा रहा है. यह रैली आयोजन मूल निवास-भू कानून समन्वय संघर्ष समिति के बैनर तले होने जा रही है. इसी बीच उत्तराखंड में मूल निवास और स्थायी निवास की बहस होने लगी है. जिसके बाद कई तरह की तर्क सामने आ रहे हैं.
भारत में अधिवासन को लेकर साल 1950 में जारी हुआ था प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन: उत्तराखंड में मूल निवास और स्थायी निवास के कानूनी पेचीदगियों पर बारीकी से अध्ययन करने वाले पंकज पैन्यूली बताते हैं कि 8 अगस्त 1950 और 6 सितंबर 1950 को राष्ट्रपति के माध्यम से एक नोटिफिकेशन जारी किया गया था. जिसको साल 1961 में गजट नोटिफिकेशन के तहत प्रकाशित किया गया था.
इसमें भारत के अधिवासन को लेकर कहा गया था कि साल 1950 से जो व्यक्ति देश के जिस राज्य में मौजूद है, वो वहीं का मूल निवासी होगा. इस नोटिफिकेशन में साफ तौर से मूल निवास की परिभाषा को परिभाषित किया गया था. मूल निवास की अवधारणा को लेकर के भी स्पष्ट व्याख्यान किया गया था.
मूल निवास को लेकर साल 1977 में हुई पहली बहस: भारत में मूल निवास को लेकर पहली बहस साल 1977 में हुई, जब 1961 में महाराष्ट्र और गुजरात राज्य का विभाजन हुआ और यहां पर मराठा संप्रदाय ने मूल निवास को लेकर पहली बार सुप्रीम कोर्ट में बहस की.
इसके बाद देश की सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ यानी कि आठ जजों की पीठ ने अपने फैसले में राष्ट्रपति के साल 1950 के नोटिफिकेशन को मूल निवास के लिए देश के हर एक राज्य में बाध्य किया. साथ ही 1950 में प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को बाध्य मानते हुए मूल निवास की सीमा को 1950 ही रखा.
उत्तराखंड में राज्य गठन के साथ ही हुई स्थायी निवास की एंट्री: साल 2000 में देश के तीन नए राज्यों का गठन हुआ, जिसमें उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ शामिल थे. इन तीन नए राज्यों में से झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य ने मूल निवास को लेकर के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य मानते हुए 1950 को ही मूल निवास रखा, लेकिन उत्तराखंड में बतौर मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी के नेतृत्व में बनी बीजेपी की अंतरिम सरकार ने मूल निवास के साथ एक स्थायी निवास की व्यवस्था कर दी.
इसके तहत 15 साल पूर्व से उत्तराखंड में रहने वालों के लिए स्थायी निवास की व्यवस्था कर दी गई, लेकिन उस वक्त मूल निवास के साथ स्थायी निवास को अनिवार्य किया गया था. यानी कि अंतरिम सरकार में मूल निवास को स्थायी निवास के साथ मान्यता दी गई थी. जिसके बाद ही स्थायी निवास की व्यवस्था उत्तराखंड में चल पड़ी.
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साल 2010 में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने उत्तराखंड में प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य किया: साल 2010 में जब उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार थी, उस समय उत्तराखंड के हाईकोर्ट में 'नैना सैनी बनाम उत्तराखंड राज्य, केस नंबर AIR 2010UTT36' और देश के सुप्रीम कोर्ट में 'प्रदीप जैन वर्सेस यूनियन ऑफ इंडिया केस नंबर AIR1984Sc 1420' दो अलग-अलग याचिकाएं फाइल की गई.
इन दोनों याचिकाओं में एक ही विषय रखा गया था, जिसमें उत्तराखंड में राज्य गठन के समय निवास करने वाले व्यक्ति को मूल निवासी के रूप में मान्यता देने की मांग की गई थी, लेकिन इन दोनों याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने एक ही फैसला दिया. वो फैसला 1950 में हुए प्रेसिडेंशियल नोटिफिकेशन के पक्ष में था. जहां पर याचिकाकर्ताओं को सफलता हासिल नहीं हुई और उत्तराखंड में 1950 का मूल निवास लागू रहा.
साल 2012 में हुआ खेल, खत्म हुआ मूल निवास का अस्तित्व: साल 2012 में उत्तराखंड में कांग्रेस की सरकार आई और इसी दौरान ही मूल निवास और स्थायी निवास को लेकर वास्तविक खेल हुआ. 17 अगस्त 2012 को उत्तराखंड हाईकोर्ट में एक याचिका की सुनवाई हुई. जिसमें हाईकोर्ट की सिंगल बेंच ने फैसला दिया कि 9 नवंबर 2000 के दिन से राज्य में निवास करने वाले व्यक्तियों को मूल निवासी माना जाएगा.
हालांकि, यह उत्तराखंड राज्य पुनर्गठन अधिनियम 2000 की धारा 24 और 25 के अधिनियम 5 और 6 अनुसूची के साथ 1950 में लागू हुए प्रेसिडेंशियल नोटिफिकेशन का उल्लंघन था, इसके बावजूद भी सरकार ने सिंगल बेंच के इस फैसले को चुनौती न देते हुए इसे स्वीकार कर लिया. साथ ही सरकार ने साल 2012 के बाद से मूल निवास बनाने की व्यवस्था भी बंद कर दी. तब से उत्तराखंड में केवल स्थायी निवास की व्यवस्था ही लागू है.
वर्तमान व्यवस्था में तकनीकी खामी, कोर्ट में चुनौती की तैयारी: उत्तराखंड में मूल निवास स्वाभिमान आंदोलन की तैयारी कर रहे प्रबुद्ध लोगों के साथ इस आंदोलन में तकनीकी जानकार भी जुड़े हुए हैं. वहीं, इन्हीं में से एक पंकज पैन्यूली का कहना है कि साल 2012 में उत्तराखंड हाई कोर्ट के सिंगल बेंच के फैसले को सरकार को चुनौती देनी चाहिए थी. यह कई मायनों में खामियां रखता है और इसे आसानी से कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.
बावजूद इसके सरकार ने इसे मान्य किया और प्रदेश में लागू कर दिया. जबकि, यह वैधानिक रूप से भी गलत है. उन्होंने कहा कि जहां एक तरफ जन आंदोलन के रूप में मूल निवास और मूल निवासियों के अधिकारों को लेकर मांग की जा रही है तो वहीं दूसरी तरफ इस पूरे विषय के तकनीकी पहलुओं पर भी लगातार काम किया जा रहा है. इस मामले को कोर्ट में भी चुनौती दी जाएगी.
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मूल निवास लागू करने के लिए सरकार की इच्छाशक्ति जरूरी: तकनीकी जानकार पंकज पैन्यूली का कहना है कि इस पूरे मामले पर सरकार की इच्छा शक्ति होनी बेहद जरूरी है. उन्होंने कहा कि कई मामलों में कोर्ट निर्णय देता है, लेकिन सरकार अपनी सहूलियत के हिसाब से कानून बना देती है या फिर अध्यादेश भी आती है.
वहीं, राज्य आंदोलनकारी प्रदीप कुकरेती का कहना है कि जनता जन आंदोलन के माध्यम से अपनी भावनाएं बता सकती है और कोर्ट में तकनीकी पहलुओं पर लड़ाई लड़ी जा सकती है, लेकिन इसके बावजूद भी धरातल पर काम करने की जरूरत और प्रदेश के निवासियों के हितों के बारे में सोचने की जिम्मेदारी सरकार की है. अगर सरकार अपनी जिम्मेदारी को समझे तो यह विषय आसानी से सुलझ सकता है.