चमोलीः चिपको आंदोलन की प्रेणता गौरा देवी के रैणी गांव में कांचुला के कई पेड़ों पर आरी चलाई गई है. शिकायत पर रैणी गांव के ग्रामीणों के साथ ही वन विभाग की टीम मौके के लिए रवाना हो गई है. ये घटना रैणी गांव के जंगल के पगराणी क्षेत्र में हुई है. ये वही क्षेत्र है जहां 1973 में गौरा देवी के नेतृत्व में पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन की शुरू हुई थी.
रैणी गांव के जंगल के जिस पगराणी क्षेत्र से विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की शुरूआत हुई थी. वहां इन दिनों कांचुला के कई पेड़ों को भारी नुकसान पहुंचाया गया है. मिली जानकारी के मुताबिक, सोमवार को रैणी गांव का युवक विक्की राणा जंगल की तरफ गया था, जिसने जंगल में कांचुला के पेड़ों के नुकसान की जानकारी गांव के अन्य ग्रामीणों व वन विभाग के अधिकारियों को दी. सूचना पर रैणी गांव की महिला मंगल दल, युवक मंगल दल सहित अन्य ग्रामीण और वन विभाग की टीम सुबह मौके के लिए रवाना हुईं.
स्थानीय लोगों के मुताबिक कांचुला के पेड़ों की तस्करी कर टुकड़ों से फैंसी कटोरे और गिलास बनाए जाते हैं, जो काफी कीमती होते हैं. ग्रामीणों का कहना है कि यह किसी बाहरी व्यक्ति का काम हो सकता है. टीम के लौटने पर वास्तविक स्थिति का पता चल पाएगा. बताया जा रहा है कि यहां करीब 15 से 20 पेड़ों से टुकड़े निकाले गए हैं, जिससे पेड़ काफी कमजोर हो गए हैं. वहीं, अब पेड़ों के सूखने की भी आशंका है.
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नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क की वन क्षेत्राधिकारी चेतना कांडपाल का कहना है कि नंदादेवी पार्क रैणी गांव के जंगल में पेड़ों से टुकड़े निकालकर उन्हें नुकसान पहुंचाने का मामला संज्ञान में आया है. वन विभाग की टीम रैणी गांव के ग्रामीणों के साथ मौके पर गई है. टीम के वापस लौटने के बाद ही वास्तविक स्थिति का पता चल पाएगा. मामले की जांच कर उचित कार्रवाई की जाएगी.
चिपको आंदोलन का इतिहास: गौरतलब है कि चिपको आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले के छोटे से रैणी गांव से 26 मार्च 1973 को शुरू हुआ था. साल 1972 में प्रदेश के पहाड़ी जिलों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला शुरू हो चुका था. लगातार पेड़ों के अवैध कटान से आहत होकर गौरा देवी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने आंदोलन तेज कर दिया था. बंदूकों की परवाह किए बिना ही उन्होंने पेड़ों को घेर लिया और पूरी रात पेड़ों से चिपकी रहीं. अगले दिन यह खबर आग की तरह फैल गई और आसपास के गांवों में पेड़ों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपकने लगे. चार दिन के टकराव के बाद पेड़ काटने वालों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े.
पेड़ कटान का ग्रामीणों ने किया विरोध: इस आंदोलन में महिला, बच्चे और पुरुषों ने पेड़ों से लिपटकर अवैध कटान का पुरजोर विरोध किया था. गौरा देवी वो शख्सियत हैं, जिनके प्रयासों से ही चिपको आंदोलन को विश्व पटल पर जगह मिल पाई. इस आंदोलन में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा, कामरेड गोविंद सिंह रावत, चंड़ीप्रसाद भट्ट समेत कई लोग भी शामिल थे.
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आंदोलन के बाद वन संरक्षण अधिनियम बना: वहीं, 1973 में शुरू हुए इस आंदोलन की गूंज सरकार तक पहुंच गई थी. इस आंदोलन का असर उस दौर में केंद्र की राजनीति में पर्यावरण का एक एजेंडा बना. आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन की रक्षा करना और पर्यावरण को जीवित करना था. चिपको आंदोलन के चलते ही साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक विधेयक बनाया था. जिसके तहत देश के सभी हिमालयी क्षेत्रों में वनों के काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगा दिया गया था. इस आंदोलन के बलबूते महिलाओं को एक अलग पहचान मिल पाई थी. महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की थी.