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उधर चीन ने सीमा पर बसा लिए हाईटेक गांव, इधर सड़क के लिए ही 73 सालों से हो रहा इंतजार

उत्तराखंड के चमोली जनपद का सूकी गांव भारत-चीन सीमा से सटा आखिरी गांव है. इस गांव में आज तक लोगों ने सड़क नहीं देखी है. बीते समय में लोगों के संघर्ष के बाद 1992 में इस गांव के लिए सड़क तो स्वीकृत हुई थी, लेकिन आज तक यह सड़क केवल कागजों में है, धरातल पर नहीं उतर पाई है.

भारत-चीन सीमा
सूकी गांव को 'विकास' की तलाश
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Published : Dec 5, 2020, 10:48 AM IST

Updated : Dec 6, 2020, 3:44 PM IST

देहरादून: भारत सरकार सीमा पर चाक चौबंद व्यवस्था करने और सीमांत क्षेत्रों में बसे गांवों तक विकास पहुंचाने की बात करती है, लेकिन जमीनी हालात कुछ और ही बयां कर रहे हैं. एक तरफ जहां चीन अपने सीमावर्ती क्षेत्रों में बड़े-बड़े शहर बसा चुका है, वहीं भारत के सीमावर्ती गांवों में रहने वाले लोगों की जिंदगी आज भी बेहद मुश्किल में है. उत्तराखंड के सीमावर्ती जनपद चमोली के एक गांव की हालत भी कुछ ऐसी ही है. यहां 2020 में भी ग्रामीण एक अदद सड़क के लिए तरस रहे हैं. हम आपको बताने जा रहे हैं कि सीमा पर बसे सभी गांवों के हालात कमोवेश यही हैं.

भारत-चीन सीमा पर बसा सूकी गांव

यह है उत्तराखंड के चमोली जनपद का सूकी गांव, जो भारत-चीन सीमा से सटा आखिरी गांव है. इस गांव में आज तक लोगों ने सड़क नहीं देखी है. बीते समय में लोगों के संघर्ष के बाद 1992 में इस गांव के लिए सड़क तो स्वीकृत हुई थी, लेकिन आज तक यह सड़क केवल कागजों में है, धरातल पर नहीं उतर पाई है. कहते हैं कि विकास का रास्ता सड़क से होकर जाता है, लेकिन इस गांव को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस गांव में अभी तक सड़क नहीं पहुंची है, वहां अन्य सुख सुविधाओं और विकास की बात करना बेईमानी होगी.

सूकी गांव को 'विकास' की तलाश

सेना की मदद में सबसे आगे सूकी गांव के लोग

भारत-चीन सीमा पर बसे इस सीमांत गांव में ज्यादातर लोग भोटिया प्रजाति के हैं. यह वही लोग हैं जो कि चीनी घुसपैठ के वक्त भारतीय सेना की मदद में सबसे आगे खड़े होते हैं. लेकिन आज यही लोग अपने अस्तित्व के लिए तरस रहे हैं. ग्रामीणों ने बताया कि पिछले कई सालों से इस गांव में स्वीकृत हुई सड़क अधर में लटकी हुई है. सूकी गांव के मुकेश रावत ने कहा कि गांव में कुछ भी सुविधाएं ना होने की वजह से वह गांव छोड़कर शहर चले गए थे. लेकिन जब वह लॉकडाउन में वापस लौटे तो उन्होंने देखा गांव बिल्कुल का वैसा ही है, जैसा की वह छोड़ कर गए थे.

ये भी पढ़ें: तीन दिवसीय प्रवास पर आज देहरादून पहुंचेंगे जेपी नड्डा, करेंगे पांच बैठकें

किसी आधार नेता को वोट दें

गांव में आज भी विकास के नाम पर कुछ भी नया नहीं हुआ है. यही नहीं गांव के छात्रों को शिक्षा के लिए कई किलोमीटर पैदल चलकर अपने स्कूल पहुंचना पड़ता है. ग्रामीणों का कहना है कि उनका वोटर आईडी कार्ड तो बन चुका है, लेकिन वह किस आधार पर नेताओं को वोट दें, जब उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. गांव में मौजूद भोटिया प्रजाति के बड़े बुजुर्ग अपनी संस्कृति और सभ्यता को जिंदा रखे हुए हैं, लेकिन अब इनमें केवल शिकायत के अलावा कोई जिक्र नहीं है. गांव में मौजूद महिलाएं और बुजुर्गों का कहना है कि चुनाव के समय अलग-अलग नेता इनके गांव में आते हैं और तमाम वादे करके चले जाते हैं, लेकिन आज तक गांव को कुछ भी हासिल नहीं हुआ है.

