देहरादून: जिस उद्देश्य के साथ यूपी से अलग करके पहाड़ी राज्य उत्तराखंड का गठन किया गया था, उन उम्मीदों को परिसीमन ने धीरे-धीरे चकनाचूर कर दिया है. राज्य गठन की मूल अवधारणा ही यह थी कि छोटी विधानसभा और प्रशासनिक इकाइयां होंगी तो तेजी से विकास होगा. राज्य गठन के बाद पर्वतीय क्षेत्रों में छोटी विधान सभाओं के गठन को देखकर लग भी रहा था कि दूर गांवों में बैठे ग्रामीण तक विकास की किरण पहुंचेगी, लेकिन जनसंख्या के आधार पर हुए परिसीमन ने इन पहाड़ी राज्य के विकास पर ब्रेक लगा दिया.
9 नवंबर 2000 को जब उत्तराखंड (तत्कालीन नाम उत्तरांचल) का गठन किया था. उत्तर प्रदेश से अलग हुए उत्तराखंड के हिस्से में विधानसभा और विधान परिषद दोनों को मिलाकर कुल 30 सीटें आई थीं, जिसमें से 19 पहाड़ की थी और बाकी मैदान की थी. प्रदेश की पहली अंतरिम सरकार इसी के आधार पर चुनी गई.
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2002 में हुआ पहला परिसीमन: उत्तराखंड के लिए यह भी एक ऐतिहासिक पहलू है कि पूरे देश में पहले परिसीमन आयोग का गठन होने से पहले ही नए राज्य उत्तराखंड का परिसीमन हो चुका था, जिसे राज्य के पहले चुनाव में लागू किया गया. उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव करवाने के लिए हुए इस परिसीमन को कुलदीप सिंह कमीशन के नाम से जाना जाता है. जिसके बाद उत्तराखंड को पहली दफा 70 सीटों में बांटा गया. इस परिसीमन में पहाड़ को 40 सीटें और मैदान को 30 सीटें मिली थी.
उत्तराखंड में पहला विधानसभा चुनाव 2002 में उसी परिसीमन के आधार पर हुआ था. इस चुनाव में 55 सीटें सामान्य, 12 अनुसूचित और 3 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित थीं. पहले चुनाव में उत्तराखंड में 53 लाख से ज्यादा मतदाता थे. जबकि, इस चुनाव में 54.34 प्रतिशत वोटिंग हुई थी.
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उत्तराखंड गठन के बाद 2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में कुलदीप सिंह कमीशन के परिसीमन के अनुसार गढ़वाल मंडल को 41 और कुमाऊं मंडल को 29 सीटें मिली थी. 2002 के विधानसभा चुनाव में कुल 927 प्रत्याशी मैदान में उतरे थे. 2002 के चुनाव में कुमाऊं की 29 सीटों में सबसे ज्यादा कांग्रेस ने 15 सीटों पर जीत हासिल की थी. वहीं, बीजेपी को 7 सीटें मिली थी. इसके अलावा यूकेडी ने 3, बसपा ने दो और दो सीटें निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीती.
उत्तराखंड में 2002 के बाद 2007 में पांच साल के अंतराल में ही दूसरा परिसीमन हुआ. यहां जानकारी के लिए बता दें कि 2004 में राष्ट्रीय स्तर परिसीमन आयोग का गठन हुआ था. इसके बाद उत्तराखंड में एक बार फिर परिसीमन की प्रक्रिया शुरू हुई. परिसीमन आयोग की फाइनल रिपोर्ट साल 2008 में आयोग को सौंपी गई, जिसके आधार पर उत्तराखंड में 2012 के विधानसभा चुनाव हुए.
यहां बता दें कि 2012 के परिसीमन का आधार 2001 की जनगणना थी. विधानसभा को लेकर जहां मैदानों में एक लाख से अधिक जनसंख्या को एक विधानसभा का मानक रखा गया तो वहीं पहाड़ों पर इसे घटाकर एक लाख से कम 85 हजार तक की जनसंख्या वाले क्षेत्र को एक विधानसभा बनाने का मानक रखा गया.
