देहरादून: उत्तराखंड में भाजपा इस बार 'युवा सरकार 60 पार' को खूब प्रचारित-प्रसारित कर रही है. लेकिन शायद खुद भाजपाई भी जानते हैं कि इस नारे को साकार करना इस बार काफी मुश्किल दिख रहा है. साल 2017 के रिकॉर्ड को देखकर भले ही इस नारे से कुछ उम्मीद लगाई जा सके, लेकिन तब के समीकरणों की तुलना में अब के हालात करीब-करीब नामुमकिन से दिख रहे हैं. वह बात अलग है कि राजनीति में चुनाव परिणाम तक किसी भी उलटफेर की गुंजाइश बनी रहती है. साल 2022 में भारतीय जनता पार्टी के लिए अपने ही दिए गए नारे को सफल बनाना आखिर क्यों मुश्किल है. इसके कारण जानिए.
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि वर्तमान में प्रदेश में जो हालात बने हुए हैं उससे साफ जाहिर है कि सत्ताधारी दल के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी बनी हुई है, जो पार्टी के लिए सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो सकती है. इसके साथ ही बीजेपी द्वारा कुछ ही समय के अंतराल में तीन-तीन मुख्यमंत्रियों को बदलना भी जनता के गुस्से की बड़ी वजह मानी जा रही है.
इसके साथ ही विकास कार्यों को लेकर भी जनता में नाराजगी है. लोगों का मानना है कि उनकी समस्याओं के मुताबिक राज्य सरकार काम नहीं कर पाई है. एक यह भी बड़ा कारण है कि कोरोना काल में राज्य की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा है. इसके साथ ही उत्तराखंड के राजस्व से जुड़े सेक्टर्स पर भी राज्य सरकार कुछ खास काम नहीं कर पाई है. इसके साथ ही मंत्री और विधायकों का जनता से दूर रहना और क्षेत्र में समस्याओं पर ध्यान ना देना भी पार्टी के लिए चिंता का विषय है.
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वरिष्ठ पत्रकार भगीरथ शर्मा की मानें तो यह कुछ कारण हैं जो उत्तराखंड में बीजेपी के 60 पार के स्लोगन को फिसड्डी साबित कर सकते हैं. बस इन्हीं बातों को पार्टी ने अंदरूनी बैठकों में संभवत: समझ भी लिया है. लिहाजा, पार्टी में मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और विधायकों समेत पार्टी संगठन के पदाधिकारियों को भी जनता के बीच जाने की हिदायत दी गई है. इसी का तोड़ निकालने के लिए पार्टी परफॉर्मेंस के आधार पर विधायकों के टिकट काटने का फॉर्मूला भी अपनाने जा रही है.
यूं तो चुनाव के दौरान विधायकों के टिकट कटने की बात आम होती है, लेकिन 2022 में भाजपा के लिए यह प्रयोग इसलिए असामान्य होगा क्योंकि राज्य में ऐतिहासिक रूप से पहली बार 57 सीटों पर भाजपा का वर्चस्व रहा है. यानी इस बार विधायकों के ज्यादा से ज्यादा टिकट कटने की संभावना है.
वरिष्ठ पत्रकार अतुल बरतरिया की मानें तो साल 2017 में भाजपा ने ऐतिहासिक 57 सीटों पर जीत हासिल की. इस जीत की वजह भारतीय जनता पार्टी के काम से ज्यादा मोदी फैक्टर पर लोगों का विश्वास रहा था. लेकिन इस बार कोरोना के चलते मोदी फैक्टर भी कुछ कम नजर आ रहा है. अतुल बरतरिया कहते हैं कि मोदी मैजिक पार्टी प्रत्याशियों की कुछ हद तक तो मदद कर सकता है, लेकिन शायद ही इस बार 2017 वाली लहर राज्य में दिखाई दे.
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बता दें, उत्तराखंड में 70 विधानसभा सीटें हैं और 36 सीटों पर बहुमत का जादुई आंकड़ा पूरा होता है. लिहाजा, पार्टी की पहली प्राथमिकता राज्य में 36 सीटों को जीतना होगा और इन 36 सीटों को जीतने के लिए 15 से ज्यादा विधायकों के टिकट की बलि चढ़ाई जा सकती है.
आपके लिए यह भी जानना जरूरी है कि पिछले दिनों राष्ट्रीय महामंत्री संगठन बीएल संतोष भी उत्तराखंड पहुंचे थे. उन्होंने पार्टी के नेताओं को जनता से संवाद को लेकर विशेष तौर पर निर्देश दिए थे. इस मामले में पार्टी के पदाधिकारी पहले भी कई बार यह बात साफ कर चुके हैं कि राज्य में मंत्री हो या विधायक, सभी की परफॉर्मेंस को गहनता से चेक किया जाएगा.
इसके लिए एक तरफ पार्टी संगठन स्तर पर तो काम करती ही है, साथ ही चुनाव से पहले राष्ट्रीय स्तर पर भी निजी कंपनियों से सर्वे के तहत एक काम करवाया जाता है. इस मामले में पार्टी के प्रवक्ता नवीन ठाकुर कहते हैं कि पार्टी अपने विधायक को चुनाव में भेजने से पहले उसका परफॉर्मेंस देखती है, और उसी आधार पर पार्टी निर्णय भी लेती है.