'रोड नहीं तो वोट नहीं'

पिछले लंबे समय से रोड की मांग कर रहे ग्रामीण कई आंदोलन भी कर चुके हैं और कई बार ज्ञापन भी दे चुके हैं, लेकिन आज तक इस गांव में सड़क नहीं है. अब ग्रामीणों के सब्र का बांध टूट चुका है. ग्रामीणों का कहना है कि वह बड़े स्तर पर सीमांत क्षेत्र से आंदोलन करेंगे, जिसके लिए उन्हें जिलाधिकारी कार्यालय पर अपने मवेशियों के साथ भी प्रदर्शन भी करना पड़ेगा तो वह पीछे नहीं हटेंगे. ग्राम प्रधान लक्ष्मण सिंह ने कहा कि सीमांत क्षेत्रों की अनदेखी के चलते वह पूरे क्षेत्र के ग्रामीणों के साथ वह लोकतंत्र की सबसे बड़ी प्रक्रिया चुनाव में भाग नहीं लेंगे. जब विकास नहीं है तो मतदान से उन्हें क्या लाभ है.

गांव में मिनी बैंक और गैस की सुविधा नहीं

केंद्र सरकार द्वारा सीमांत क्षेत्रों में सूचना तंत्र को मजबूत करने के लिए टेलिफोनिक कनेक्टिविटी को लेकर काफी काम हुआ है. उत्तराखंड के सीमांत ग्रामीण क्षेत्रों में हाल ही में कई टावर लगाए गए हैं. क्षेत्र के लोगों को कनेक्टिविटी को लेकर राहत है, लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि क्षेत्र में मिनी बैंक और गैस की सुविधा नहीं है. जिस वजह से लोगों को कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. लोगों की मांग है कि सीमांत क्षेत्रों में मिनी बैंक या फिर एटीएम की कोई व्यवस्था की जानी चाहिए. ताकि क्षेत्र के लोगों को कोई परेशानी नहीं हो.

देहरादून: भारत सरकार सीमा पर चाक चौबंद व्यवस्था करने और सीमांत क्षेत्रों में बसे गांवों तक विकास पहुंचाने की बात करती है, लेकिन जमीनी हालात कुछ और ही बयां कर रहे हैं. एक तरफ जहां चीन अपने सीमावर्ती क्षेत्रों में बड़े-बड़े शहर बसा चुका है, वहीं भारत के सीमावर्ती गांवों में रहने वाले लोगों की जिंदगी आज भी बेहद मुश्किल में है. उत्तराखंड के सीमावर्ती जनपद चमोली के एक गांव की हालत भी कुछ ऐसी ही है. यहां 2020 में भी ग्रामीण एक अदद सड़क के लिए तरस रहे हैं. हम आपको बताने जा रहे हैं कि सीमा पर बसे सभी गांवों के हालात कमोवेश यही हैं.

भारत-चीन सीमा पर बसा सूकी गांव

यह है उत्तराखंड के चमोली जनपद का सूकी गांव, जो भारत-चीन सीमा से सटा आखिरी गांव है. इस गांव में आज तक लोगों ने सड़क नहीं देखी है. बीते समय में लोगों के संघर्ष के बाद 1992 में इस गांव के लिए सड़क तो स्वीकृत हुई थी, लेकिन आज तक यह सड़क केवल कागजों में है, धरातल पर नहीं उतर पाई है. कहते हैं कि विकास का रास्ता सड़क से होकर जाता है, लेकिन इस गांव को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस गांव में अभी तक सड़क नहीं पहुंची है, वहां अन्य सुख सुविधाओं और विकास की बात करना बेईमानी होगी.

