विकासनगर: जौनसार बावर क्षेत्र में बूढ़ी दीपावली का जश्न जारी है. बावर के कई गांवों में होलियात के साथ पांच दिवसीय नई दीपावली के जश्न का आज दूसरा दिन था. दरअसल, उत्तराखंड के जौनसार में मुख्य दीपावली के एक महीने बाद पांच दिवसीय बूढ़ी दीवाली मनाने का रिवाज है. लेकिन जौनसार बावर के कुछ खतों में नई दीपावली मनाने का चलन है. यहां दीपावली अलग अंदाज में मनाई जाती है. इसी कड़ी में आज यहां भिरुड़ी पर्व मनाया गया.
दरअसल, जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर के अधिकतर गांवों में आज भी मुख्य दीपावली के ठीक एक महीने बाद बूढ़ी दीपावली मनाई जाती है. हालांकि, कुछ वर्षों से कई गांवों के ग्रामीण नई दीपावली भी मनाने लगे हैं, लेकिन परंपराएं पुरानी ही हैं. यहां पांच दिन तक ईको फ्रेंडली दीपावली का जश्न रहता है. इस जश्न में न पटाखों का शोर रहता है और न ही अनावश्यक खर्च. भीमल की लकड़ी की मशाल जलाकर यह जश्न मनाया जाता है. स्थानीय उपज के व्यंजन बनाए जाते हैं, साथ ही ग्रामीण महिलाएं और पुरुष सामूहिक नृत्य से लोक संस्कृति की छटा बिखेरते हैं.
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जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र के जौनसार में खत पट्टी समाल्टा में चालदा महासु महाराज विराजमान हैं. जिस खत पट्टी में चालदा महासु देवता विराजित रहते हैं उस खत पट्टी में नई दिवाली मनाने की परम्परा है. जौनसार बाबर जनजाति क्षेत्र के चालदा महासु देवता के मंदिर समाल्टा में सोमवार रात को होला जलाकर दिवाली का आगाज हुआ.
मशाल नृत्य: भीमल वृक्ष की सूखी हुई पतली टहनियों को एक साथ गुच्छा बनाकर होला तैयार किया गया. लकड़ी से बने इस होला या होलियात को लेकर गांव से कुछ दूर स्थित एक स्थान पर पहुंचे, जहां होलियात जलाने के बाद लोगों ने अपने हाथों में मशाल लेकर नृत्य किया. इसके बाद पंचायती आंगन में खत समाल्टा सहित खत उदपाल्टा के ग्रामीणों ने देव दीपावली मनाई.
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भीमल की लकड़ी से बनती है मशाल: बूढ़ी दिवाली में भीमल की लकड़ी से मशाल बनाई जाती है, जिसे जलाकर नृत्य किया जाता है. इसे स्थानीय भाषा में होलियात या होला कहा जाता है. इस दिवासी में पर्यावरण का खास ख्याल रखा जाता है. पटाखे, आतिशबाजी का इस्तेमाल न कर मशालों से गांवों को रोशन किया जाता है. ये रिवाज पौराणिक काल से है. दिवाली की दूसरी रात अमावस्या की रात होती है, जिसे रतजगा कहा जाता है. इस दिन गांव के पंचायती आंगन में अलाव जलाकर नृत्य का आनंद लिया जाता है.
मंगलवार को सूर्यग्रहण के चलते कोई कार्यक्रम नहीं किए गए. वहीं, आज बुधवार को क्षेत्र में भिरुड़ी पर्व की धूम रही. खत के ग्रामीणों ने मंदिर परिसर में एकत्र होकर देव दर्शन किए और उसके बाद ग्रामीणों ने मंदिर के आंगन में देवता के जयकारे लगाए. पारम्परिक गीत गाकर गांव के स्याणा ने ठारी पर चढ़कर अखरोट फेंके, जिसे सभी ग्रामीणों व श्रद्धालुओं ने प्रसाद के रूप में ग्रहण किया.
बता दें कि, भिरुड़ी इस दीपावली का खास अवसर होता है, जब हर घर के लोग पंचायती आंगन में अपने ईष्ठ देवता के नाम के अखरोट एकत्र करते हैं. साथ ही दिवाली के गीत गाते हैं. गीत के बाद पंचायती आंगन में गांव का मुखिया अखरोट बिखेरता है. इसे ही प्रसाद रूप माना जाता है.
वहीं, भिरुड़ी के दिन सूने की हरियाली का विशेष महत्व है. भिरुड़ी के दिन गांव का बाजगी (ढोल बजाने वाला) 21 दिन पहले जौ और गेहूं को साफ सुधरे स्थान पर बोता है. भिरुड़ी के दिन तैयार हुई हरियाली ईष्ट देवताओं को अर्पित की जाती है. बाद में गांव का बाजगी इस हरियाली को महिला-पुरुषों के माथे पर लगाता है.
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भिरुड़ी में हर घर से लोग आंगन में आकर अखरोट का प्रसाद पाते हैं. युवक और युवतियां भिरुड़ी के गीत गाते हैं. इस दिन विशेष पकवान चिवड़ा और मीठी रोटी बनाई जाती है. एक दूसरे के घर दावतों का दौर चलता है.
सामूहिक नृत्य की परंपरा: पंचायती आंगन में महिलाएं सामूहिक रूप से हारुल, झेंता, रासो और नाटी पर परंपरागत लोक नृत्य प्रस्तुत करती हैं. सबसे खास बात यह है कि यहां पर आयोजन में महिला हो या पुरुष अपने पारम्परागत परिधान ही पहनते हैं.
तैयार होते हैं खास व्यंजन: चिवड़ा इस दीपावली का खास व्यंजन है. इसे तैयार करने के लिए पहले धान को भिगोया जाता है. बाद में इसे भूनकर ओखली में कूटा जाता है, जिससे चावला पतला हो जाता है और भूसा अलग करने के बाद चिवड़ा तैयार हो जाता है. चिवड़ा को स्थानीय लोग बड़े चाव से खाते हैं.
ग्रामीण सरदार सिंह ने बताया कि जहां-जहां भी चालदा महाराज विराजमान होते हैं, वहां नई दिवाली मनाने की परंपरा है. वहां आज भी भिरुड़ी पर्व मनाया जा रहा है. एकता और भाईचारे के इस पर्व पर अखरोट बिखेरे जाते हैं, जिसे सभी लोग प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं.