देहरादून: उत्तराखंड का चर्चित अंकिता भंडारी हत्याकांड (Ankita Bhandari murder case) में जल्द ही तीनों आरोपी पुलकित आर्य, अंकित गुप्ता और सौरभ भाष्कर का पुलिस नार्को टेस्ट करने जा रही है. उम्मीद है कि नार्को टेस्ट (narco test) में कई महत्वपूर्ण सवाल और वीआईपी के नामों का रहस्य खुल सकता है. वहीं, नार्को टेस्ट को लेकर चिकित्सकों की राय है कि यह परीक्षण बेहद ही पेचीदा होता है. इसमें आरोपियों की रजामंदी होना जरूरी है.
नार्को टेस्ट में आरोपी से पूछताछ: नार्को टेस्ट को लेकर मनोचिकित्सक डॉक्टर मुकुल शर्मा का कहना है कि दवा और सोडियम पैंथनॉल इंजेक्शन देने के आधे घंटे के बाद सिर्फ 20 मिनट में इस परीक्षण को करना होता है. शुरुआती समय में नार्को टेस्ट से जुड़े लोगों को सामान्य बातचीत के जरिए उस कड़ी के सवालों से जोड़ा जाता है, जिसको पुलिस की तलाश होती हैं. नार्को टेस्ट में मरीज को निंद्रा स्थिति की में ले जाया जाता है. जिसके बाद उससे इस तरह के सवाल पूछे जाते हैं, जिसमें वह अर्द्धचेतना (सबकॉन्शियस माइंड) से जवाब देता है, यानी उसका चेतन मन (कॉन्शियस) काम नहीं करता.
नार्को टेस्ट से पहले आरोपी का मेडिकल: यही कारण से वह सवालों के जवाब बिना किसी तरह छिपाए दे सकता हैं. मरीज को ज्यादा देर तक इस अवस्था में नहीं रखा जा सकता. क्योंकि इससे उसकी जान को भी खतरा हो सकता है. किसी भी नार्को टेस्ट से पहले मरीज का सामान्य मेडिकल टेस्ट किया जाता है. ताकि उसे किसी तरह की अन्य बीमारी ना हो.
क्या होता है नार्को टेस्ट: नार्को-एनालाइसिस टेस्ट (Narco Analysis Test) को ही नार्को टेस्ट कहा जाता है. आपराधिक मामलों की जांच-पड़ताल में इस परीक्षण की मदद ली जाती है. नार्को टेस्ट एक डिसेप्शन डिटेक्शन टेस्ट (Deception Detection Test) है, जिस कैटेगरी में पॉलीग्राफ और ब्रेन-मैपिंग टेस्ट भी आते हैं. अपराध से जुड़ी सच्चाई और सबूतों को ढूंढने में नार्को परीक्षण काफी मदद कर सकता है.
वरिष्ठ अधिवक्ता चंद्रशेखर तिवारी के मुताबिक नार्को टेस्ट सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सबसे पहले 2002 में गुजरात गोधरा कांड के आरोपियों का किया गया था. उसके बाद कई मामलों में और दिल्ली निर्भया कांड में भी आरोपियों का नार्को टेस्ट किया गया था. चंद्रशेखर ने कहा यह जरूरी नहीं कि नार्को टेस्ट रिपोर्ट को अदालत मान ले, इसमें कोई बाध्यता नहीं है.
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नार्को टेस्ट से पुलिस इन्वेस्टिगेशन में मदद: उन्होंने कहा अपराध की गंभीरता को देखते हुए नार्को टेस्ट के दौरान अगर आरोपी द्वारा जो सवालों के उत्तर दिए जाते हैं, उनको पुलिस इन्वेस्टिगेशन से जोड़ा जाता है. इन्वेस्टिगेशन से अगर नार्को टेस्ट सवालों के जवाब मेल खाते हैं तो, उसको अदालती कार्रवाई में लिया जा सकता है.
नार्को टेस्ट रिपोर्ट की कोर्ट में बाध्यता नहीं: नार्को टेस्ट की मान्यता अदालत में नहीं है, लेकिन सीआरपीसी एक्ट के तहत किसी भी क्राइम की सच्चाई को उजागर करने के लिए पुलिस इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर, एनेस्थीसिया डॉक्टर, मनोचिकित्सक और अन्य विशेषज्ञों की टीम द्वारा नार्को टेस्ट किया जा सकता है. जिसके बाद उस रिपोर्ट के आधार पर अन्य इन्वेस्टिगेशन से लिंक जुड़ने पर कोर्ट में लिया जा सकता है.
नार्को टेस्ट से जान को खतरा: अधिवक्ता चंद्रशेखर तिवारी के मुताबिक वर्ष 2010 में सैलरी वर्सेस कर्नाटक सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिस व्यक्ति की निष्ठा पर हमला हो रहा है. जरूरी नहीं कि उसको आप जबरदस्ती कोई बात उगलवाने चाहे, भले ही वह साइंटिफिक तरीके से ही क्यों ना हो. क्योंकि इस तरह के परीक्षण में उसकी जान को खतरा हो सकता है और उसकी निष्ठा पर भी हमला हो सकता है इसलिए नार्को टेस्ट देने के लिए आरोपी व्यक्ति की मंजूरी होना जरूरी है. नार्को टेस्ट ऐसी साइंटिफिक प्रक्रिया है, जिसमें आरोपी के खिलाफ उसके ही मुंह से सच्चाई उगलवाई जा सकती है. लेकिन यह जरूरी नहीं कि हर बार यह सही ही हो.
इन प्रमुख मामलों में नार्को टेस्ट: कानूनी जानकारों के मुताबिक सबसे पहले 2002 गुजरात दंगों में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर आरोपियों की मंजूरी लेकर नार्को टेस्ट किए गए. इसी तरह निर्भया हत्याकांड, तेलगी कांड, नूपुर हत्याकांड, आरुषि हत्याकांड जैसे मामलों में भी आरोपियों के नार्को टेस्ट हो चुके हैं, लेकिन इस परीक्षण के लिए अभियुक्त की मंजूरी लेना संवैधानिक अधिकार दिया गया है, जो आर्टिकल 20 के तहत आती है.