देहरादून: उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2022 के परिणाम आ चुके हैं. देवभूमि में बीजेपी की 47 सीटें जीतकर सरकार बनाने जा रही है. हालांकि, कांग्रेस को इस बार भी सत्ता का सुख नहीं मिल पाया है. कुल मिलाकर कहा जाए तो उत्तराखंड चुनाव में एक बार फिर मोदी का जादू जमकर चला. चुनाव से पहले बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के नेताओं ने उत्तराखंड में खूब पसीना बहाया था. हालांकि, इस चुनाव में कुछ नेताओं को बगावत का फायदा मिला है, तो कुछ नेताओं को फजीहत झेलनी पड़ी है. इन बागी नेताओं में यशपाल आर्य, हरक सिंह रावत, किशोर उपाध्याय जैसे बड़े नाम शामिल थे.
किशोर उपाध्याय
उत्तराखंड में दलबदलू नेताओं की बात करें तो सबसे पहला नाम आता है पूर्व पीसीसी अध्यक्ष किशोर उपाध्याय का. कांग्रेस से 45 साल का नाता तोड़कर बीजेपी में शामिल हुए किशोर उपाध्याय को टिहरी विधानसभा से 791 वोट से जीत हासिल हुई है. किशोर उपाध्याय ने 19191 वोट से जीत दर्ज की है, जबकि उत्तराखंड जन एकता पार्टी के दिनेश धनै 18400 वोट पाकर दूसरे नंबर पर रहे.
राजनीति सफर: किशोर उपाध्याय के राजनीतिक सफर की बात करें तो यह गांधी परिवार के काफी करीबी रहे हैं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जब यूपी के अमेठी से चुनाव लड़े थे तो किशोर उपाध्याय ने इस चुनाव में अहम भूमिका निभाई थी लेकिन कांग्रेस के भीतर लगातार अपेक्षा के चलते किशोर काफी समय से नाराज चल रहे थे. ऐसे में उन्होंने कांग्रेस से अपना 45 साल का रिश्ता तोड़ भाजपा का दामन थाम लिया.
उत्तराखंड राज्य आंदोलन में भी किशोर उपाध्याय काफी सक्रिय रहे थे. राज्यगठन के बाद साल 2002 में पहले विधानसभा चुनाव में किशोर उपाध्याय टिहरी सीट से विधायक चुने गए और इन्हें एनडी तिवारी सरकार में औद्योगिक राज्य मंत्री बनाया गया. वहीं, 2007 के विधानसभा चुनाव में भी किशोर लगातार दूसरी बार टिहरी से विधायक चुने गए. जबकि, 2012 के विधानसभा चुनाव में किशोर उपाध्याय टिहरी सीट से निर्दलीय प्रत्याशी दिनेश धनै से महज 377 वोटों के मामूली मार्जिन से चुनाव हार गए.
वहीं, साल 2014 में किशोर उपाध्याय को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया और साल 2017 तक किशोर इस पद पर बने रहे. 2017 के विधानसभा चुनाव में किशोर उपाध्याय ने देहरादून की सहसपुर विधान सभा सीट से चुनाव लड़ा, जहां बीजेपी के सहदेव सिंह पुंडीर ने उन्हें 18,863 वोटों के मार्जिन से शिकस्त दी थी.
धन सिंह नेगी
टिहरी विधानसभा सीट से सीटिंग विधायक रहे धन सिंह नेगी ने चुनाव से ठीक पहले पाला बदलकर कांग्रेस में चले गए उनको कुछ हासिल नहीं हुआ. इस चुनाव में धन सिंह नेगी 6149 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे. नेगी ने बीजेपी में किशोर उपाध्याय की एंट्री के बाद पार्टी को अलविदा कहकर कांग्रेस का हाथ थामा था. धन सिंह नेगी टिहरी विधानसभा सीट से अपना टिकट कटने से नाराज थे.
