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वनाग्नि के कारण उत्तराखंड की फिजाओं में घुल रहा है 'काला जहर'

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Published : Jun 5, 2019, 9:11 AM IST

Updated : Jun 5, 2019, 12:03 PM IST

जंगलों की आग से निकाल काला धुआं उत्तराखंड की आबोहवा को बिगाड़ने में कोई कोर कसर नही छोड़ता है. देश के अन्य राज्यों की तर्ज पर देवभूमि की भी आबोहवा तेजी से बदल रही है. वनाग्नि से न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है, बल्कि यहां का पाकृतिक सौंदर्य भी खत्म होता जा रहा है.

फाइल फोटो

देहरादून: शांत फिजा और बेहतरीन आबोहवा के लिए पहचान रखने वाले उत्तराखंड में अब तमाम तरह की चुनौतियां खड़ी हो रही हैं. दिल्ली जैसे बड़े शहर में ही नहीं अब उत्तराखंड के पर्यावरण में अब जहर घुल रहा है. उत्तराखंड में जिस तरह से बीते कुछ सालों में वनाग्नि का घटनाएं बढ़ी है, उसने यहां की फिजा में जहर घोल दिया है.

पढ़ें- कटते पेड़-घटते जंगल, कंक्रीट दीवारें, धुंध का दंगल...जल-जंगल-जमीन बचे तभी हो मंगल

जंगलों की आग से निकाल काला धुआं उत्तराखंड की आबोहवा को बिगाड़ने में कोई कोर कसर नही छोड़ता है. देश के अन्य राज्यों की तर्ज पर देवभूमि की भी आबोहवा तेजी से बदल रही है. वनाग्नि से न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है, बल्कि यहां का पाकृतिक सौंदर्य भी खत्म होता जा रहा है. पिछले कुछ सालों के आंकड़ों पर नजर डाले तो कई हजार हेक्टियर जंगल जलकर राख हो चुके हैं.

वनाग्नि के कारण उत्तराखंड की फिजाओं में घुल रहा है 'काला जहर'.

वाडिया हिमालयन इंस्टिट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर पीएस नेगी ने बताया कि वनाग्नि से निकलने वाला धुआं वायुमंडल में जा कर ब्लैक कार्बन की मात्रा को बढ़ाता है. जिसका उपस्थिति पिछले कुछ सालों से हिमालय में देखने को मिली रही है. जिसका उत्तराखंड के पर्यावरण पर नाकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.

पढ़ें- केदारनाथः जंगलचट्टी में 150 मीटर गहरी खाई में गिरा युवक, हेलीकॉप्टर से लाया गया गुप्तकाशी

उत्तराखंड में वनाग्नि के जो आंकड़े सामने आए है वो काफी चौकाने वाले है.

  • साल 2014 में वनाग्नि के 515 मामले सामने आये. जिसमें करीब 930.33 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया. इससे करीब 23.57 लाख रुपए की वन संपदा को नुकसान हुआ.
  • साल 2015 में जंगलों में आग लगने की 412 घटनाएं सामने आई है. इससे करीब 701.61 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया. जिसमें 7.94 लाख रुपए का नुकसान हुआ.
  • साल 2016 में वनाग्नि के 2074 मामले सामने आये. जिसमें करीब 4433.75 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया. जिसमें 46.50 लाख रुपए के नुकसान हुआ.
  • साल 2017 में जंगलों में आग लगने की 805 घटनाएं सामने आई है. इसके करीब 1244.64 हेक्टेयर वन राख हो गया और 18.34 लाख रुपए की वन संपदा नष्ट हुई.
  • साल 2018 में वनाग्नि की सबसे ज्यादा 2150 घटनाएं सामने आई है. इस साल पूरे उत्तराखंड की बात करीब 4480.04 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हुआ है. जिसमें में करीब 86.05 लाख रुपए के नुकसान हुआ.
  • साल 2019 की बात करते तो इस साल अभीतक के जो आंकड़े सामने आए है वो काफी चौकाने वाले है. इस साल 1819 वनाग्नि की घटनाएं सामने आ चुकी है. जिनमें 2363 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो चुका है. इसमें 1790 हेक्टेयर आरक्षित वन भूमि और 5720 हेक्टेयर वन पंचायत के जंगल राख हो चुके है.

