देहरादून: भविष्य में होने वाले पेयजल संकट और नीचे गिरते भूजल स्तर को लेकर दुनिया भर के शोधकर्ता चिंतित हैं. भारत में भी कई शहरों में भूमिगत जल को लेकर चिंताएं जाहिर की जा रही हैं. उत्तराखंड समूचे उत्तर भारत की तकरीबन 80 फीसदी जलापूर्ति सतही जल ओर भूमिगत वाटर से करता है. ऐसे में खुद उत्तराखंड में भूमिगत जल की क्या स्थिति है? यह जानना बेहद जरूरी है.
उत्तराखंड भारी पेयजल किल्लत की ओर बढ़ रहा है. उत्तराखंड जल संस्थान की एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में 500 से ज्यादा जल स्रोत सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं, जो चिंता का विषय है. हालांकि, प्रदेश सरकार ने जल नीति घोषित कर वर्षा जल संग्रहण के साथ पारंपरिक स्रोतों को बचाने का लक्ष्य तय किया है, भूमिगत जल के साथ ही बारिश के पानी को संरक्षित करने की बात कही है. भूमिगत जल के लिहाज से उत्तराखंड के भौगोलिक परिक्षेत्र को तीन (दून वैली, भाबर और तराई) इलाकों में बांटा गया है.
पहला- दून वैली या दून घाटी. दून घाटी क्षेत्र में देहरादून जिले का पहाड़ी क्षेत्र को छोड़कर पूरा इलाका आता है, जिसमें कुछ हिस्सा हरिद्वार का भी शामिल हैं.
दूसरा- भाबर का क्षेत्र. भाबर क्षेत्र में उधम सिंह नगर के ऊपरी इलाका और नैनीताल जिले का पहाड़ी इलाका छोड़कर सभी क्षेत्र भूमिगत जल के लिहाज से भाबर के इलाकों में आते हैं. इसमें हल्द्वानी, रामनगर और नैनीताल के मैदानी इलाके शामिल हैं.
तीसरा- तराई के क्षेत्र. तराई के इलाकों की अगर हम बात करें, तो इसमें पूरा उधम सिंह नगर जिला और हरिद्वार जिले के सभी निचले इलाके, जिसमे नारसन, रुड़की, लक्सर आदि क्षेत्र शामिल हैं. ये सभी क्षेत्र भूमिगत जल के अंतर्गत तराई इलाके में आते हैं.
वहीं, इसके अलावा अगर हम पूरे पर्वतीय इलाकों की बात करें, तो यहां पर भूमिगत जल का कॉन्सेप्ट नहीं होता है, बल्कि पर्वतीय इलाकों में वाटर बोर्ड वहां पर मौजूद प्राकृतिक जल स्रोत (स्प्रिंग्स) के आधार पर पेयजल की उपलब्धता का आंकलन करता है.
उत्तराखंड में भूमिगत जल की स्थिति: केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय के अनुसार उत्तराखंड में भूमिगत जल के लिहाज से पाए जाने वाले तीन अलग-अलग क्षेत्रों में भूमिगत जल अलग-अलग गहराई पर मिलता है. देहरादून में मौजूद सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड के रीजनल डायरेक्टर प्रशांत कुमार राय (Regional Director Prashant Kumar Rai) ने बताया कि उत्तराखंड में मौजूद दून वैली, भाबर और तराई के इलाकों में अलग-अलग गहराई पर ग्राउंड वाटर यानी कि भूमिगत जल पाया जाता है.
प्रशांत कुमार राय के अनुसार पूरी दून वैली में ग्राउंड वाटर अधिकतम 91.5 मीटर पर पाया जाता है. भाबर क्षेत्र में ग्राउंड वाटर अधिकतम 160 मीटर पर और तराई के इलाकों में भूमिगत जल मात्र 5 मीटर से लेकर अधिकतम 10 से 12 मीटर पर मिल जाता है, यानी साफ है कि तराई के इलाकों में भूमिगत जल की उपलब्धता बेहद आसान और सरल है. जाहिर है कि तराई क्षेत्र में भूमिगत जल की स्थिति भी काफी हद तक अच्छी है.
