देहरादून: उत्तराखंड में चुनावी मौसम है और हर पार्टी अपने वोटरों को लुभाने में लगी हुई है, लेकिन आंकड़े उत्तराखंड की कहानी कुछ और ही बयां कर रहे हैं. अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखंड से करीब 60 प्रतिशत आबादी यानी 32 लाख लोग अपना घर छोड़ चुके हैं. पलायन आयोग की रिपोर्ट कहती है कि 2018 में उत्तराखंड के 1,700 गांव भुतहा हो चुके हैं, जबकि करीब एक हजार गांव ऐसे हैं, जहां 100 से कम लोग बचे हैं. ऐसे में कुल 3900 गांवों से पलायन हुआ है.
दरअसल, पलायन का दंश झेल रहे उत्तराखंड में वर्ष 2017 में भाजपा की सरकार बनने के बाद पलायन के कारणों और इसकी रोकथाम के लिए सुझाव देने के लिए ग्राम्य विकास विभाग के अंतर्गत पलायन आयोग का गठन किया गया. आयोग ने इस संबंध में प्रदेश के सभी गांवों का सर्वे कर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी. जिसमें मुख्य रूप से पलायन के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार प्रमुख कारण बनकर सामने आया.
वापस लौट रहे लोग: सरकार पलायन रोकने के लिए अपने स्तर पर कई योजनाएं शुरू कीं, लेकिन स्थितियां आज भी नहीं बदली हैं. राज्य में पलायन का दौर अब भी जारी है. बीते वर्ष कोरोना काल में तमाम प्रवासी लौटकर अपने गांव पहुंचे. सरकार की तरफ से कहा जा रहा था कि अब इनमें से अधिकतर लोग वापस नहीं जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. रोजगार की कमी के कारण इनमें से अधिकतर लोग वापस महानगरों का रुख कर गए हैं.
क्या है इस पलायन का कारण? गांवों में रहने वाले लोगों का कहना है कि पलायन का सबसे बड़ा कारण बेरोजगारी है. लोगों को जब रोजगार नहीं मिलता है, तो वो अपने गांव छोड़कर मैदानों की तरफ जाते रहे हैं. पलायन के मुद्दे का सीधे तौर पर बेरोजगारी के साथ जुड़ जाना सियासी पार्टियों के बीच बयानों की रस्साकशी के लिए खुराक बन गया है.
औद्योगिक विकास का मॉडल नहीं रोक पाया: राज्य गठन के बाद उत्तराखंड में औद्योगिक विकास की रफ्तार बढ़ी है, लेकिन औद्योगिक विकास का ये मॉडल पहाड़ों से पलायन नहीं रोक पाया. प्रदेश का औद्योगिक विकास मैदानी जिलों तक सीमित रहा. अवस्थापना विकास, कनेक्टिविटी समस्या और आपदा जैसी चुनौती के आगे पहाड़ों में उद्योग स्थापित नहीं हो पाए. राज्य बनने के बाद 21 साल में 49 हजार से अधिक लघु एवं सूक्ष्म उद्योग स्थापित हुए, जिससे राज्य की जीडीपी में उद्योग क्षेत्र की हिस्सेदारी 19.2 प्रतिशत से बढ़कर 49 प्रतिशत हो गई है.
राज्य गठन के समय के हालात: 9 नवंबर 2000 को राज्य गठन के समय उत्तराखंड में 14,163 लघु एवं सूक्ष्म और 46 बड़े उद्योग ही स्थापित थे. वर्ष 2003 में विशेष औद्योगिक प्रोत्साहन पैकेज के बाद राज्य में औद्योगिक विकास ने रफ्तार पकड़ी है. 21 साल में उत्तराखंड ने औद्योगिक विकास में तरक्की की है. जिससे राज्य सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उद्योग क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ी है. इसमें विनिर्माण क्षेत्र का योगदान लगभग 36 प्रतिशत है.
पहाड़ के लोगों के लिए पलायन नया शब्द नहीं: उत्तराखंड के लिए पलायन शब्द नया नहीं है, लेकिन राजनीतिक दल इस शब्द को हर 5 साल में नए रूप और नई कार्ययोजना के साथ जनता के सामने पेश जरूर कर देते हैं. साल 2017 में भाजपा ने भी पलायन पर कुछ ऐसे ही वादे अपने दृष्टिपत्र में किए थे, जिससे भाजपा सरकार फिलहाल कोसों दूर नजर आती है. जाहिर है कि भाजपा के लिए यह 5 साल अपने इन वादों को पूरा करने में कम ही साबित हुए हैं. उत्तराखंड में चुनाव से पहले पलायन पर चर्चा बेहद जरूरी है और ये भी जानने की जरूरत है कि पिछले 5 साल में बीजेपी सरकार में पलायन को दूर करने के लिए कितने प्रयास सफल हुए.
