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आग बुझाने के पारंपरिक तरीकों को भूला वन महकमा, नई फायर लाइन बनाने में नहीं रुचि

उत्तराखंड में हर साल वनाग्नि की समस्या विकराल होती जा रही है. वनाग्नि के नाम पर हर साल सरकार और वन विभाग करोड़ों रुपए फूंक देते हैं, लेकिन नतीजा शून्य ही निकलता है. उत्तराखंड का वन विभाग भी अन्य देशों की तरह जंगल की आग पर काबू पाने के नये-नये तरीके खोज कर रहा है, लेकिन सालों पुरानी तरकीब भूलता जा रहा है. इसका परिणाम वन्यजीवों और प्रदेश की जनता को भुगताना पड़ रहा है.

Forest department
वनाग्नि की समस्या विकराल
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Published : May 13, 2022, 1:40 PM IST

Updated : May 13, 2022, 4:31 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड में बदले मौसम के मिजाज ने भले ही प्रदेश के वनों में धधकती अग्नि (forest fire) को शांत कर दिया हो, लेकिन यह खतरा प्रदेश के लिए टला नहीं है. इस बीच वन महकमा (Forest department) आग पर काबू पाने के लिए नए तरीकों को तो खोज रहा है, लेकिन सालों साल से चले आ रहे पारंपरिक तरीकों को महकमा भूल सा गया है. स्थिति यह है कि पिछले लंबे समय से फायर लाइन पर विभाग ने कुछ खास कदम नहीं बढ़ाए हैं. नतीजतन जंगलों में आग की घटनाएं शुरू होते ही वन विभाग के अधिकारी बेबस नजर आने लगते हैं.

दुनिया भर में जंगलों की आग को काबू में रखने के लिए भले ही कई तकनीकों का उपयोग किया जा रहा हो, लेकिन एक पारंपरिक तरीका (traditional methods of extinguishing forest fire) जिसे आज भी तमाम हाईटेक तकनीकों के आने के बावजूद दुनिया के विकसित देश भी अपनाते आये हैं, वो है फायर लाइन तकनीक का इस्तेमाल. हालांकि उत्तराखंड के जंगलों में भी इस तरीके को अपनाया जा रहा है, लेकिन पिछले कई सालों से जिन फायर लाइन को तैयार किया गया है, बस उन्हीं के भरोसे वन विभाग दिखाई देता है. इस पर भी वन विभाग तब सक्रिय होता है, जब जंगलों में आग की घटनाएं शुरू हो जाती हैं और आनन-फानन में फायर लाइन को साफ करने का काम विभाग के कर्मचारी करते हैं.

आग बुझाने के पारंपरिक तरीकों को भूला वन महकमा.
पढ़ें- रुद्रप्रयाग: आवासीय क्षेत्रों तक पहुंची वनाग्नि, तापमान में 0.9 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि

आंकड़ों के जरिए जानिए फायर लाइन की स्थिति: राज्य में फायर लाइन (fire line) को वर्गीकृत किया गया है. जिसमें 100, 50 और 30 फीट के साथ ही सड़कों के किनारे भी फायर लाइन तैयार होती हैं. राज्य में फायर लाइन की स्थिति देखें तो 2876.49 किलोमीटर क्षेत्र में 100 फीट की फायर लाइन बनी हुई है. 50 फीट की फायर लाइन की लंबाई 2520 किलोमीटर है, जबकि 30 फीट की फायर लाइन 1333.43 किलोमीटर पर फैली हुई है. क्षेत्र के लिहाज से देखें तो कुमाऊं जोन में करीब 3000 किलोमीटर क्षेत्र में फायर लाइन है. गढ़वाल जोन में करीब 2500 किलोमीटर फायर लाइन है. उधर वन्यजीव क्षेत्र में 1100 किलोमीटर फायर लाइन है.

पिछले 10 सालों में हुआ नुकसान: साल 2011 से 2021 तक का आंकड़ा लिया जाए तो राज्य में पिछले 10 साल के दौरान वानाग्नि की करीब दस हजार घटनाएं हुई हैं. इन दस हजार घटनाओं से 20 हजार हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुए हैं. यानी राज्य को इससे अब तक करोड़ों का नुकसान हो चुका है. सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार 12 से ज्यादा लोगों की इसमें मौत हो चुकी है और 65 लोग घायल भी हुए हैं.
पढ़ें- सिर पर फायर सीजन, वन विभाग में कर्मियों का टोटा, वॉचरों के कंधे पर जिम्मेदारी

फायर लाइन बनाने में तकनीकी समस्याएं: राज्य में फायर लाइन बनाने को लेकर कुछ तकनीकी समस्याएं भी हैं. दरअसल 1000 मीटर से ऊपर स्थानों पर पेड़ों के काटने को लेकर रोक है. लिहाजा यहां नई फायर लाइन नहीं बनाई जा सकती. उधर, वन विभाग जंगलों में आग की घटनाओं को रोकने के लिए 12 महीने काम नहीं करता. इस कारण प्रदेश में करीब 12 हजार से ज्यादा किलोमीटर की फायर लाइन को साफ नहीं किया जाता. जबकि राज्य में चीड़ के जंगल बहुतायत में हैं. इनकी पत्तियां फायर लाइन पर इकट्ठा हो जाती हैं, जिससे फायर लाइन का महत्व ही खत्म हो जाता है.