देहरादून शहर ने पिछले एक दशक में बहुत तेज गति से प्रगति की है. यहां पर जनसंख्या वृद्धि और माइग्रेशन पापुलेशन के अलावा फ्लोटिंग पापुलेशन यानी कि कई लोग यहां पर काम करने के लिए आते हैं और यहां के संसाधनों का उपयोग करते हैं. भले हो वह यहां पर रहते ना हो. इन सभी परिस्थितियों से देहरादून शहर के भूमिगत जल यानी कि ग्राउंड वाटर पर गहरा असर पड़ा है.
देहरादून में पिछले 10 सालों में ग्राउंड वाटर 5 मीटर नीचे: प्रशांत कुमार राय बताते हैं कि पिछले एक दशक में देहरादून शहर में ग्राउंड वाटर (ground water level in dehradun) तकरीबन 5 मीटर नीचे गया है. उन्होंने देहरादून बसंत विहार में मौजूद अपने कार्यालय पर लगे मॉनिटरिंग स्टेशन के आंकड़ों का उदाहरण देते हुए बताया की बसंत विहार क्षेत्र में ग्राउंड वाटर पिछले 10 सालों में तकरीबन 5 और मीटर नीचे गया है. केवल देहरादून शहर ही नहीं बल्कि इसके अलावा हरिद्वार, बहादराबाद और भगवानपुर के ब्लॉक के ऊपरी इलाकों में पिछले 10 सालों में ग्राउंड वाटर 5 मीटर और नीचे गया है. इन इलाकों में ग्राउंड वाटर 35 से 38 मीटर पर मिल जाता है.
हर 4 साल में होता है ग्राउंड वाटर का सर्वे: केंद्रीय जल बोर्ड द्वारा हर 4 साल में भूमिगत जल को लेकर सर्वे किया जाता है. आखिरी बार जल बोर्ड ने सर्वे 2020 में किया गया था. इस सर्वे में उत्तराखंड के 4 मैदानी जिलों के इन सभी 18 विकासखंडों में सर्व किया गया, जो को मैदानी इलाकों में पड़ते हैं. सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड द्वारा किए जाने वाले इस सर्वे में बोर्ड वाटर रिचार्ज और कंजप्शन यानी दोहन के आधार पर चार अलग-अलग जोन निर्धारित करता है, जो की इस तरह से होते हैं.
ग्राउंड वाटर के लिहाज 4 ब्लॉक सेमी क्रिटिकल जोन में: सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड के रीजनल डायरेक्टर प्रशांत कुमार राय बताते हैं कि यह उत्तराखंड के लिए अच्छी बात है कि साल 2020 में हुए ग्राउंड वाटर के सर्वे में 18 ब्लॉक में से 14 ब्लॉक सेफ जोन में आते हैं. लेकिन 4 ब्लॉक बहादराबाद, भगवानपुर, हल्द्वानी और काशीपुर ऐसे विकासखंड है, जो कि तीसरी कैटेगरी यानी कि सेमी क्रिटिकल जोन में आते हैं. मतलब साफ है कि इन क्षेत्रों में भूमिगत जल का 70 फीसदी दोहन किया जा रहा है. इसी रफ्तार से ग्राउंड वाटर का दोहन होता रहा तो आने वाले समय में इन जगहों पर भूमिगत जल की बेहद बुरी स्थिति होने वाली है.
जल संस्थान के आंकड़े: उत्तराखंड जल संस्थान की जीएम नीलिमा गर्ग ने बताया कि देहरादून में रोजाना 276 एमएलडी पानी की जरूरत होती है, उसके सापेक्ष जल संस्थान 241 एमएलडी पानी ही लोगों को दे पा रहा है, बाकी पानी की जरूरत लोग खुद ही पूरी करते हैं. उधम सिंह नगर में 27.3 एमएलडी की डिमांग है, उसके सापेक्ष जल संस्थान 10 एमएलडी पानी मुहैय्या करा करा है, क्योंकि उधम सिंह नगर में कई लोगों ने अपने निजी हैंडपंप भी लगाए हुए हैं, जिससे पेयजल की आपूर्ति होती है. हरिद्वार में रोजाना 80 एमएलडी की डिमांड है, उसके सापेक्ष जल संस्थान के पास 112 एमएलडी पानी होता है.