2017 में बीजेपी का मेनिफेस्टो: बीजेपी ने विजन डॉक्यूमेंट 2017 के रूप में अपना घोषणा पत्र जारी किया था. इस घोषणा पत्र में भाजपा ने युवा, रोजगार, पलायन जैसे अहम मुद्दों को तरजीह दी है. मेनफेस्टो के जरिए भाजपा ने कहा कि यदि प्रदेश में उनकी सरकार बनती है तो रिक्त पदों पर 6 माह में भर्तियां हो जाएंगी. लेकिन, पलायन आयोग की रिपोर्ट इन दावों को साफ झूठला रहीं हैं.
सरकार बनते ही बनाया गया पलायन आयोग: उत्तराखंड में भाजपा की सरकार बनने के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री बने और उन्होंने पलायन को लेकर अपनी गंभीरता भी दिखाई. शायद यही कारण था कि उन्होंने राज्य में पलायन के कारणों को जानने और रोकथाम के लिए ग्रामीण विकास विभाग के अंतर्गत पलायन आयोग का गठन किया और इसकी जिम्मेदारी पूर्व नौकरशाह डॉ. एसएस नेगी को दी. इसके अलावा सरकार ने मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना शुरू की, जिसमें राज्य में पहले चरण में 474 प्रभावित गांवों में बेरोजगार युवाओं और गांव में लौटे युवाओं को स्वरोजगार देने के लिए साल 2020-21 में कुल 18 करोड़ की धनराशि स्वीकृत की.
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पलायन के आंकड़े: आयोग ने पलायन के कारणों पर भी प्रकाश डाला. कुल मिलाकर देखें तो पलायन के लिए रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि पैदावार की कमी और जंगली जानवरों से होते नुकसान के साथ बिजली पानी और सड़क को मुख्य वजह माना गया. आनुपातिक रूप से देखें तो करीब 50% से ज्यादा लोगों ने रोजगार न मिलने के कारण पलायन किया. उनमें 10% लोग ऐसे थे, जो शिक्षा की अव्यवस्था के चलते पलायन कर गए. उधर, 7% लोगों ने स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण पलायन किया. रिपोर्ट को मोटा-मोटा देखा जाए तो कृषि पैदावार और जंगली जानवरों से होते नुकसान के कारण भी करीब 10% लोगों ने पलायन किया. उधर, बिजली, पानी और सड़क की परेशानियों के कारण भी 3% लोग पलायन कर गए.
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कई लोग ऐसे थे, जिन्होंने दूसरे का देखा-देखी और आर्थिक संपन्नता के कारण भी पलायन किया. ऐसे लोगों की संख्या भी 3% के करीब रही. पलायन का क्षेत्र के रूप में देखें तो रिपोर्ट बताती है कि पलायन करने वालों में करीब 25 से 30% लोग ऐसे थे, जिन्होंने प्रदेश के ही दूसरे जिले में या मैदानी जिलों में पलायन किया. उधर, 15 से 20% लोग राज्य से बाहर पलायन करके गए जबकि, 10 से 15% लोग ऐसे भी थे, जो गांव से पास के ही किसी कस्बे में पलायन कर गए.
रोजगार सबसे बड़ा कारण: उत्तराखंड में रोजगार पलायन का सबसे बड़ा कारण था. अपने घोषणा-पत्र में सरकार बनने के 6 महीने में ही सभी खाली पद भरने का वादा सरकार ने किया था. लेकिन अपने इस वादे की याद भाजपा सरकार को चौथे साल में याद आई. वहीं, स्वरोजगार की योजनाएं तो चलाई गई. लेकिन उसमें बहुत ज्यादा युवाओं ने हाथ नहीं आजमाए. उद्योग धंधों को प्रदेश में लाने की बात करें तो त्रिवेंद्र सरकार ने राज्य में पहली बार इंवेस्टर्स समिट किया. जिसमें 1,25,000 करोड़ के एमओयू साइन हुए. हालांकि, करीब 20,000 से 30,000 करोड़ के एमओयू ही धरातल पर उतर रहे हैं. ये समिट उम्मीद के मुताबिक उतना सफल नहीं हो पाया. समिट में सबसे बड़ी कमी ये रही कि उद्योगों को राज्य में केवल मैदानी जिलों तक ही सीमित रखा गया. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि विषम भौगोलिक परिस्थिति के कारण उद्योगपति पहाड़ों पर उद्योगों को स्थापित नहीं करना चाहते.