बीते पांच सालों के आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड की फिजाओं में कितना जहर खुल रहा है. साथ ही इसके पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा होगा.

प्रदेश में लगातार बढ़ रही वनाग्नि की घटनाओं को लेकर मंत्री हरक सिंह रावत चिंता जाहिर कर चुके है. वन मंत्री ने बताया कि जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं पर अकुंश लगाने के लिए मंगलवार को हुई कैबिनेट बैठक में पिरूल नीति पर भी फैसला लिया. सरकार के इस प्रयास से जहां लोगों को रोजगार मिलेगा, वहीं उत्तराखंड में जंगलों को आग से भी बचाया जा सकेगा.

पढ़ें- Etv भारत के कैमरे के सामने फूटा लोगों का दर्द, कहा- नगर निगम ने कर दिया जीना मुहाल

उत्तराखंड में बढ़ती वनाग्नि की घटनाओं पर पर्यावरणविद् अनिल जोशी ने कहना है कि हर साल हाजारों हेक्टेयर जंगल राख हो रहे है. उत्तराखंड की विशाल वन संपदा के सामने वन महकमा बिल्कुल ही बौना है. वनाग्नि जैसे घटनाओं को रोकने के लिए आम लोगों का जागरूक होना बहुत जरुरी है.

अनिल जोशी ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि सरकारी नीतियों के चलते आज मानव और जंगल के बीच दूरी बढ़ती जा रही है. पहले जंगलों में आग लगती थी तो गांव वालों उसे बुझाने की कोशिश करते थे. लेकिन आज दोनों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है. वाटर हॉल वनाग्नी को नियंत्रण करने में बड़ी भुमिका निभा सकते हैं. इसके अलावा वनों से रोजगार को भी जोड़ने की जरुरत है. ताकि वनों का नुकसान लोगों को अपना नुकसान नजर आए. वनाग्नि से न सिर्फ उत्तराखंड का वातावरण दूषित हो रहा है, बल्कि नई-नई बीमारी भी उत्पन्न हो रही है.

देहरादून: शांत फिजा और बेहतरीन आबोहवा के लिए पहचान रखने वाले उत्तराखंड में अब तमाम तरह की चुनौतियां खड़ी हो रही हैं. दिल्ली जैसे बड़े शहर में ही नहीं अब उत्तराखंड के पर्यावरण में अब जहर घुल रहा है. उत्तराखंड में जिस तरह से बीते कुछ सालों में वनाग्नि का घटनाएं बढ़ी है, उसने यहां की फिजा में जहर घोल दिया है.

पढ़ें- कटते पेड़-घटते जंगल, कंक्रीट दीवारें, धुंध का दंगल...जल-जंगल-जमीन बचे तभी हो मंगल

जंगलों की आग से निकाल काला धुआं उत्तराखंड की आबोहवा को बिगाड़ने में कोई कोर कसर नही छोड़ता है. देश के अन्य राज्यों की तर्ज पर देवभूमि की भी आबोहवा तेजी से बदल रही है. वनाग्नि से न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है, बल्कि यहां का पाकृतिक सौंदर्य भी खत्म होता जा रहा है. पिछले कुछ सालों के आंकड़ों पर नजर डाले तो कई हजार हेक्टियर जंगल जलकर राख हो चुके हैं.

वनाग्नि के कारण उत्तराखंड की फिजाओं में घुल रहा है 'काला जहर'.

वाडिया हिमालयन इंस्टिट्यूट के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर पीएस नेगी ने बताया कि वनाग्नि से निकलने वाला धुआं वायुमंडल में जा कर ब्लैक कार्बन की मात्रा को बढ़ाता है. जिसका उपस्थिति पिछले कुछ सालों से हिमालय में देखने को मिली रही है. जिसका उत्तराखंड के पर्यावरण पर नाकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.