नीलिमा गर्ग ने बताया कि हर साल गर्मियों में ग्राउंड वाटर काफी नीचे चला जाता है, जिससे कई ट्यूबवेल सूख जाते हैं. ऐसे में जल संस्थान को उन ट्यूबवेल के पाइप की लंबाई बढ़ानी पड़ती है. ऐसा ही नवादा में होता है. उन्होंने लोगों से अपील करते हुए कहा है कि गर्मियों में पेयजल को सिर्फ पीने के लिए ही इस्तेमाल करना चाहिए. पेड़ों और पौधों की सिंचाई के लिए भी पेयजल का इस्तेमाल ना करें, तो बेहतर होगा.
कैसे बचेगा भूमिगत जल: प्रशांत कुमार राय ने बताया कि प्रदेश में भूमिगत जल की स्थिति में सुधार लाने के लिए तमाम तरह के प्रयास किए जा रहे हैं. इसमें सबसे बड़ा प्रयास आजादी के 75वीं वर्षगांठ में मनाया जा रहे अमृत महोत्सव के तत्वाधान में हर जिले में 75 अमृत तालाबों का पुनः निर्माण की प्रक्रिया शुरू की जा रही है, जिससे कि भूमिगत जल की स्थिति को बेहतर करने में काफी सुविधा मिलेगी.
इसके अलावा देहरादून जैसे शहरों में भूमिगत जल के लिए ट्यूबवेल लगाना बेहद खर्चीला है, यहां पर जमीन के नीचे से पानी निकालने में काफी मशक्कत लगती है. ऐसे में हमें रेन वाटर हार्वेस्टिंग (Rainwater harvesting) को लेकर गंभीरता से सोचना होगा. उनका कहना है कि हमें सतही जल को बचाने के लिए सामूहिक प्रयास से कुछ बड़े कदम उठाने की जरूरत है, जिनमें वर्षा जल संरक्षण के अलावा एक मीटर व्यवस्था भी है.
उन्होंने कहा कि हमें भले ही पानी का चार्ज बेहद कम रखना चाहिए लेकिन इसके लिए हमें मीटर व्यवस्था चालू करनी चाहिए, ताकि हर एक व्यक्ति मानसिक रूप से भी पानी को बचाने का प्रयास करें. तराई के इलाकों में भूमिगत जल के संरक्षण के लिए हमें फसलों का उत्पादन करना चाहिए, ताकि हमारी फसलों के साथ-साथ हमारी धरती में भी तरावत बनी रहे.
बड़े खतरे की ओर संकेत: चेन्नई में पहले खूब पानी हुआ करता था लेकिन इसकी दुर्दशा का कारण है कि अब चेन्नई में हर जगह सीमेंट की सड़क बन गई है. कही भी खाली जगह नहीं बची है, जिससे कारण ग्राउंड वाटर रिचार्ज हो सके. बारिश का पानी भी सड़क और नाली से बह कर चला जाता है, जिससे पानी धरती में नहीं जा पाता. साल 2019 में देश का पहला ऐसा शहर बन गया जहां भूमिगत जल पूरी तरह समाप्त हो गया. चेन्नई में भूमिगत जल 2000 फीट यानी 609 मीटर से ज्यादा नीचे चला गया. चेन्नई में कहीं-कहीं यह वाटर लेवल 700 मीटर से भी ज्यादा पाया गया.
नीति आयोग की रिपोर्ट: ग्राउंड वाटर लेवल पर आधारित नीति आयोग रिपोर्ट में कहा गया था कि चेन्नई में ग्राउंड वाटर लगभग खत्म होने की कगार पर है. यही स्थिति कुछ सालों में यही स्थिति बेंगुलुरु और मुंबई की होने वाली है. उसके बाद कुछ सालों में यही हालत दिल्ली और हैदराबाद समेत देश के कई बड़े शहरों की होने वाली है. उस लिहाज से देखें तो उत्तराखंड में उसी बेल्ट में आता है. हालांकि, उत्तराखंड के पास तमाम वाटर सिसोर्स हैं. फिर भी हमें इस ओर ध्यान देने की जरूरत है.