यही नहीं फायर लाइन पर कई जगह पेड़ भी उग गए हैं और इनको न काट पाने की पाबंदी के चलते यह पारंपरिक तरीका फेल होता जा रहा है. हालांकि वन मंत्री सुबोध उनियाल कुछ नए तरीकों पर काम करने की बात कह रहे हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि पारंपरिक तरीके में रुचि न लेने वाले वन विभाग में नई तरीके कितने काम आ पाएगी.

देहरादून: उत्तराखंड में बदले मौसम के मिजाज ने भले ही प्रदेश के वनों में धधकती अग्नि (forest fire) को शांत कर दिया हो, लेकिन यह खतरा प्रदेश के लिए टला नहीं है. इस बीच वन महकमा (Forest department) आग पर काबू पाने के लिए नए तरीकों को तो खोज रहा है, लेकिन सालों साल से चले आ रहे पारंपरिक तरीकों को महकमा भूल सा गया है. स्थिति यह है कि पिछले लंबे समय से फायर लाइन पर विभाग ने कुछ खास कदम नहीं बढ़ाए हैं. नतीजतन जंगलों में आग की घटनाएं शुरू होते ही वन विभाग के अधिकारी बेबस नजर आने लगते हैं.

दुनिया भर में जंगलों की आग को काबू में रखने के लिए भले ही कई तकनीकों का उपयोग किया जा रहा हो, लेकिन एक पारंपरिक तरीका (traditional methods of extinguishing forest fire) जिसे आज भी तमाम हाईटेक तकनीकों के आने के बावजूद दुनिया के विकसित देश भी अपनाते आये हैं, वो है फायर लाइन तकनीक का इस्तेमाल. हालांकि उत्तराखंड के जंगलों में भी इस तरीके को अपनाया जा रहा है, लेकिन पिछले कई सालों से जिन फायर लाइन को तैयार किया गया है, बस उन्हीं के भरोसे वन विभाग दिखाई देता है. इस पर भी वन विभाग तब सक्रिय होता है, जब जंगलों में आग की घटनाएं शुरू हो जाती हैं और आनन-फानन में फायर लाइन को साफ करने का काम विभाग के कर्मचारी करते हैं.

आग बुझाने के पारंपरिक तरीकों को भूला वन महकमा.
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आंकड़ों के जरिए जानिए फायर लाइन की स्थिति: राज्य में फायर लाइन (fire line) को वर्गीकृत किया गया है. जिसमें 100, 50 और 30 फीट के साथ ही सड़कों के किनारे भी फायर लाइन तैयार होती हैं. राज्य में फायर लाइन की स्थिति देखें तो 2876.49 किलोमीटर क्षेत्र में 100 फीट की फायर लाइन बनी हुई है. 50 फीट की फायर लाइन की लंबाई 2520 किलोमीटर है, जबकि 30 फीट की फायर लाइन 1333.43 किलोमीटर पर फैली हुई है. क्षेत्र के लिहाज से देखें तो कुमाऊं जोन में करीब 3000 किलोमीटर क्षेत्र में फायर लाइन है. गढ़वाल जोन में करीब 2500 किलोमीटर फायर लाइन है. उधर वन्यजीव क्षेत्र में 1100 किलोमीटर फायर लाइन है.

पिछले 10 सालों में हुआ नुकसान: साल 2011 से 2021 तक का आंकड़ा लिया जाए तो राज्य में पिछले 10 साल के दौरान वानाग्नि की करीब दस हजार घटनाएं हुई हैं. इन दस हजार घटनाओं से 20 हजार हेक्टेयर जंगल प्रभावित हुए हैं. यानी राज्य को इससे अब तक करोड़ों का नुकसान हो चुका है. सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार 12 से ज्यादा लोगों की इसमें मौत हो चुकी है और 65 लोग घायल भी हुए हैं.
पढ़ें- सिर पर फायर सीजन, वन विभाग में कर्मियों का टोटा, वॉचरों के कंधे पर जिम्मेदारी

फायर लाइन बनाने में तकनीकी समस्याएं: राज्य में फायर लाइन बनाने को लेकर कुछ तकनीकी समस्याएं भी हैं. दरअसल 1000 मीटर से ऊपर स्थानों पर पेड़ों के काटने को लेकर रोक है. लिहाजा यहां नई फायर लाइन नहीं बनाई जा सकती. उधर, वन विभाग जंगलों में आग की घटनाओं को रोकने के लिए 12 महीने काम नहीं करता. इस कारण प्रदेश में करीब 12 हजार से ज्यादा किलोमीटर की फायर लाइन को साफ नहीं किया जाता. जबकि राज्य में चीड़ के जंगल बहुतायत में हैं. इनकी पत्तियां फायर लाइन पर इकट्ठा हो जाती हैं, जिससे फायर लाइन का महत्व ही खत्म हो जाता है.

यही नहीं फायर लाइन पर कई जगह पेड़ भी उग गए हैं और इनको न काट पाने की पाबंदी के चलते यह पारंपरिक तरीका फेल होता जा रहा है. हालांकि वन मंत्री सुबोध उनियाल कुछ नए तरीकों पर काम करने की बात कह रहे हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि पारंपरिक तरीके में रुचि न लेने वाले वन विभाग में नई तरीके कितने काम आ पाएगी.

Last Updated : May 13, 2022, 4:31 PM IST
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