पढ़ें- केदारनाथः जंगलचट्टी में 150 मीटर गहरी खाई में गिरा युवक, हेलीकॉप्टर से लाया गया गुप्तकाशी

उत्तराखंड में वनाग्नि के जो आंकड़े सामने आए है वो काफी चौकाने वाले है.

  • साल 2014 में वनाग्नि के 515 मामले सामने आये. जिसमें करीब 930.33 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया. इससे करीब 23.57 लाख रुपए की वन संपदा को नुकसान हुआ.
  • साल 2015 में जंगलों में आग लगने की 412 घटनाएं सामने आई है. इससे करीब 701.61 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया. जिसमें 7.94 लाख रुपए का नुकसान हुआ.
  • साल 2016 में वनाग्नि के 2074 मामले सामने आये. जिसमें करीब 4433.75 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया. जिसमें 46.50 लाख रुपए के नुकसान हुआ.
  • साल 2017 में जंगलों में आग लगने की 805 घटनाएं सामने आई है. इसके करीब 1244.64 हेक्टेयर वन राख हो गया और 18.34 लाख रुपए की वन संपदा नष्ट हुई.
  • साल 2018 में वनाग्नि की सबसे ज्यादा 2150 घटनाएं सामने आई है. इस साल पूरे उत्तराखंड की बात करीब 4480.04 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हुआ है. जिसमें में करीब 86.05 लाख रुपए के नुकसान हुआ.
  • साल 2019 की बात करते तो इस साल अभीतक के जो आंकड़े सामने आए है वो काफी चौकाने वाले है. इस साल 1819 वनाग्नि की घटनाएं सामने आ चुकी है. जिनमें 2363 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो चुका है. इसमें 1790 हेक्टेयर आरक्षित वन भूमि और 5720 हेक्टेयर वन पंचायत के जंगल राख हो चुके है.

बीते पांच सालों के आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड की फिजाओं में कितना जहर खुल रहा है. साथ ही इसके पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा होगा.

प्रदेश में लगातार बढ़ रही वनाग्नि की घटनाओं को लेकर मंत्री हरक सिंह रावत चिंता जाहिर कर चुके है. वन मंत्री ने बताया कि जंगलों में आग की बढ़ती घटनाओं पर अकुंश लगाने के लिए मंगलवार को हुई कैबिनेट बैठक में पिरूल नीति पर भी फैसला लिया. सरकार के इस प्रयास से जहां लोगों को रोजगार मिलेगा, वहीं उत्तराखंड में जंगलों को आग से भी बचाया जा सकेगा.

पढ़ें- Etv भारत के कैमरे के सामने फूटा लोगों का दर्द, कहा- नगर निगम ने कर दिया जीना मुहाल

उत्तराखंड में बढ़ती वनाग्नि की घटनाओं पर पर्यावरणविद् अनिल जोशी ने कहना है कि हर साल हाजारों हेक्टेयर जंगल राख हो रहे है. उत्तराखंड की विशाल वन संपदा के सामने वन महकमा बिल्कुल ही बौना है. वनाग्नि जैसे घटनाओं को रोकने के लिए आम लोगों का जागरूक होना बहुत जरुरी है.

अनिल जोशी ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि सरकारी नीतियों के चलते आज मानव और जंगल के बीच दूरी बढ़ती जा रही है. पहले जंगलों में आग लगती थी तो गांव वालों उसे बुझाने की कोशिश करते थे. लेकिन आज दोनों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही है. वाटर हॉल वनाग्नी को नियंत्रण करने में बड़ी भुमिका निभा सकते हैं. इसके अलावा वनों से रोजगार को भी जोड़ने की जरुरत है. ताकि वनों का नुकसान लोगों को अपना नुकसान नजर आए. वनाग्नि से न सिर्फ उत्तराखंड का वातावरण दूषित हो रहा है, बल्कि नई-नई बीमारी भी उत्पन्न हो रही है.

