देहरादून: उत्तराखंड में पिछले कुछ समय से सशक्त भू-कानून की मांग तेजी से उठ रही है. इसी को लेकर सरकार ने एक कमेटी का भी गठन किया था. इस कमेटी की बीजापुर गेस्ट हाउस के सभागार में बैठक हुई. बैठक में भू-कानून में संशोधन को लेकर लंबी चर्चा हुई.
उप राजस्व आयुक्त राजस्व परिषद देवानंद ने जानकारी देते हुए बताया कि बैठक में प्राप्त प्रत्यावेदन पर विचार करते हुए उप्र जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम-1950 की विभिन्न धाराओं पर हिमाचल प्रदेश के भू-कानून के परिपेक्ष में चर्चा की गई. निर्णय लिया गया कि इस विषय में सभी संबंधित के सुझाव प्राप्त किये जाएंगे और यथा आवश्यकता उनके साथ विचार विमर्श किया जाएगा.
बैठक में समिति के अध्यक्ष सुभाष कुमार (पूर्व आईएएस), सदस्य अरुण कुमार ढौंडियाल (पूर्व आईएएस, डीएस गर्ब्याल (पूर्व आईएएस), सदस्य सचिव बीवीआरसी पुरुषोत्तम सचिव राजस्व उत्तराखंड शासन उपस्थित थे.
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बता दें कि पुष्कर धामी सरकार ने उत्तराखंड में भू-कानून का संशोधित खाका तय करने को कमेटी का गठन किया था. पूर्व मुख्य सचिव सुभाष कुमार इस समिति के अध्यक्ष है. समिति वर्तमान भू-विधियों का अध्ययन करेगी और सुझाव लेगी. सरकार की कोशिश ऐसी व्यवस्था लागू करने की है, जिससे प्रदेश का औद्योगिक विकास भी न रुके. साथ ही पलायन को रोकने के लिए भी यह सहयोगी हो.
गौर हो कि हिमाचल की तर्ज पर उत्तराखंड में भी भू-कानून की मांग जोरों-शोरों से चल रही है. सोशल मीडिया पर भी ये मांग सबसे ज्यादा ट्रेंड कर रही है. पहली बार फेसबुक, इंस्टाग्राम पर कोई राजनीतिक मुद्दा इतना गरमा रहा है. इससे उत्तराखंड की इस भू-कानून की मांग में उन लोगों को भी ऊर्जा मिली है, जो पिछले लंबे समय से इसकी लड़ाई लड़ रहे हैं.
क्या होता है भू-कानून और उत्तराखंड में क्या है इसका इतिहास: भू-कानून का सीधा-सीधा मतलब भूमि के अधिकार से है. यानी आपकी भूमि पर केवल आपका अधिकार है न की किसी और का. जब उत्तराखंड बना था तो उसके बाद साल 2002 तक बाहरी राज्यों के लोग उत्तराखंड में केवल 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीद सकते थे. वर्ष 2007 में बतौर मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी ने यह सीमा 250 वर्ग मीटर कर दी.
इसके बाद 6 अक्टूबर 2018 को भाजपा के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत एक नया अध्यादेश लाए, जिसका नाम 'उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम,1950 में संशोधन का विधेयक' था. इसे विधानसभा में पारित किया गया. इसमें धारा 143 (क), धारा 154(2) जोड़ी गई. यानी पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया गया. अब कोई भी राज्य में कहीं भी भूमि खरीद सकता था. साथ ही इसमें उत्तराखंड के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार, यूएसनगर में भूमि की हदबंदी (सीलिंग) खत्म कर दी गई. इन जिलों में तय सीमा से अधिक भूमि खरीदी या बेची जा सकेगी.
उत्तराखंड का भू-कानून बेहद लचीला: उत्तराखंड की अगर बात करें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2000 के आंकड़ों पर नजर डालें तो उत्तराखंड की कुल 8,31,227 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज थी. इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से ऊपर की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 1,08,863 थी. इन 1,08,863 परिवारों के नाम 4,02,422 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी. यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग. बाकी 5 एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28,803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी. ये आंकड़े दर्शाते हैं कि, किस तरह राज्य के लगभग 12 फीसदी किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि है. बची 88 फीसदी कृषि आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुंच चुकी है. हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड का भू-कानून बहुत ही लचीला है इसलिए सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग, एक सशक्त, हिमाचल के जैसे भू-कानून की मांग कर रहे हैं.
भू-कानून की मांग चुनावी वर्ष में बन सकता है बड़ा मुद्दा: वैसे तो भू-कानून की मांग उत्तराखंड में समय-समय पर राजनीतिक और सामाजिक लोगों द्वारा उठाई जाती रही है. अब इस मुहिम में युवाओं का जुड़ना कहीं ना कहीं राजनीतिक पार्टियों के लिए भी कान खड़े करने वाली बात है. ऊपर से यह चुनावी साल है, जिससे अनुमान लगाया जा रहा है कि चुनावों में भी भू-कानून की मांग जोर पकड़ रही है. सोशल मीडिया के माध्यम से जोर पकड़ रही मुहिम में सियासी नेता भी अब उतर पड़े हैं.