देहरादून: उत्तराखंड मां सती और मां पार्वती का क्षेत्र है तो यहीं मां नंदा भी है. यहां के हर क्षेत्र में मातृ शक्ति ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है. बात चाहे तीलू रौतेली की हो या फिर जसुली अम्मा की. इनके जीवन वृत्त से आपको कुछ न कुछ प्रेरणा मिलती है.
टिंचरी माई की बात कर लें या फिर रैणी गांव की गौरा देवी की आपको इनके संघर्षों से पता चल जाएगा कि पहाड़ की महिलाएं कितनी मजबूत इच्छा शक्ति को लेकर आगे बढ़ी हैं. लोक गायिका कबूतरी देवी ने अपने सुरों से दुनिया को झूमने पर मजबूर किया तो चंद्रप्रभा ऐतवाल ने एवरेस्ट जैसे दुनिया के सबसे ऊंचे पहाड़ को कदमों के नीचे कर दिया. आइए इनके बारे में जानते हैं.
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उत्तराखंडी वीरांगना तीलू रौतेली: 15 साल की उम्र में अपने राज्य के लिए वीरगति पाने वाली तीलू रौतेली मध्यकाल में गढ़वाल की शासिका रही थीं. तीलू रौतेली के सम्मान में उत्तराखंड सरकार हर वर्ष उल्लेखनीय कार्य करने वाली महिलाओं को सम्मानित करती है. उत्तराखंड के कांडा और बीरोंखाल में हर साल तीलू रौतेली की याद में मेले का आयोजन किया जाता है.
उत्तराखंड में 8 अगस्त को तीलू रौतेली की जयंती मनाई जाती है. उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल में चौंदकोट की 17वीं शताब्दी की इस वीरांगना ने लगातार सात साल तक युद्ध लड़ कत्यूरों को हराया था. कत्यूर कुमाऊं के राजा थे. तीलू रौतेली गढ़वाल के लोगों के बीच गढ़वाल की लक्ष्मीबाई के नाम से भी प्रसिद्ध है.
कौन थीं तीलू रौतेली: तीलू रौतेली चौंदकोट गढ़वाल के गोर्ला रौत थोकदार और गढ़वाल रियासत के राजा फतेहशाह के सेनापति भूप सिंह की बेटी थीं. तीलू का जन्म सन 1661 में हुआ था. तीलू के दो बड़े भाई थे पत्वा और भक्तू. तीलू की सगाई बाल्यकाल में ही ईड़ गांव के सिपाही नेगी भवानी सिंह के साथ कर दी गई थी. तीलू रौतेली का असली नाम तीलोत्मा देवी था. लेकिन चौंदकोट में पति की बड़ी बहन को 'रौतेली' संबोधित किया जाता है. बेला और देवकी भी तीलू को 'तीलू रौतेली' कहकर बुलाती थीं. वीर पत्वा और भक्तू की छोटी बहन तीलू बचपन से तलवार के साथ खेलकर बड़ी हुईं थी. बचपन में ही तीलू ने अपने लिए सबसे सुंदर घोड़ी 'बिंदुली' का चयन कर लिया था.
15 वर्ष की होते-होते गुरु शिबू पोखरियाल ने तीलू को घुड़सवारी और तलवारबाजी में निपुण कर दिया था. वीरांगना तीलू रौतेली की जयंती पर हर साल प्रदेश सरकार महिलाओं को सम्मानित करती है. गढ़वाल की तीलू रौतेली रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, चांदबीबी, जियारानी जैसी वारांगनाओं के समकक्ष मानी जाती हैं. जिन्होंने छोटी सी उम्र में 7 युद्ध लड़कर अदम्य शौर्य का परिचय दिया था.
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लोक गायिका कबूतरी देवी: 70 के दशक में आकाशवाणी से एक गीत आता था 'आज पनी ज्यों-ज्यों, भोल पनी ज्यों-ज्यों पोरखिन न्हें जोंला'… पहाड़ में कबूतरी देवी की आवाज बहुत प्रसिद्ध थी. खासकर खेतों में काम करने वाली महिलाओं के बीच में यह आवाज खूब लोकप्रिय थी. लोक गायिका कबूतरी देवी के गीत आज भी दिल को छूते हैं.
1945 में हुआ था कबूतरी देवी का जन्म: कबूतरी देवी का जन्म 1945 में काली-कुमाऊं (चम्पावत जिले) के एक मिरासी (लोक गायक) परिवार में हुआ था. संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने अपने गांव के देब राम और देवकी देवी और अपने पिता रामकाली से ली, जो उस समय के एक प्रख्यात लोक गायक थे. लोक गायन की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने अपने पिता से ही ली. वे मूल रूप से सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के मूनाकोट ब्लॉक के क्वीतड़ गांव की निवासी थीं, जहां तक पहुंचने के लिये आज भी अड़किनी से 6 किमी पैदल चलना पड़ता है.