Intro:Word Environment Day- Spacial

जंगल की आग देवभूमि की फिजाओं में घोल रही है जहर

Note- फीड FTP पर (Word Envorment Day Special- Jangal Me Aag) नाम से है।

एंकर- जहां एक और विश्व प्रर्यावरण के मौके पर प्रर्यावरण को बचाने साफ रखने और संरक्षित करने की बात हो रही है तो एसे में अपनी सुंदरता और नर्मलता के लिए विश्वविख्यात देवभूमी उत्तराखंड राज्य पर्यावरण के लिहाज से सबसे साफ आबो-हवा वाले राज्यों में शुमार है लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ सालों में जगंल की आग से निकलने वाले धुएं ने उत्तराखंड के वातावरण पर कब्जा किया है उस से लगता नही है कि ये साफ आबो हवा ज्यादा दिनो तक उत्तराखंड की इस विश्वविख्यात पाकृतिक सौंदर्य को संजो कर रख पायेगी। पिछले कुछ सालों के आंकड़ो पर अगर नजर दौड़ाए तो कई हेक्टियर जंगल हर साल जल कर खाक हो जाता है और अगर कुछ बचता है तो वो बचता है फिजाओं में फैला काला धुंआ.. और ये काला धुआं उत्तराखंड की आबो हवा को बिगाड़ने में कोई कोर कसर नही छोड़ता है।


Body:वीओ- वाडिया हिमालियन इंस्टिट्युट के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ पीएस नेगी का कहना है कि जगलों में लगने वाली आग के अलावा फसलों को जलाने के बाद निकलने वाला धुआं वायुमंडल में जाकर हमारे वातारण में ब्लेक कार्बन की मात्रा को बढ़ाता है जिसकी उपस्थिती पछले कुछ सालों में हिमालय पर भी देखने को मिल रही है। इससे साफ हो जाता है कि ब्लेक कार्बन की मोजूदगी उत्तराखंड के पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। हर साल कई हेक्टियर जलगों में लगने वाली आग से निकलने वाला धुआं हमारे वातारण को गंदा कर रहा है सरकार को इस पर सोचने की जरुरत है।

बाइट- पीएस नेगी, विरिष्ठ वैज्ञानिक वाडिया हिमालियन संस्थान 

 उत्तराखंड में पिछले कुछ सालों में जंगलो में लगी आग के आकड़ो पन नजर दौड़ाए तो तस्वीर भयावय नजर आती है। उत्तराखंड के जंगलो में पिछले 5 सालों में लगी आग के आंकड़े कुछ इस प्रकार से है।

उत्तराखंड के जंगलो में पिछले 5 सालों में लगी आग का हाल- 

वर्ष 2014 -
वनाग्नी के वर्ष 2014 में 515 मामले सामने आये जिसमें से तकरीबन 930.33 हैक्टियर वन जल कर राख हो गये और 23.57 लाख का नुकसान पूरे फायर सीजन में हुआ।

वर्ष 2015- 
फोरेस्ट फायर की 412 घटनाएं सामने आयी और सूबे का 701.61 हैक्टियर जंगल राख हो गया जिसमें 7.94 लाख का नुकसाल बताया गया है।

वर्ष 2016- 
वनाग्नी के 2074 मामले सामने आये और प्रदेश का 4433.75 हैक्टियर जंगल जल कर राख हो गया जिसमें 46.50 लाख के नुकसान का आंकलन किया गया था।

वर्ष 2017- 
 वनों में आग की 805 घटनाएं चिन्हित की गई थी जिसमें सूबे का 1244.64 हैक्टियर वन राख हो गया और 18.34 लाख के नुकसान का आंकलन इस सीजन में किया गया।