सूकी गांव को 'विकास' की तलाश

सेना की मदद में सबसे आगे सूकी गांव के लोग

भारत-चीन सीमा पर बसे इस सीमांत गांव में ज्यादातर लोग भोटिया प्रजाति के हैं. यह वही लोग हैं जो कि चीनी घुसपैठ के वक्त भारतीय सेना की मदद में सबसे आगे खड़े होते हैं. लेकिन आज यही लोग अपने अस्तित्व के लिए तरस रहे हैं. ग्रामीणों ने बताया कि पिछले कई सालों से इस गांव में स्वीकृत हुई सड़क अधर में लटकी हुई है. सूकी गांव के मुकेश रावत ने कहा कि गांव में कुछ भी सुविधाएं ना होने की वजह से वह गांव छोड़कर शहर चले गए थे. लेकिन जब वह लॉकडाउन में वापस लौटे तो उन्होंने देखा गांव बिल्कुल का वैसा ही है, जैसा की वह छोड़ कर गए थे.

ये भी पढ़ें: तीन दिवसीय प्रवास पर आज देहरादून पहुंचेंगे जेपी नड्डा, करेंगे पांच बैठकें

किसी आधार नेता को वोट दें

गांव में आज भी विकास के नाम पर कुछ भी नया नहीं हुआ है. यही नहीं गांव के छात्रों को शिक्षा के लिए कई किलोमीटर पैदल चलकर अपने स्कूल पहुंचना पड़ता है. ग्रामीणों का कहना है कि उनका वोटर आईडी कार्ड तो बन चुका है, लेकिन वह किस आधार पर नेताओं को वोट दें, जब उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है. गांव में मौजूद भोटिया प्रजाति के बड़े बुजुर्ग अपनी संस्कृति और सभ्यता को जिंदा रखे हुए हैं, लेकिन अब इनमें केवल शिकायत के अलावा कोई जिक्र नहीं है. गांव में मौजूद महिलाएं और बुजुर्गों का कहना है कि चुनाव के समय अलग-अलग नेता इनके गांव में आते हैं और तमाम वादे करके चले जाते हैं, लेकिन आज तक गांव को कुछ भी हासिल नहीं हुआ है.

'रोड नहीं तो वोट नहीं'

पिछले लंबे समय से रोड की मांग कर रहे ग्रामीण कई आंदोलन भी कर चुके हैं और कई बार ज्ञापन भी दे चुके हैं, लेकिन आज तक इस गांव में सड़क नहीं है. अब ग्रामीणों के सब्र का बांध टूट चुका है. ग्रामीणों का कहना है कि वह बड़े स्तर पर सीमांत क्षेत्र से आंदोलन करेंगे, जिसके लिए उन्हें जिलाधिकारी कार्यालय पर अपने मवेशियों के साथ भी प्रदर्शन भी करना पड़ेगा तो वह पीछे नहीं हटेंगे. ग्राम प्रधान लक्ष्मण सिंह ने कहा कि सीमांत क्षेत्रों की अनदेखी के चलते वह पूरे क्षेत्र के ग्रामीणों के साथ वह लोकतंत्र की सबसे बड़ी प्रक्रिया चुनाव में भाग नहीं लेंगे. जब विकास नहीं है तो मतदान से उन्हें क्या लाभ है.

गांव में मिनी बैंक और गैस की सुविधा नहीं

केंद्र सरकार द्वारा सीमांत क्षेत्रों में सूचना तंत्र को मजबूत करने के लिए टेलिफोनिक कनेक्टिविटी को लेकर काफी काम हुआ है. उत्तराखंड के सीमांत ग्रामीण क्षेत्रों में हाल ही में कई टावर लगाए गए हैं. क्षेत्र के लोगों को कनेक्टिविटी को लेकर राहत है, लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि क्षेत्र में मिनी बैंक और गैस की सुविधा नहीं है. जिस वजह से लोगों को कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. लोगों की मांग है कि सीमांत क्षेत्रों में मिनी बैंक या फिर एटीएम की कोई व्यवस्था की जानी चाहिए. ताकि क्षेत्र के लोगों को कोई परेशानी नहीं हो.

Last Updated : Dec 6, 2020, 3:44 PM IST
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