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पहाड़ों पर सहूलियत नहीं दे पाई सरकार: उधर, राज्य सरकारें भी पहाड़ों पर वह सहूलियत पैदा नहीं कर पाई, जिससे उद्योगपति पहाड़ों का रुख करें. राज्य स्थापना के दौरान प्रदेश में केवल 46 बड़े उद्योग थे और 700 करोड़ रुपए के इन्वेस्टमेंट वाले लघु और सूक्ष्म उद्योगों की संख्या 14 हजार के करीब थी. कांग्रेस की एनडी तिवारी सरकार के दौरान इस दिशा में काफी अच्छा प्रयास हुए और औद्योगिक पैकेज की सहूलियत के साथ उद्योगों ने राज्य का रुख किया.
सरकार की तरफ से कृषि सेक्टर में भी सब्सिडी से लेकर लोन की सहूलियत देने की कोशिश की गई. होम स्टे से लेकर कृषि, ऊर्जा और दूसरे विभागों मे स्वरोजगार के लिए लोगों को प्रेरित करने की भी कोशिश हुई. हालांकि, यह कोशिशें धरातल पर कितनी हुई इसकी तस्दीक तो जनता ही कर सकती है.
राज्य में उद्योगों की स्थिति: फिलहाल, उद्योगों की स्थिति देखें तो राज्य में करीब 327 बड़े उद्योग हैं जबकि, 49 हजार से ज्यादा लघु और सुख उद्योग है जिनमें करीब 12500 करोड़ से ज्यादा का निवेश है. इस तरह करीब 30,0000 युवा इन उद्योगों में रोजगार पा रहे हैं, लेकिन इनमें अधिकतर मैदानी जिलों में ही हैं. इसी कारण पहाड़ी जिलों से युवा मैदान की तरफ या दूसरे राज्यों की तरफ पलायन कर रहे हैं.
बदहाल स्वास्थ्य सेवाएं पलायन का प्रमुख कारण: पहाड़ों में बदहाल स्वास्थ्य सेवाएं भी पहाड़ से पलायन का बड़ा कारण थीं. लोगों को छोटी-छोटी दवा और इलाज के लिए घंटों सफर करना पड़ा था. लेकिन, कोरोना काल के बाद प्रदेश सरकार स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत करने की दिशा में काम कर रही है. आज प्रदेश में ऑक्सीजन प्लांट से लेकर वेंटिलेटर्स और विभिन्न प्रकार की जांच के लिए नई लैब स्थापित की गई हैं.
इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कोरोना से पहले प्रदेश में केवल 1200 आइसोलेशन बेड थे, जिनकी संख्या अब बढ़कर 27,186 पहुंच चुकी है. पहले केवल केवल जिला चिकित्सालय में ही आइसीयू (इंटेंसिव केयर यूनिट) थे. अब प्रदेश में 1655 आइसीयू हैं. वेंटिलेटर की संख्या भी 116 से बढ़कर 1016 हो गई है. वहीं, ऑक्सीजन सिलेंडर की संख्या 1193 से बढ़कर 22,420 और ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर की संख्या 275 से बढ़कर 9838 पहुंच चुकी है. राज्य में पहले केवल एक ऑक्सीजन जनरेशन प्लांट था, जिनकी संख्या आज 87 हो चुकी है.
पलायन रोकने के लिए उत्तराखंड को एक नए आर्थिक विकास के मॉडल की जरूरत है. जिसमें औद्योगिक विकास के साथ-साथ पहाड़ों पर बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना भी शामिल है. आयोग की रिपोर्ट मिलने के बाद सरकार ने पलायन की रोकथाम के लिए मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना लॉन्च की है. इसके अंतर्गत ग्राम्य विकास समेत विभिन्न विभागों की योजनाओं को लाया गया, ताकि गांवों में मूलभूत सुविधाएं जुटाने की रफ्तार तेज की जा सके.