वर्ष 2018-
उत्तराखंड के जंगलों में वनाग्नी की घटनाओं ने और तैजी पकड़ी है और पूरे सीजन 2150 घटनाएं सामने आयी और 4480.04 हैक्टियर जगल जल गया जिसमें 86.05 लाख के नुकसान का आंकलन किया गया।

वर्ष 2019 अब तक-
वहीं मौजूदा सीजन की बात की जाए तो हालत इस बार भी गभींर है।  सीजन में अभी आगे का समय भी बाकी है लेकिन अभी तक आग का आंगड़ा आसमान छु रहा है। प्रमुख वन संरक्षक जयराज के अनुसार पूरे राज्य में अब तक तकरीबन 1819 वनाग्नी की घटनाएं सामने आ चुकी है जिनमें 2363 हैक्टियर जंगल जल कर राख हो चुका है जिसमें 1790 आरक्षित वन भूमी और सविर फोरेस्ट यानी वन पंचायत का 5720 हैक्टियर जंगल जल कर राख हो चुका है।  और अंदाजा लगाइए इतना जंगल जल जाने के बाद कितना धुआं देवभूमी की फिजाओं में घुला होगा।

बाइट- जयराज, प्रमुख वन संरक्षक उत्तराखंड वन विभाग 

वहीं इस पूरे मामले पर वन मंत्री हरक सिंह रावन ने वनाग्नी पर चिंता तो जताई और कहा कि वनो में आग ना लगे और इससे प्रर्यावरण दूषित ना हो इसके लिए आज भी कैबिनेट में एक अहम फैसला लिया गया। वन मंत्री ने बताया कि पैरुल निती के तहत आज कैबिनेट में वनों में सबसे ज्यादा आग लगने का कारण बनने वाली चीड़ की पत्तियों को लोगो के रोजगार से जोड़ने का काम किया जा रहा है। हरक सिंह रावत ने कहा कि इस प्रयास से लोगों को रोजगार तो मिलेगा ही साथ ही वनों में आग पर भी नियंत्रण मिल पायेगा।

बाइट- हरक सिंह रावत, वन मंत्री  

वीओ-  प्रर्यावरण विद्द अनिल जोशी का कहना है कि ये दुर्भाग्य की बात है कि उत्तराखंड में हर साल कई हाजारों हैक्टियर जंगल आग में स्वाह हो जाते हैं और उत्तराखंड के विशाल वन संपदा के सामने वन महकमा बिल्कुल ही बौना है। उन्होने कहा कि वनो की आग से निपटने के लिए आम जनसहयोग जरुरी है और वनाग्नी पर नियंत्रण केवल और केवल जनसयोग से ही संभव भी है। प्रर्यावरण विद् अनिल जोशी का कहना है कि पिछले कुछ सालों में वनाग्नी का बढ़े हुए विक्राल स्वरुप के पिछे प्रदेश की नीतियां जिम्मेदार है। उन्होने कहा कि हमारी नितियों की चलते आज उत्तराखंड के मानव और जंगलो बीच दूरियां बढ़ती जा रही है। उन्होने कहा कि पहले जब जंगलो में आग लगती थी तो गांव के गांव जंगलों में आग बुझाने के लिए दौड़ पड़ते थे लेकिन आज सरकरा की नीति ने मानव और वनो में हितो की खाई इतनी पाट दी है कि दोनो अलग अलग दिशा में नजर आ रहे हैं। अनिल जोशी ने कहा कि वनो में वाटर हॉल वनाग्नी को नियंत्रण करने में बड़ी भुमिका निभा सकते हैं इसके अलावा वनो से रोजगार को भी जोड़ने की जरुरत है ताकी वनो का नुकसान लोगों को अपना नुकसान नजर आये। जंगलों में लग रही लगातार आग के चलते प्रर्यावण विद् का कहना है इससे वातावरण दूषित होता है औ कई प्रकार के रोग जन्म लेते हैं। 

बाइट- अनिल जोशी, पर्यावरण विद्

PTC धीरज सजवाण




Conclusion:
Last Updated : Jun 5, 2019, 12:03 PM IST
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