नैनीतालः जन आंदोलन से अस्तित्व में आए उत्तराखंड के लिए कई लोगों ने अपनी शहादत दी. इन तमाम शख्सियतों के बीच पृथक राज्य की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन को अपने जनगीतों और कविताओं से धार देते थे गिर्दा. आज जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा की 11वीं पुण्यतिथि है. भले ही आज गिर्दा हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी राज्य आंदोलन के समय हुआ करती थी. चाहे वो नवगठित राज्य में प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो और चाहे बेलगाम होती नौकरशाही.
गिरीश चंद्र तिवारी (गिर्दा) का जन्म 10 सितंबर 1945 में अल्मोड़ा जिले के ज्योलि गांव में हुआ था. गिर्दा ने अपने गीतों, कविताओं से उत्तराखंड के जन आंदोलनों को नई ताकत दी. चिपको, नशा नहीं-रोजगार दो, उत्तराखंड आंदोलन और नदी बचाओ आंदोलन को नए तेवर दिए. उनके गीतों से मिलती ताकत से सोए और निष्क्रिय पड़े लोग भी सोचने पर विवश हो जाते थे.
जनगीतों के नायकः गिरीश चंद्र तिवारी (गिर्दा) उत्तराखंड के एक बहुचर्चित पटकथा, लेकर, गायक, कवि, निर्देशक, गीतकार और साहित्यकार थे. गिरीश चंद्र तिवारी उर्फ 'गिर्दा' को जनगीतों का नायक भी कहा जाता है. राज्य के निर्माण आंदोलन में अपने गीतों से पहाड़ी जनमानस में उर्जा का संचार और अपनी बातों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने का जो हुनर गिर्दा में था, वो सबसे अलहदा था. उनकी रचनाएं इस बात की तस्दीक करती है.
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लखनऊ से शुरू हुआ रचनाओं का सफर: युवा अवस्था में वह रोजगार की तलाश में यूपी के पीलीभीत, अलीगढ़ और लखनऊ आदि शहरों में रहे. लखनऊ में बिजली विभाग तथा लोक निर्माण विभाग में नौकरी करने के कुछ समय बाद ही गिर्दा को 1967 में गीत और नाटक विभाग, लखनऊ में स्थाई नौकरी मिल गई. इसी नौकरी के कारण गिर्दा का आकाशवाणी लखनऊ में आना-जाना शुरू हुआ और उनकी मुलाकात शेरदा अनपढ़, केशव अनुरागी, उर्मिल कुमार थपलियाल और घनश्याम सैलानी से हुई.
शिखरों के स्वरः इस दौरान युवा रचनाकारों के सानिध्य में गिर्दा की प्रतिभा में निखार आया और उन्होंने कई नाटकों की प्रस्तुतियां तैयार की. जिनमें गंगाधर, होली, मोहिल माटी, राम, कृष्ण आदि नृत्य नाटिकाएं प्रमुख है. गिर्दा ने दुर्गेश पंत से साथ मिलकर 1968 में कुमाउंनी कविताओं का संग्रह 'शिखरों के स्वर' प्रकाशित किया. जिसका दूसरा संस्करण 2009 में प्रकाशित किया गया.
कविताओं को बनाया हथियारः गिर्दा ने कुमाउंनी और हिन्दी में कई कविताएं लिखीं. उन्होंने अनेक गीतों और कविताओं की धुनें भी तैयारी की. अंधायुग, अंधर नगरी चौनपट राजा, नगाड़े खामोश हैं. धनुष यज्ञ जैसे अनेक नाटकों का उन्होंने निर्देश भी किया. इस बीच उत्तराखंड में जंगलों के अंधाधुंध कटान के खिलाफ 1974 में चिपको आंदोलन और जंगलात की लकड़ियों के नीलामी के विरोध में गिर्दा जनकवि के रूप में कूद पड़े. नीलामी का विरोध करने वाले युवाओं को गिर्दा के 'आज हिमाल तुमन कैं धत्युछ, जागौ-जागौ हो मेरा लाल' शब्दों ने अपार शक्ति और ऊर्जा प्रदान की.
जब बने उत्तराखंड आंदोलनों के पर्यायः इसके बाद तो गिर्दा ने उत्तराखंड में आंदोलन की ऐसी राह पकड़ी कि वो खुद उत्तराखंड आंदोलनों के पर्याय बन गए, उन्होंने जनगीतों से लोगों को अपने हक-हकूकों के लिए ना सिर्फ लड़ने की प्रेरणा दी. बल्कि, परिवर्तन की आस जगाई. उत्तराखंड के साल 1977 में चले वन बचाओ आंदोलन, 1984 के नशा नहीं रोजगार दो और 1994 में हुए उत्तराखंड आंदोलन में गिर्दा की रचनाओं ने जान फूंकी थी. इतना ही नहीं उसके बाद भी हर आंदोलन में गिर्दा ने बढ़-चढ़कर शिरकत की.
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उन्होंने रचनाओं से हमेशा राजनीति के ठेकेदारों पर गहरा वार किया. राज्य आंदोलन के दौरान लोगों को एक साथ बांधने का काम भी गिर्दा ने किया. सरोवर नगरी नैनीताल में एक आंदोलन में गिर्दा ने हम लड़ते रैया भुला हम लड़ते रूंला.., ओ जैंता एक दिन तो आलो यो दिन यो दुनि मां.., उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि तेरी जैजैकारा.., जन एकता कूच करो.. समेत कई जनगीतों से जान फूंक दी थी. रंगकर्मी जहुर आलम भी गिर्दा को याद करते हुए कहते है.
22 अगस्त 2010 को अचानक गिर्दा की आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई. लेकिन, जो हालात प्रदेश में बने हैं अगर गिर्दा जिंदा होते तो वो अपनी रचनाओं और गीतों से आज भी सत्ता को चुनौती दे रहे होते, उनके साथी और सहकर्मियों का तो ये ही मानना है. ऐसे में गिर्दा से जाने से जो शून्य उत्तराखंड में बना है उसकी भरपाई करना मुश्किल है, हालांकि, गिर्दा का ये गीत 'जैता एक दिन तो आलु, दिन ए दुनि में' हमेशा पहाड़ी जनमानस को सतत संघर्ष के लिए प्रेरित करता रहेगा. इसी संकल्प के साथ उत्तराखंड के हित के लिए दूरदर्शी सोच रखने वाले इस जनकवि की पुण्यतिथि पर ईटीवी भारत इनको नमन करता है.