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हालांकि, इतनी रियायत रखने के बाद भी पहाड़ का नेतृत्व घटने लगा. 2002 के परिसीमन के आधार पर जहां पहाड़ में 40 और मैदान में 30 सीटें थी, वहीं 2012 के परिसीमन पहाड़ की 6 सीटें घटकर 34 रह गई और मैदान में 6 सीटें बढ़कर 30 से 36 हो गई. 2012 के परिसीमन में नंदप्रयाग और पिंडर जैसी कई विधानसभाओं को मर्ज कर दिया गया.
2012 के परिसीमन को लेकर ये भी कहा जाता है कि पिछड़ेपन, भौगोलिक और सामाजिक स्थिति की वजह से पहाड़ों को मिली छूट उससे छीन ली गई. परिणाम यह हुआ कि पहाड़ों में छह विधानसभा सीटें कम कर दी गई और मैदान में छह सीटें बढ़ गई. यह कांग्रेस की राज्य सरकार के कार्यकाल में हुआ, जिसे भाजपा का पूरा समर्थन प्राप्त था. यदि देश के अन्य पांच राज्यों की तरह उत्तराखंड की सरकार इस परिसीमन से इनकार करते हुए एक प्रस्ताव परिसीमन आयोग को भेज देती तो नया परिसीमन नहीं होता.
जानकारी के लिए बता दें कि परिसीमन आयोग ने जब उत्तराखंड में परिसीमन का खाका खींचा तो पहाड़ों से नौ सीटें कम करने का प्रस्ताव तैयार किया. यह कुछ अधिक लगने लगा तो खुद ही दस प्रतिशत वेरिएशन का प्रस्ताव कर छह सीटें कम कर दी.
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गौरतलब है कि 2002 में हुए परिसीमन में पहाड़ों को बीस प्रतिशत वेरिएशन देने की बात कही गई थी. जमीन पर देखें तो पहाड़ों को दस प्रतिशत का वेरिएशन का भी लाभ नहीं मिला, जिस पहाड़ की दुर्दशा के लिए उत्तराखंड राज्य की परिकल्पना की गई थी, अभी उसे जन्मे सात साल भी नहीं हुए थे कि हुक्मरानों ने मिलीभगत कर उसे अपने हाल पर छोड़ देने के इंतजाम कर दिए. पहाड़ों से छह सीटों का कम होना, उसकी बदहाली के चीथड़े करने से कम नहीं था. यही कारण है कि पहाड़ का नेतृत्व धीरे-धीरे खत्म होता चला गया.
उत्तराखंड में अब साल 2025-26 में विधानसभा सीटों का परिसीमन होगा. इस परिसीमन में पहाड़ में सीटें घटने की आशंका बनी हुई है. लोगों का कहना है कि सीटों का परिसीमन जनसंख्या के आधार पर होगा तो 2012 की तरह पहाड़ को नुकसान उठाना पड़ सकता है, तब पहाड़ पर विधानसभा की छह सीटें कम हुई थीं. 2012 के बाद पहाड़ से काफी लोगों का पलायन भी हुआ है.
वहीं, इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत कहते है कि उत्तराखंड में भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार 84.6 प्रतिशत भू-भाग पहाड़ का है, वहीं 14.6 प्रतिशत मैदानी भू-भाग है. आज स्थिति यह है कि 84.6 प्रतिशत भू-भाग में पलायन के कारण 42 प्रतिशत जनसंख्या और 14.6 प्रतिशत मैदानी भू-भाग में 58 प्रतिशत जनसंख्या निवास कर रही है.
जय सिंह रावत का कहना है कि प्रदेश बनने के बाद एक मात्र क्षेत्रीय दल यूकेडी (उत्तराखंड क्रांति दल) अपनी साख नहीं बचा पाया और सत्ता सुख के चलते केंद्रीय राजनीतिक दलों के साथ मिल गया. रावत कहते हैं कि केंद्रीय राजनीतिक दलों का विजन मैदान की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार होता है. वहीं, जो क्षेत्रीय दल होता है उसके पास स्थानीय मुद्दों की अच्छी परख रहती है, लेकिन हिमालयी राज्य उत्तराखंड की अवधारणा कहीं न कहीं अब मैदानी इलाकों में सिमट रही है.