चमोली: देवभूमि में सभी मठ-मंदिरों में देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना के साथ शंख ध्वनि से आह्वान किया जाता है, लेकिन हिमालय की तलहटी पर विराजमान भू-बैकुंठ बदरीनाथ धाम में शंखनाद नहीं होता है, जो कि हर किसी को अपने आप में अचंभित करने वाला वाक्या है. धाम में शंख न बजाए जाने को लेकर यह भी कहा जाता है कि यहां बदरीनाथ में भगवान ध्यानमुद्रा हैं. शंख से उनका योग भंग न हो इसके लिए यहां शंखनाद नहीं किया जाता है.
बदरीनाथ धाम में शंखनाद को लेकर बदरीनाथ धाम के धर्माधिकारी भुवन चंद्र उनियाल बताते हैं कि एक पौराणिक मान्यता के अनुसार वृंदा (लक्ष्मी) ने यहां तुलसी के रूप में तपस्या की थी. तब उनका विवाह शंखचूड़ नाम के एक राक्षस से हुआ था. वृंदा साक्षात मां लक्ष्मी का अवतार थी. उसके बाद भगवान विष्णु ने उन्हें धारण किया था. मां लक्ष्मी को यह याद न आए कि शंखचूड़ से मेरा विवाह हुआ है इसलिए धाम में शंखनाद नहीं किया जाता.
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वहीं धर्मा धिकारी इसके पीछे रुद्रप्रयाग जिले के अगस्त्यमुनि ब्लॉक के सिल्ला गांव से जुड़ी प्राचीन मान्यता भी बताते हैं. मान्यता है कि रुद्रप्रयाग जनपद के सिल्ला गांव स्थित साणेश्वर शिव मंदिर से बातापी राक्षस भागकर बदरीनाथ में शंख में छुप गया था, इसलिए धाम में आज भी शंख नहीं बजाया जाता है.
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दरसअल, उच्च हिमालयी क्षेत्रो में तपस्या करने वाले ऋषि मुनियों को राक्षस बड़ा परेशान करते थे. सिल्ला क्षेत्र में भी आतापी- बातापी राक्षसों का आतंक था. जिसको लेकर साणेश्वर महाराज ने अपने भाई अगस्त्य ऋषि से मदद मांगी थी. एक दिन अगस्त्य ऋषि सिल्ला पहुंचे और साणेश्वर मंदिर में स्वयं पूजा-अर्चना करने लगे, लेकिन राक्षसों का उत्पात देखकर वे भयभीत हो गए. जिसके बाद उन्होंने मां दुर्गा का ध्यान किया तो अगस्त्य ऋषि की कोख से कुष्मांडा देवी प्रकट हुई.
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बाद में देवी ने त्रिशूल और कटार से वहां मौजूद राक्षसों का वध किया. यह भी कहा जाता है कि देवी से बचने के लिए तब आतापी-बातापी नाम के दोनों राक्षस वहां से भाग निकले. जिसमें आतापी राक्षस मंदाकिनी नदी में छुप गया. जबकि बातापी राक्षस यहां से भागकर बदरीनाथ धाम में जाकर एक शंख में छुप गया. मान्यताओं के अनुसार इसी वजह से बदरीनाथ धाम में आज भी शंख बजाना वर्जित किया गया है.