आकाशवाणी पर गाने वाली पहली महिला: विवाह के बाद इनके पति दीवानी राम ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और इन्हें आकाशवाणी और स्थानीय मेलों में गाने के लिये प्रेरित किया. उस समय तक कोई भी महिला संस्कृतिकर्मी आकाशवाणी के लिये नहीं गाती थी. कबूतरी देवी ने पहली बार उत्तराखंड के लोकगीतों को आकाशवाणी और प्रतिष्ठित मंचों के माध्यम से प्रचारित किया था. 70-80 के दशक में नजीबाबाद और लखनऊ आकाशवाणी से प्रसारित कुमांऊनी गीतों के कार्यक्रम से उनकी ख्याति बढ़ी. उन्होंने पर्वतीय लोक संगीत को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया था. कबूतरी देवी ने आकाशवाणी के लिए 100 से अधिक गीत गाए.
गायक पवनदीप की नानी थीं कबूतरी देवी: इन दिनों चर्चित गायक और Indian Idol 12 के विजेता पवनदीप राजन उत्तराखंड की पहली लोकगायिका कबूतरी देवी के नाती हैं. दरअसल, गायिका कबूतरी देवी की बहन लक्ष्मी देवी पवनदीप की नानी हैं. अब तक देश-विदेश में 1200 से ज्यादा स्टेज प्रोग्राम कर चुके पवनदीप की एक पहचान ये भी है.
2018 में हुआ था कबूतरी देवी का निधन: पांच जुलाई 2018 को अस्थमा व हार्ट की दिक्कत के बाद रात एक बजे कबूतरी देवी को पिथौरागढ़ के जिला अस्पताल में दाखिल करवाया गया था. उनकी बिगड़ती हालत को देखकर 6 जुलाई को डॉक्टरों ने देहरादून हायर सेंटर रेफर किया था, लेकिन धारचूला से हवाई पट्टी पर हेलीकॉप्टर के न पहुंच पाने के कारण वह इलाज के लिए हायर सेंटर नहीं जा पाईं. इस दौरान उनकी हालत बिगड़ गई और उन्हें वापस जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया. अगले दिन उनका निधन हो गया.
दारमा की जसुली अम्मा: उत्तराखंड के पहाड़ों में आज भी सड़कों के किनारे कई सारे टूटे-फूटे सराय देखने को मिलते हैं. सदियों पुराने यह सभी सराय दारमा की एक महिला जसुली द्वारा बनवाये गये हैं. जसुली बूढ़ी के नाम से विख्यात इस महिला ने अपने जीवन की पूरी कमाई इन्हीं सरायों के निर्माण में लगा दी थी. अपने इस काम के लिए जसुली अम्मा को आज भी याद किया जाता है.
व्यापारी परिवार से थीं जसुली अम्मा: करीब 200 साल पहले पिथौरागढ़ में दारमा के दांतू गांव में जसुली दताल नामक एक महिला थीं. दारमा और निकटवर्ती व्यांस-चौदांस की घाटियों में रहने वाले रं समुदाय के लोग शताब्दियों से तिब्बत के साथ व्यापार करते आ रहे थे. इन्हें कुमाऊं-गढ़वाल इलाके के सबसे संपन्न लोगों में गिना जाता था. अथाह धन संपदा की मालिक जसुली बहुत कम उम्र में विधवा हो गईं. एकमात्र पुत्र भी असमय चल बसा. इससे हताश-निराश जसुली ने एक दिन अपना सारा धन धौलीगंगा नदी में बहा देने का निर्णय लिया.
बताया जाता है कि तब के कुमाऊं कमिश्नर हेनरी रैमजे का काफिला उधर से जा रहा था. हेनरी रैमजे को पता चला कि जसुली दताल अपनी सारी धन-संपदा धौलीगंगा में बहाने जा रही है तो वो वहां पहुंच गए. उन्होंने जसुली को समझाया कि ये धन समाज के उपयोग में लगाया जा सकता है. बस तभी से जसुसी दताल ने अपने धन से व्यापारियों और तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए अनेक धर्मशालाओं का निर्माण करवाया. इस तरह जसुली दताल अपने सामाजिक कार्यों के चलते जसुली अम्मा के नाम से प्रसिद्ध हो गईं.
