देहरादून: उत्तराखंड में जारी पलायन को रोकने के मकसद से शुरू ईटीवी भारत की मुहिम 'आ अब लौटें' लगातार जारी है. सरकार से भी बार-बार इस ओर ध्यान देने की अपील की जा रही है. इसी कड़ी में आज हम पहुंचे हैं अपर तलाई गांव. इस गांव में अब कोई नौजवान नहीं रहता. घरों पर लगातार ताले पड़ते जा रहे हैं. जो लोग यहां ठहरे भी हैं तो उनकी उम्र इतनी हो चुकी है कि वो गांव से बाहर पैदल तक नहीं चल सकते. आइए बताते हैं आपको पलायन से उजड़े एक और गांव की असल कहानी.
जिस गांव में हमारी टीम पहुंची है वो गांव उत्तराखंड के किसी दूरदराज इलाके में नहीं बल्कि राजधानी देहरादून में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की विधानसभा में ही स्थित है. सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत इस गांव में आज से लगभग 12 साल पहले वोट मांगने के लिए पहुंचे थे, लेकिन उस वक्त का दिया आश्वासन आजतक पूरा नहीं हुआ.
गांव की स्थिति पर बात करने से पहले आइए जान लेते हैं इस गांव की मुख्य समस्याएं-
- अपर तलाई गांव में सड़क 1999 में आयी.
- उसके बाद सड़क पत्थरों के ढेर में तब्दील हो गयी.
- गांव में जंगली जानवरों से परेशानी. खेती हो रही बर्बाद.
- कोई स्वास्थ्य सुविधा नहीं.
- स्कूल तक बंद हो चुका है.
कभी गूंजती थी खिलखिलाहट, आज है वीरानी
ये गांव देहरादून की डोइवाला विधानसभा क्षेत्र के रायपुर ब्लाक में अपर तलाई गांव के नाम से जाना जाता है. कभी अपर तलाई गांव बच्चों की खिलखिलाहट से मुस्कुराता था. कभी यहां नौजवान गलियों में खेला करते थे. गांव में शादी और दूसरे आयोजन होते थे तो लोग सुख-दुख बांटने के लिए साथ में बैठा करते थे. लेकिन इस गांव में सरकारी उदासीनता के चलते अब कुछ भी नहीं होता. हालात ये हैं कि राजधानी देहरादून के निकट बसे इस गांव में बच्चे अपने मां-बाप से मिलना तो छोड़िये उनका हाल-चाल तक जानने के लिए भी मुश्किल से आ पाते हैं.
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ईटीवी भारत की टीम ने गांव का सफर देहरादून से शुरू किया. नेहरू कॉलोनी से होते हुए हम थानों गांव पहुंचे. टीम ने अपना सफर दोपहिया वाहन से तय किया. किसी तरह हम 20 मिनट का सफर तय कर गांव की सीमा में दाखिल हुये. यहां जाते वक्त रास्ते में काफी परेशानी का सामना करना पड़ा क्योंकि छोटे वाहन भी यहां बमुश्किल ही जा पाते हैं.
जैसे ही हम गांव पहुंचे ग्रामीणों के चेहरों पर चमक दौड़ पड़ी, उनको लगा सरकारी अमले से कोई उनका हाल जानने आया है. हम आगे बढ़े और चारों ओर नजर दौड़ाई. गांव में सिर्फ 70 साल से ऊपर के व्यक्ति ही नजर आ रहे थे. चेहरे पर पड़ी झुर्रियां, पैरों में तकलीफ, अपनों की चाह और सरकारी सुविधा का इंतजार उनके चेहरे और बातों में साफ़ झलक रहा था.
ये है बुजुर्गों का गांव...
