देहरादून: उत्तराखंड में भाजपा सरकार जल्द ही अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा करने जा रही है, लेकिन 2017 में सत्ता में आने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने प्रदेश की जनता से बहुत सारे वादे किए थे, जिनमें से आज भी कई अधूरे हैं. इन्हीं चुनावी वादों में से एक है लोकायुक्त को 100 दिनों के भीतर गठन करने का दावा, जो शायद न तो अब सरकार को और न ही बीजेपी को याद है. ऐसे में ईटीवी भारत बता रहा है कि वर्तमान में लोकायुक्त की क्या स्थिति है?
भ्रष्ट सरकार, अधिकारियों और नेताओं पर लगाम लगाने के लिए पहली बार 1969 में लोकसभा में लोकपाल बिल पेश किया गया था. जिसे 1971 से लेकर 2008 तक कई संशोधन के बाद इसे देश के लिए लोकपाल और राज्यों के लिए लोकायुक्त के रूप में लागू किया गया, लेकिन उत्तराखंड में लोकायुक्त का गठन न हो इसको लेकर सरकारों ने खूब मेहनत की. सरकारों की नाकामियों का ही नतीजा है कि राज्य गठन के 20 सालों बाद भी प्रदेश में लोकायुक्त का गठन नहीं हो पाया है.
लोकायुक्त का उदेश्य: वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचार को लगाम लगाने के लिए न्यायपालिका और चुनाव आयोग के बाद लोकपाल को तीसरी ऐसी स्वतंत्र संस्था के रूप में स्थापित किया गया था, जिसमें सरकार का कोई दखल ना हो और इसका कामकाज पूरी तरह से स्वतंत्र होकर सरकार, भ्रष्ट नेताओं और कर्मचारियों पर नजर रखा जा सके, लेकिन सरकारों को इस तरह की व्यवस्था बिल्कुल भी रास नहीं आई.
सरकारों ने नहीं किया लोकायुक्त का गठन: जिसकी वजह से आज तक देश में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त की हालात सरकारों के अनुकूल है. उत्तराखंड की बात करें तो यह देश का सबसे पहला ऐसा राज्य था, जहां लोकायुक्त लागू किया गया. लेकिन भाजपा हो या कांग्रेस हर सरकार ने राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते लोकायुक्त का गठन नहीं होने दिया.
उत्तराखंड में लोकायुक्त की कहानी: उत्तराखंड देश का पहला ऐसा राज्य था, जहां 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद खंडूड़ी ने लोकायुक्त अधिनियम को पारित किया था और इसे राष्ट्रपति से भी मंजूरी मिल गई थी, लेकिन प्रदेश में सरकार बदली और कांग्रेस सत्ता में आई. कांग्रेस ने आते ही लोकायुक्त में कई बदलाव किए, जिस पर भाजपा लगातार राग अलापती रही कि प्रदेश में खंडूरी सरकार की तर्ज पर लोकायुक्त लागू होना चाहिए.
2011 में लाया गया था लोकायुक्त बिल
- 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी के कार्यकाल में पेश किया गया, जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बिल को मंजूरी दी थी.
- बाद में मुख्यमंत्री बने विजय बहुगुणा के कार्यकाल में इसे निरस्त कर दिया गया.
- 2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार ने इसे दोबारा विधानसभा में पेश किया.
- बाद में इसे प्रवर समिति को भेज दिया गया.
कांग्रेस लाई थी लोकायुक्त प्रस्ताव: कांग्रेस ने दो बार संशोधित लोकायुक्त प्रस्ताव विधानसभा में पास कर के राज्यपाल को भी भेजा, लेकिन हर बार भाजपा द्वारा इसमें अड़चन डाली गई. वो भी तब जब नेता प्रतिपक्ष द्वारा इसमें सहमति होती है. ऐसे में कांग्रेस के पूरे 5 साल निकल गए और 2017 में विधानसभा चुनाव का वक्त आ गया. भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में सरकार बनते ही 100 दिनों के भीतर लोकायुक्त के गठन का वादा किया और सत्ता में आगई.
ठंडे बस्ते में लोकायुक्त: सरकार बनते ही बीजेपी लोकायुक्त को ठंडे बस्ते में डाल दिया. उत्तराखंड में भाजपा सरकार के 5 सालों का कार्यकाल अब लगभग पूरा होने जा रहा है. हालांकि, इस दौरान प्रदेश में तीन मुख्यमंत्री बदल दिए गए. इन तीनों मुख्यमंत्रियों में से त्रिवेंद्र रावत का कार्यकाल सबसे बड़ा करीब चार सालों का रहा. त्रिवेंद्र ने भी लोकायुक्त को लेकर कभी पहल नहीं की. जबकि खुद को भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की सरकार बताते रहें.