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दीपा नौटियाल जो बनीं टिंचरी माई: उत्तराखंड जब-जब नशा विरोधी आन्दोलन पर बातचीत होती है, टिंचरी माई का जिक्र हमेशा होता है. टिंचरी माई ने सत्तर के दशक में पहाड़ में शराब विरोधी आन्दोलन चलाया था. एक सामान्य महिला दीपा देवी से टिंचरी माई तक का उनका जीवन का सफर बहुत ही प्रेरणादायी है.
19 साल की उम्र में छूटा पति का साथ: दीपा नौटियाल का जन्म 1917 में पौडी गढ़वाल के थलीसैण तहसील स्थित मंज्युर गांव में हुआ था. 2 साल की उम्र इन्होंने अपनी मां को खो दिया था. पांच साल की उम्र में पिता का देहांत हो गया. सात साल की उम्र में शादी हुई तो 19 साल की उम्र में विधवा हो गईं. दीपा नौटियाल ने इन 19 सालों में जिंदगी के न जाने कितने थपेड़े सहे. लेकिन कभी खुद को टूटने नहीं दिया.
ससुराल वालों ने ठुकराया: दीपा नौटियाल के पति आर्मी में थे और ड्यूटी के दौरान ही शहीद हुए थे. पति की शहादत के बाद दीपा नौटियाल बिल्कुल अकेली हो गई थीं. ससुराल वालों के न अपनाने के कारण दीपा नौटियाल बंजारों की तरह अपना जीवन यापन करने लगीं. इस बीच वे एक मंदिर में आश्रय लेकर रहने लगीं. यहां दीपा की मुलाकात एक संन्यासिन से हुई और उनके जीवन ने नया मोड़ ले लिया. दीपा ने संन्यास ले लिया. दीपा का नया नामकरण हुआ इच्छागिरी माई. अब दीपा नौटियाल जगह-जगह घूम कर लोगों की समस्याओं को सुलझाने और समाज सेवा का कार्य करने लगीं.
दीपा की जिद के आगे झुके थे नेहरू जी: कोटद्वार प्रवास के दौरान वहां के सिगड़ी गांव में पानी की समस्या थी. जब लोकल प्रशासन ने बात नहीं सुनी तो इच्छागिरी माई यानी दीपा नौटियाल दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के आवास के बाहर धरने पर बैठ गईं. जब नेहरू जी अपने आवास स्थल से जाने लगे तो दीपा उनके काफिले के सामने बैठ गयीं. नेहरू जी कौतुहलवश उनका हाथ पकड़कर मामला जानने लगे तो पता चला कि वो तो बुखार से तप रही हैं. उन्हें तुरंत अस्पताल में भिजवाने को कहा. लेकिन दीपा नौटियाल ने पहले पानी की समस्या सुलझाने की मांग रखी. नेहरू जी के हस्तक्षेप के बाद गांव में पानी सुचारू हो सका.
ऐसे पड़ा टिंचरी माई नाम: उत्तराखंड घूमते-घूमते पौड़ी में इच्छागिरी माई उर्फ दीपा नौटियाल ने देखा कि पुरुष शराब के नशे में महिलाओं से अभद्र व्यवहार करते हैं. नशाबंदी के कारण पहाड़ में नशे के लिए आयुर्वेदिक दवाओं का प्रयोग हो रहा था. इन आयुर्वेदिक दवाओं में टिंचरी भी शामिल थी. इसकी मात्रा ज्यादा डालने से शराब के जैसा नशा होता था. दीपा नौटियाल उस दुकान पर पहुंची और मिट्टी का तेल छिड़ककर दुकान में आग लगा दी. तब से उनका नाम टिंचरी माई प्रसिद्ध हो गया.
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रैंणी गांव की गौरा देवी: जब उत्तराखंड के हिमालय के बिल्कुल नजदीक बसे इलाकों को मैदानी लोग पिछड़ा मानते थे, तब उसी हिमालय से पर्यावरण की रक्षक गौरा देवी निकली थीं. चिपको आन्दोलन का नेतृत्व करने वाली महिला गौरा देवी चमोली जिले के रैणी गांव की निवासी थीं. गौरा देवी जंगलों को अपना मायका मानती थीं. जब ठेकेदार जंगल के पेड़ काटने रैणी गांव पहुंचे तो गौरा देवी ने कहा था- “पहले मुझे मारो, फिर काट लो हमारा मायका.