हमें इस गांव की जानकारी देने वाले युवक पंकज कोठारी हमारे साथ मौजूद थे. पंकज सहित गांव के तमाम लोगों ने हमें बताया कि गांव की हालत 1999 से बेहद खराब है. इसका मुख्य कारण है 15 किलोमीटर की वो सड़क जिसपर चल पाना बेहद मुश्किल है. गांव के बूढ़े व्यक्तियों का कहना है कि सड़क खराब होने की वजह से वो गांव में कैदी जैसी जिंदगी बिता रहे हैं. बीमारी हो या कोई भी हादसा एक बुजुर्ग दूसरे बुजुर्ग के लिए ही मसीहा बनता है जबकि उनके खुद के बेटे किसी मुसीबत में उनका साथ नहीं दे पाते हैं. गांव के इन बुजुर्ग लोगों का कहना है कि उनका जन्म यहीं हुआ है, लेकिन अब जैसे गांव के हालत है पहले और अब में जमीन आसमान का फर्क है.
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गांव खाली होने की वजह
देहरादून से इस गांव को आने वाली सड़क पूरी तरह से टूटी पड़ी है, जिस वजह से गांव से परिवार के परिवार शहर में पलायन कर गए. यही नहीं, हमने देखा कि 45 परिवार का ये गांव अब धीरे-धीरे खाली हो गया है. घरों पर ताले लटके हुए हैं. माता पिता ने भी मजबूरी में अपने बच्चों को शहर भेज दिया है, क्योंकि हर रोज काम कर बिना सड़क के गांव तक आना संभव नहीं होता है.
एकमात्र स्कूल 3 महीने पहले बंद
अपर तलाई गांव में एकमात्र सरकारी स्कूल था. गांव के रहने वाले सूरज मणि कोठारी का कहना है कि 1966 में उन्होंने भी इसी स्कूल से पढ़ाई की थी. लेकिन अब सरकार ने इस स्कूल को बंद कर दिया है. स्कूल के समय आसपास के बच्चों के चेहरे वो देख लेते थे, लेकिन अब उनको वो भी नसीब नहीं होता.
आसपास के गांव भी इसी तरह अब खाली होने लगे हैं. मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से गांव के लोगों ने अपील भी की लेकिन अबतक कोई समाधान नहीं हुआ और अब जो लोग बचे हैं वो भी गांव खाली करने की सोच रहे हैं.
बच्चे यहां आना नहीं चाहते
गांव की महिलाओं का कहना है कि जो खेत हैं उसी से उनका गुजारा हो रहा है. बाकी गांव में सुअर और जंगली बंदर फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. दिन भर महिलायें सिर्फ खेतों में रहती हैं और जब खाली बैठती है तो आंखों के सामने बच्चे और नाती पोते ही दिखाई देते हैं.
गांव के प्रधान ही कर गए पलायन
अपर तलाई गांव के प्रधान शिव शंकर कोठारी इस गांव में 10 साल से प्रधान हैं लेकिन अब वो भी इस गांव में नहीं रहते. प्रधान की माता ही गांव में रहती हैं, वो भी ठीक से चल फिर नहीं सकती हैं. उनका कहना है कि ऐसी समय में भला कौन रहेगा और कभी महीने-दो महीने में प्रधान बेटा आ ही जाता है.
उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार है और लगातार सरकार नई-नई योजना बनाकर पलायन को रोकने की बात कर रही है. सरकार पहाड़ों की बात करती है, रिवर्स पलायन की बात करती है. जो अभी तो कम से कम दूर की कौड़ी दिखाई देती है. पहाड़ तो छोड़िये ये हालात उन गांवों के हैं जो शहरी क्षेत्रों से लगे हैं. राजधानी से लगे गांव जब खाली हो गये हैं तो पहाड़ों की बात करना अभी बेमानी ही है.
नोट: 'आ अब लौटें'...ये मुहिम ईटीवी भारत की एक सच्ची कोशिश है. अपने प्रदेश, अपने गांव की मिट्टी को प्यार करने वाले हर शख्स से अपील है कि हमसें जुड़ें और गांवों को फिर से बसाने में हमारी मदद करें.