देहरादून: शांत फिजा और बेहतरीन आबोहवा के लिए पहचान रखने वाले उत्तराखंड में अब तमाम तरह की चुनौतियां खड़ी हो रही हैं. दिल्ली जैसे बड़े शहर में ही नहीं अब उत्तराखंड के पर्यावरण में अब जहर घुल रहा है. उत्तराखंड में जिस तरह से बीते कुछ सालों में वनाग्नि का घटनाएं बढ़ी है, उसने यहां की फिजा में जहर घोल दिया है.
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जंगलों की आग से निकाल काला धुआं उत्तराखंड की आबोहवा को बिगाड़ने में कोई कोर कसर नही छोड़ता है. देश के अन्य राज्यों की तर्ज पर देवभूमि की भी आबोहवा तेजी से बदल रही है. वनाग्नि से न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है, बल्कि यहां का पाकृतिक सौंदर्य भी खत्म होता जा रहा है. पिछले कुछ सालों के आंकड़ों पर नजर डाले तो कई हजार हेक्टियर जंगल जलकर राख हो चुके हैं.
वाडिया हिमालयन इंस्टिट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर पीएस नेगी ने बताया कि वनाग्नि से निकलने वाला धुआं वायुमंडल में जा कर ब्लैक कार्बन की मात्रा को बढ़ाता है. जिसका उपस्थिति पिछले कुछ सालों से हिमालय में देखने को मिली रही है. जिसका उत्तराखंड के पर्यावरण पर नाकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.
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उत्तराखंड में वनाग्नि के जो आंकड़े सामने आए है वो काफी चौकाने वाले है.
- साल 2014 में वनाग्नि के 515 मामले सामने आये. जिसमें करीब 930.33 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया. इससे करीब 23.57 लाख रुपए की वन संपदा को नुकसान हुआ.
- साल 2015 में जंगलों में आग लगने की 412 घटनाएं सामने आई है. इससे करीब 701.61 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया. जिसमें 7.94 लाख रुपए का नुकसान हुआ.
- साल 2016 में वनाग्नि के 2074 मामले सामने आये. जिसमें करीब 4433.75 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया. जिसमें 46.50 लाख रुपए के नुकसान हुआ.
- साल 2017 में जंगलों में आग लगने की 805 घटनाएं सामने आई है. इसके करीब 1244.64 हेक्टेयर वन राख हो गया और 18.34 लाख रुपए की वन संपदा नष्ट हुई.
- साल 2018 में वनाग्नि की सबसे ज्यादा 2150 घटनाएं सामने आई है. इस साल पूरे उत्तराखंड की बात करीब 4480.04 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हुआ है. जिसमें में करीब 86.05 लाख रुपए के नुकसान हुआ.
- साल 2019 की बात करते तो इस साल अभीतक के जो आंकड़े सामने आए है वो काफी चौकाने वाले है. इस साल 1819 वनाग्नि की घटनाएं सामने आ चुकी है. जिनमें 2363 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो चुका है. इसमें 1790 हेक्टेयर आरक्षित वन भूमि और 5720 हेक्टेयर वन पंचायत के जंगल राख हो चुके है.
बीते पांच सालों के आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड की फिजाओं में कितना जहर खुल रहा है. साथ ही इसके पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा होगा.
प्रदेश में लगातार बढ़ रही वनाग्नि की घटनाओं को लेकर मंत्री हरक सिंह रावत चिंता जाहिर कर चुके है. वन मंत्री ने बताया कि जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं पर अकुंश लगाने के लिए मंगलवार को हुई कैबिनेट बैठक में पिरूल नीति पर भी फैसला लिया. सरकार के इस प्रयास से जहां लोगों को रोजगार मिलेगा, वहीं उत्तराखंड में जंगलों को आग से भी बचाया जा सकेगा.
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उत्तराखंड में बढ़ती वनाग्नि की घटनाओं पर पर्यावरणविद् अनिल जोशी ने कहना है कि हर साल हाजारों हेक्टेयर जंगल राख हो रहे है. उत्तराखंड की विशाल वन संपदा के सामने वन महकमा बिल्कुल ही बौना है. वनाग्नि जैसे घटनाओं को रोकने के लिए आम लोगों का जागरूक होना बहुत जरुरी है.
अनिल जोशी ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि सरकारी नीतियों के चलते आज मानव और जंगल के बीच दूरी बढ़ती जा रही है. पहले जंगलों में आग लगती थी तो गांव वालों उसे बुझाने की कोशिश करते थे. लेकिन आज दोनों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है. वाटर हॉल वनाग्नी को नियंत्रण करने में बड़ी भुमिका निभा सकते हैं. इसके अलावा वनों से रोजगार को भी जोड़ने की जरुरत है. ताकि वनों का नुकसान लोगों को अपना नुकसान नजर आए. वनाग्नि से न सिर्फ उत्तराखंड का वातावरण दूषित हो रहा है, बल्कि नई-नई बीमारी भी उत्पन्न हो रही है.