चिपको आंदोलन का नेतृत्व किया: चिपको आंदोलन साल 1973 में चमोली जिले के रैणी गांव से हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए किया गया था. उस दौरान महिलाएं वनों को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक गईं थी. इस आंदोलन का नेतृत्व गौरा देवी ने किया था, जो एक इतिहास बन गईं. वहीं, आंदोलन को मुखर होते देख केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया था.
धारचूला की चंद्रप्रभा ऐतवाल: उत्तराखंड ने एक से बढ़कर एक पर्वतारोही दिए हैं. इनमें महिलाओं ने भी बड़ी सफलताएं हासिल की हैं. चंद्रप्रभा ऐतवाल उत्तराखंड की एक प्रमुख पर्वतारोही रही हैं. धारचूला में जन्मीं चंद्रप्रभा ऐतवाल ने हिमालय की बहुत सी चोटियां चढ़ी हैं. भारत सरकार ने चंद्रप्रभा ऐतवाल को 1981 में अर्जुन अवॉर्ड और 1990 में पद्मश्री सम्मान दिया गया था.
पिथौरागढ़ में जन्मी चंद्रप्रभा ऐतवाल का जन्म 24 दिसंबर 1941 को हुआ. पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय से 96 किमी की दूरी पर बसे दुर्गम पिछड़े क्षेत्र में उस समय न सड़क थी और न ही आवागमन के कोई विशेष साधन थे. पैदल ही एक जगह से दूसरी जगह यात्रा करनी पड़ती थी. अपने स्कूली और कॉलेज के दिनों में चंद्रप्रभा ने दौड़, भाला फेंक, गोला फेंक और डिस्कस थ्रो जैसे खेलों में भी नाम कमाया.
चंद्रप्रभा ने सन् 1972 के जून में बेसिक पर्वतारोहण पाठ्यक्रम एवं सन् 1975 अग्रवर्ती पर्वतारोहण पाठ्यक्रम उत्तरकाशी से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया. 1976 में भारत स्काउट एवं गाइड कोर्स भी आपने उत्तरकाशी से उत्तीर्ण किया. फिर गढ़वाल विश्वविद्यालय से 1979 में अर्थशास्त्र में एमए की उपाधि हासिल की. सन् 1979 फरवरी-मार्च में बेसिक स्कीइंग पाठ्यक्रम तथा सन् 1980 में इंटरमीडिएट स्कीइंग कोर्स उत्तीर्ण किया. पर्वतारोहण के इन कोर्सो को करने के दौरान आपने विभिन्न चोटियों पर चढ़ने में भी सफलता हासिल की. चंद्रप्रभा ऐतवाल ने एवरेस्ट पर भी चढ़ाई की.
एवरेस्ट पर चढ़ने वाली पहली भारतीय महिला बछेंद्री पाल: उत्तरकाशी में जन्मी बछेंद्री पाल एवरेस्ट फतेह करने वाली पहली भारतीय महिला रही हैं. 23 मई 1984 को यह कारनामा करने वाली बछेंद्री पाल भारत की पहली महिला पर्वतारोही बनीं. बछेंद्री को उनके साहसिक कारनामे के लिए सरकार ने पद्मश्री और अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया.
बछेंद्री की पढ़ाई के लिए मां ने बेचा था मंगलसूत्र: बीए पास करने के बाद बछेंद्री पाल को देहरादून से ही एमए करना था. लेकिन उनके परिवार के पास पैसे नहीं थे, जिस बात से वो काफी निराश थीं. फिर एक दिन उनके पिता ने कहा, जाओ देहरादून से एमए करो. लेकिन, पिता ने यह नहीं बताया कि पैसे कहां से आयेंगे. बछेंद्री पाल की मां ने 'तेमन्या' (पहाड़ी महिलाओं का मंगलसूत्र) को बेच दिया था. बछेंद्री पाल ने बताया कि उनकी मां के इस त्याग ने ही उनका पूरा जीवन बदल दिया था.
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बछेंद्री पाल पर्वतारोही बनने के लिए नाकुरी से रेणुका मन्दिर तक रोज चढ़ती थीं. वो चढ़ाई के दौरान एक पत्थर मंदिर के पास रखकर आती थीं और वापसी में वहां से घास लाती थीं. जिससे मां को न लगे कि उनकी बेटी अपना समय बर्बाद कर रही है. पाल ने बताया कि जब वो पर्वतरोहण करने लगीं तो मां ने कहा, बेटी लोग क्या कहेंगे? एमए करवाने के बाद भी बेटी ऐसा काम कर रही है. बछेंद्री पाल ने बताया कि उस दौरान उसने मां से कहा था लोगों को क्या है, एक दिन वो खुद आएंगे और बधाई देंगे.