राजनीतिक सफर
धन सिंह नेगी के राजनीतिक सफर की बात करें तो नेगी साल 2009 से 2012 तक टिहरी गढ़वाल में आंचल मिल्क कोऑपरेटिव सोसाइटी के अध्यक्ष रह चुके हैं. वहीं, साल 2017 में धन सिंह नेगी ने बीजेपी के टिहरी के चुनाव लड़ा और इस सीट पर जीत हासिल की. नेगी ने इस चुनाव में अपने निकटतम प्रतिद्वंदी दिनेश धनै को 6840 वोटों के मार्जिन से हराया था.
यशपाल आर्य
कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में शुमार को यशपाल आर्य को दलबदल का फायदा मिला है. कांग्रेस की टिकट पर बाजपुर सीट से चुनाव लड़े यशपाल आर्य ने 1,479 वोट से जीत हासिल की है. यशपाल आर्य को 39,926 वोट मिले, जबकि बीजेपी प्रत्याशी राजेश कुमार 38,447 वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे.
राजनीतिक सफर
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले वरिष्ठ नेता यशपाल आर्य और उनके पुत्र संजीव आर्य बीजेपी का साथ छोड़कर कांग्रेस में घर वापसी की लेकिन जीत सिर्फ यशपाल आर्य को मिली है, जबकि उनके बेटे संजीव आर्य को बीजेपी की प्रत्याशी सरिता आर्य ने हरा दिया है. यशपाल के राजनीतिक सफर की बात करें तो उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी इन्हें राजनीति में लेकर आए थे. यशपाल ने ग्राम प्रधान के पद से अपना सियासी सफर शुरू किया. राज्यगठन के बाद से यशपाल आर्या लगातार विधानसभा चुनाव जीतते आ रहे हैं.
साल 2002 और 2007 के चुनाव में कांग्रेस नेता यशपाल आर्य मुक्तेश्वर विधानसभा से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. वहीं, साल 2012 में यशपाल आर्य ने बाजपुर विधानसभा सीट (अनुसूचित आरक्षित) से चुनाव जीता. वहीं, 2017 में दल बदल के बाद यशपाल आर्य ने बाजपुर सीट से ही बीजेपी के टिकट से चुनाव लड़ा और अपनी टिकटम प्रतिद्वंदी कांग्रेस प्रत्याशी सुनीता टम्टा को 12 हजार से ज्यादा वोटों से हराकर विधानसभा पहुंचे. वहीं, यशपाल आर्य की चुनाव से ठीक पहले घर वापसी की. वहीं, इस सीट से आम आदमी पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ रहीं सुनीता टम्टा 20009 वोटों के साथ तीसरे नंबर रही हैं.
संजीव आर्य
बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में वापसी के बाद संजीव आर्य को भी हार का सामना करना पड़ा है. नैनीताल सीट से कांग्रेस प्रत्याशी संजीव आर्य को बीजेपी प्रत्याशी सरिता आर्य ने 7,918 वोट से करारी शिकस्त दी है. बीजेपी प्रत्याशी सरिता आर्य ने 31,443 वोट पाकर जीत हासिल की है, जबकि संजीव आर्य को सिर्फ 23,525 वोट मिले हैं.
राजनीतिक सफर
संजीव आर्य के राजनीतिक सफर की बात करें तो साल 2006 से 2011 तक संजीव हल्द्वानी मंडी समिति के चेयरमैन रहे. वहीं, साल 2010-2012 में संजीव ने उत्तराखंड कांग्रेस कमेटी के मीडिया प्रभारी का पदभार संभाला. वहीं, 2013 से 2017 तक संजीव आर्य उत्तराखंड राज्य सहकारी बैंक के अध्यक्ष के पद पर रहे. 2017 में अपने पिता यशपाल आर्य के साथ संजीव भाजपा में शामिल हो गए और 2017 के चुनाव में संजीव नैनीताल सीट से अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़े. इस चुनाव में संजीव ने जीत हासिक की और कांग्रेस प्रत्याशी सरिता आर्य को 7,247 वोटों के अंतर से हराया था.
सुनीता टम्टा
कांग्रेस से टिकट नहीं मिलने पर सुनीता टम्टा को भी बगावत का कोई फायदा नहीं मिला है. बाजपुर सीट से आम आदमी पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ीं सुनीटा टम्टा को 20,009 वोट से ही संतोष करना पड़ा. सुनीता टम्टा बाजपुर के किसान नेता जगतार सिंह बाजवा की पत्नी हैं, जो 2017 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस की टिकट पर लड़ चुकी हैं. सुनीता टम्टा के राजनीतिक करियर की बात करें तो भाजपा व बाद इन्होंने कांग्रेस में रहते हुए अनेक दायित्वों का निर्वहन किया है.
