अल्मोड़ा: देवभूमि में शिव के हर धाम में साल भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है. जहां के नैसर्गिक सौन्दर्य में शिवत्व का अहसास होता है. वहीं ऐसा ही एक शिवधाम जागेश्वर भी है. जागेश्वर धाम भगवान सदाशिव के 12 ज्योतिर्लिंग में से एक है. माना जाता है कि ये पहला शिवमंदिर है जहां से लिंग के रूप में देवों के देव महादेव की सबसे पहले पूजा की परंपरा शुरू हुई.
शिव के इस धाम को यह ज्योतिर्लिंग आठवां ज्योतिर्लिंग माना जाता है. जिसे योगेश्वर नाम से भी जाना जाता है. यहां की अलौकिक शक्ति और आस्था को देखने देश ही नहीं बल्कि विदेश से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं. श्रावण माह में पूजा-अर्चना करने वाले शिवभक्तों की संख्या काफी बढ़ जाती है. वहीं श्रावण के माह में यहां निसंतान महिलाएं भी तपस्या करती हैं. मान्यता है कि निसंतान महिलाओं द्वारा यहां रात भर हाथ में दीपक जलाएं रखने से उन्हें संतान की प्राप्ति होती है.
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जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर देवदार के घने जंगलों के बीच शांति और अलौकिक शक्ति का अहसास कराता है. जागेश्वर मंदिर समूह सबसे बड़ा मंदिर समूह है. उत्तराखंड के देव स्थानों में जागेश्वर धाम का स्थान भी प्रमुख है. जागेश्वर धाम को उत्तराखंड के पांचवें धाम के रूप में जाना जाता है. जागेश्वर मंदिर में 125 छोटे बड़े मंदिरों का समूह है. जागेश्वर मंदिर समूह अपनी वास्तुकला के लिए देश-विदेश में विख्यात है. जिसकी भव्यता देखते ही बनती है.
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जागेश्वर धाम भगवान शिव की तपोस्थली रही है. मान्यता है कि यहां महामृत्युंजय जाप करने से मृत्यु तुल्य कष्ट टल जाते हैं, लेकिन मंदिरों के निर्माण को कई सटीक इतिहास कहीं दर्ज नहीं है. बताया जाता है इन मंदिरों का जीर्णोद्धार का कार्य 7वीं और 14 वीं शताब्दी में कत्यूरी शासकों ने किया था. उससे पहले यह मंदिर बद्रीनाथ शैली के बने काष्ट शैली के थे.
मंदिर के पुजारियों के अनुसार यहां छोटे- बड़े 125 मंदिर हैं, जिनमें से 17 अन्य देवी देवताओं के तो 108 भगवान शिव के अलग- अलग नामों के मंदिर मौजूद हैं. इस स्थल के मुख्य मंदिरों में योगेश्वर मंदिर, चंडी का मंदिर, कुबेर मंदिर, मृत्युंजय मंदिर ,नव दुर्गा मंदिर नवाग्रह मंदिर , पिरामिड मंदिर, पुष्टि देवी मंदिर, लकुलीश मंदिर, बालेश्वर मंदिर, केदारेश्वर मंदिर शामिल हैं.
कहा जाता है कि प्राचीन समय में जागेश्वर मंदिर में मांगी गई मन्नतें उसी रूप में स्वीकार हो जाती थीं, जिसका भारी दुरुपयोग होने लगा. आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य यहां आए और उन्होंने इस दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की. अब यहां सिर्फ यज्ञ एवं अनुष्ठान से मंगलकारी मनोकामनाएं ही पूरी हो सकती हैं. मंदिर के पुजारियों का कहना है कि पुराणों अनुसार यहां पर भगवान शिव ने हजारों साल तपस्या की. बाद में सप्त ऋषियों ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि वह यहां शिवलिंग के रूप में दर्शन दें. जिसके बाद भगवान शिव ने सबसे पहले शिवलिंग के रूप में यहां प्रकट हुए.