'लोकायुक्त की जरूरत नहीं': वहीं, भाजपा कार्यकाल के आखिरी मॉनसून सत्र में यह उम्मीद भी टूट गई. ऐसे में लगता है कि भाजपा सरकार के कार्यकाल में लोकायुक्त का गठन नहीं हो पाएगा. इस संबंध भाजपा का यह कहना है कि प्रदेश में लोकायुक्त की जरूरत ही नहीं है. सरकार ईमानदारी से काम कर रही है, लेकिन सवाल यह भी उठता है कि अगर सरकार ईमानदारी से काम कर रही है तो फिर लोकायुक्त से डर किस बात का.
व्यवसायीकरण की ओर सरकार: वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि सरकारी कभी भी अपने ऊपर किसी भी स्वतंत्र संस्था को बर्दाश्त नहीं कर पाती है. देश में जब लोकतंत्र की स्थापना हुई थी तो सरकारें राष्ट्र और राज्यों को विकसित करने और उनके हितों को साधने के उद्देश्य से बनाई गई थी, लेकिन कालांतर के बाद राजनीति में आने वाले लोगों के उदेश्य बदल चुके हैं. आज सरकार पूरी तरह से व्यवसायीकरण की ओर है. व्यवसायीकरण के इस दौर में अगर भ्रष्टाचार पर लगाम लगाया जाएगा तो यह किसी भी सरकार को मंजूर नहीं होगा.
लोकायुक्त के लिए 2 करोड़ खर्च: यही वजह है उत्तराखंड में सत्ता पाने वाली कांग्रेस और बीजेपी की सरकारें लोकायुक्त को लेकर अपनी मंशा जाहिर कर चुकी हैं. हैरान करने वाली बात यह है कि खुद को जीरो टॉलरेंस और ईमानदार सरकार बताने वाली भाजपा जब तक विपक्ष में थी, तब लोकायुक्त को लेकर खूब हल्ला मचाती थी, लेकिन सत्ता में आने के बाद अब तक लोकायुक्त को तकनीकी अड़चनों की आड़ में विधानसभा की संपत्ति बना कर रखा हुआ है. जो जीरो टॉलरेंस की भाजपा सरकार की मंशा को साफ जाहिर करती है. लोकायुक्त लागू होने के बाद वर्ष 2011 से अब तक लोकायुक्त कार्यालय और अन्य मदो में तकरीबन 2 करोड़ का खर्च किया जा चुका है, लेकिन राज्य को इसका कोई लाभ नहीं मिल पाया है.
सरकार भूल गई लोकायुक्त: वहीं, कांग्रेस ने प्रदेश में लोकायुक्त ना होने के पीछे भाजपा को जिम्मेदार बताया है. साथ ही कांग्रेस अपनी उपलब्धि मानती है कि उसने प्रदेश में लोकायुक्त का गठन किया था, लेकिन भाजपा ने उसे चलने नहीं दिया. भाजपा 100 दिनों के भीतर लोकायुक्त गठन करने की बात कहकर सत्ता में आ गई. अब भाजपा सरकार विदाई की ओर है, लेकिन लोकायुक्त को लेकर भाजपा सरकार हिम्मत नहीं उठा पाई है. कांग्रेस प्रवक्ता गरिमा दसौनी का कहना है कि यह कांग्रेस सरकार की हिम्मत थी उन्होंने लोकायुक्त का गठन किया, लेकिन भाजपा सरकार अपने कुकर्मों को छुपाने के लिए लोकायुक्त का गठन कभी कर ही नहीं सकती है.
भारत में लोकपाल: केन्द्रीय स्तर पर लोकपाल एवं राज्य स्तर पर लोकायुक्त संस्थाओं की स्थापना के लिए बहुप्रतीक्षित लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 (2014 का अधिनियम सं. 1) संसद द्वारा वर्ष 2014 में पारित हुआ. इसे दिनांक 1 जनवरी, 2014 को महामहिम राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई. भारत के राजपत्र में प्रकाशित अधिसूचना दिनांक 16 जनवरी, 2014 के द्वारा इस अधिनियम के उपबन्ध दिनांक 16 जनवरी, 2014 से प्रवृत्त किये गये हैं.