संजय डोभाल
बागी नेताओं में संजय डोभाल का नाम भी शामिल है. कांग्रेस बगावत कर यमुनोत्री विधानसभा सीट से निर्दलीय मैदान में कूदे संजय डोभाल ने 6,372 वोट से जीत हासिल की है, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी दीपक बिजल्वाण 16038 वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे. वहीं, बीजेपी प्रत्याशी केदार सिंह रावत 10187 वोट के साथ तीसरे स्थान पर रहे.
राजनीतिक इतिहास
संजय डोभाल साल 2017 में कांग्रेस की टिकट से यमुनोत्री विधानसभा सीट से चुनाव लड़े थे. इस सीट से बीजेपी के सीटिंग विधायक केदार सिंह रावत को 2017 के चुनाव में संजय डोभाल ने अच्छी खासी टक्कर दी थी और डोभाल बेहद कम मार्जिन से हारे थे.
उत्तराखंड राज्य गठन के बाद अस्तित्व में आयी यमुनोत्री विधानसभा, गंगा घाटी और यमुना घाटी को जोड़ती है. इस विधानसभा में टिहरी झील (Tehri Jheel) के किनारे चिन्यालीसौड़ नगर पालिका है. यहां की खास बात ये है कि यहां का भूगोल और मतदाताओं का मूड इसे सबसे अलग करता है. 76 हजार मतदाताओं वाली इस विधानसभा के लोगों ने बीजेपी, कांग्रेस और निर्दलीय सभी नेताओं को मौका दिया है.
राजकुमार ठुकराल
रुद्रपुर विधानसभा सीट से बीजेपी की सीटिंग विधायक रहे राजकुमार ठुकराल को बीजेपी से बगावत महंगी पड़ी है. रुद्रपुर विधानसभा सीट से बीजेपी प्रत्याशी शिव अरोड़ा ने 60267 वोट के साथ जीत हासिल की है, जबकि निर्दलीय मैदान में कूदे राजकुमार को 26,602 वोट से संतोष करना पड़ा है. तो वहीं कांग्रेस की मीना शर्मा 39,596 वोट के साथ दूसरे स्थान पर रहीं.
राजनीतिक सफर
राजकुमार ठुकराल के राजनीतिक सफर की बात करें तो राजकुमार ठुकराल साल 1991 में पहली बार रुद्रपुर में छात्रसंघ अध्यक्ष पद पर निर्वाचित हुए और लगातार एक के बाद एक 3 सालों तक डिग्री कॉलेज के अध्यक्ष पद पर जीत हासिल करते रहे. साल 2003 में राजकुमार ठुकराल ने रुद्रपुर नगर पालिका के अध्यक्ष पद पर भारी मतों से निर्वाचित हुए थे.
साल 2012 में विपरीत राजनीतिक परिस्थितियों में राजकुमार ठुकराल ने पहला विधानसभा चुनाव लड़ा और पूर्व स्वास्थ्य मंत्री एवं लगातार 20 सालों से विधायक रहे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता तिलक राज बेहड़ को हराकर रुद्रपुर विधानसभा से जीत हासिल की. वहीं, 2017 में पूरे प्रदेश में सर्वाधिक मतों से जीत हासिल कर राजकुमार ठुकराल प्रदेश में एक नया कीर्तिमान स्थापित कर लगातार दूसरी बार रुद्रपुर के विधायक बने थे.
रेनू बिष्ट
विधानसभा चुनाव से ठीक कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थामने वाली रेनू बिष्ट को बड़ी जीत मिली है. रेनू बिष्ट ने कांग्रेस प्रत्याशी शैलेंद्र सिंह रावत को 9,891 वोट से हराया है. बीजेपी प्रत्याशी रेनू बिष्ट को 27,594 वोट मिले हैं जबकि कांग्रेस प्रत्याशी शैलेंद्र सिंह रावत को 17,703 वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहे हैं.
राजनीतिक करियर
रेनू बिष्ट के राजनीतिक करियर की बात करें तो रेनू बिष्ट ने पंचायत चुनाव से राजनीति में कदम रखा. वह 2007 से यमकेश्वर विधानसभा सीट से लगातार चुनाव लड़ती आ रही हैं. साल 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से टिकट न मिलने पर उन्होंने निर्दलीय ही इस सीट से ताल ठोकी थी. बीजेपी की रितु खंडूड़ी ने इस सीट पर जीत हासिल की थी और रेनू बिष्ट दूसरे स्थान पर रहीं.
यमकेश्वर विधानसभा सीट उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का गढ़ रही है. साथ ही यहां हर बार महिला प्रत्याशी ने ही जीत का परचम लहराया है. साल 2002 से लेकर 2017 के बीच कुल चार दफे इस सीट के लिए विधानसभा चुनाव हुए हैं और हर दफे इस सीट पर बीजेपी के उम्मीदवार काबिज रहे हैं. 2002 से 2012 तक बीजेपी की विजय बड़थ्वाल इस सीट से लगातार तीन बार विधायक रही थीं. वहीं, 2017 में बीजेपी की रितु खंडूड़ी ने इस सीट पर जीत हासिल की थी. इस बार भी यह सीट बीजेपी के खाते में गई है.
हरक सिंह रावत
उत्तरांखड में अपनी प्रेशर पॉलिटिक्स और दबंग अंदाज के लिए एक जाना-माना नाम है हरक सिंह रावत, जिन्होंने चुनाव से ठीक पहले बीजेपी को अलविदा कहकर कांग्रेस का दामन थाम लिया. हरक सिंह रावत ने इस बार खुद चुनाव न लड़ते हुए अपनी पुत्रवधू अनुकृति गुसाईं को लैंसडाउन विधानसभा सीट से चुनाव मैदान में उतारा लेकिन अनुकृति गुसाईं को बीजेपी के प्रत्याशी दलीप सिंह रावत ने 8,977 वोट से हरा दिया है. ऐसे में हरक सिंह रावत की साख को धक्का लगा है. दलीप सिंह रावत को 23,320 वोट मिले हैं, जबकि अनुकृति गुसाईं को 14,343 वोट मिले हैं.
हरक सिंह रावत के पॉलिटिकल करियर की बात करें तो श्रीनगर गढ़वाल विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाले हरक ने भाजपा व उसके आनुषांगिक संगठनों में कार्य किया. साल 1984 में पहली बार वह भाजपा के टिकट पर पौड़ी सीट से चुनाव लड़े, लेकिन सफलता नहीं मिली. इसके बाद साल1991 में उन्होंने पौड़ी सीट पर जीत दर्ज की और तब उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार में उन्हें पर्यटन राज्यमंत्री बनाया गया. उस समय वे सबसे कम आयु के मंत्रियों में शामिल थे.
राज्य गठन के बाद साल 2002 में हुए राज्य विधानसभा के पहले चुनाव में वह कांग्रेस के टिकट पर लैंसडाउन सीट से जीत दर्ज करने में सफल रहे. तब नारायण दत्त तिवारी सरकार में उन्हें मंत्री पद मिला, लेकिन बहुचर्चित जैनी प्रकरण के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. साल 2007 में हरक सिंह रावत ने एक बार फिर लैंसडाउन सीट से जीत दर्ज की. साथ ही उन्हें नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी मिली. साल 2012 के चुनाव में हरक ने सीट बदलते हुए रुद्रप्रयाग से चुनाव लड़ा और विधानसभा में पहुंचे.
वहीं, उत्तराखंड की राजनीति में साल 2016 में सबसे बड़ा दल बदल हुआ और हरक सिंह रावत कांग्रेस के नौ अन्य विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए. वहीं, साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें कोटद्वार सीट से मौका दिया और वह विधानसभा में पहुंचे. उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाया गया. वहीं, इस बार हरक सिंह रावत चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाएं काफी बढ़ गई हैं. उनकी निगाहें 2024 के लोकसभा चुनाव पर हैं.