भोपाल : अब से करीब 88 साल पहले 2 दिसंबर 1933 को जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मध्य प्रदेश के दमोह आए थे. उस समय उन्हें भी शायद इस बात का अंदाजा नहीं होगा कि उनके कहे गए कुछ वाक्य दमोह वासियों के लिए मूल मंत्र बन जाएंगे. वह वाक्य न केवल आजादी के इतिहास में अमर हो जाएंगे, बल्कि दमोह जिले को भी भारत का पहला नशा मुक्त जिला बना देंगे. गांधीजी ने अपने संक्षिप्त कार्यक्रम में दमोह को कुछ अविस्मरणीय सौगातें भी दी थी, जो आज भी धरोहर के रूप में मौजूद है.
सड़कों पर उमड़ा था हुजूम
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी झुन्नी लाल वर्मा और सेठ लाल चंद जैन सागर जिले के ग्राम बलेह में जब गांधीजी की अगवानी करने के लिए पहुंचे, तो उन्होंने कहा कि आप लोग चलिए मैं पैदल ही गढ़ाकोटा के रास्ते दमोह आ रहा हूं. इस खबर के बाद तो मानो दमोह वासियों में नई ऊर्जा का संचार हो गया. चारों तरफ फूल मालाओं, रंगोली और झंडों से दमोह को दुल्हन की तरह सजा दिया गया. पग-पग पर लोग हाथों में स्वागत के थाल लिए गांधीजी की राह देखने लगे. जैसे ही गांधीजी दमोह पहुंचे तो लोगों का हुजूम उनकी एक झलक पाने के लिए उमड़ पड़ा.
वाल्मीकि गुरद्वारे की रखी थी नींव
सबसे पहले राष्ट्रपिता बजरिया वॉर्ड नंबर-3 में पहुंचे और वहां पर हरिजन उद्धार के लिए वाल्मीकि गुरुद्वारा साहिब की नींव रखी. इसके बाद वह सीधे सभा स्थल मोरगंज गल्ला मंडी पहुंचे, वहां पर पहला स्वागत भाषण तत्कालीन एमएलसी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी झुन्नीलाल वर्मा ने दिया था. इसके बाद गांधीजी का उद्बोधन हुआ.
आजादी के आंदोलन से जुड़े कई पहलुओं को उन्होंने जनता के सामने रखा. उस समय महज 700 रुपए में गुरुद्वारा बनकर तैयार हो गया था. हरिजन सेवक संघ ने गुरुद्वारा निर्माण के लिए 200 रुपए की राशि भी दान की थी. बाकी पांच सौ रुपए चंदा से एकत्र हुए थे. गुरुद्वारे का निर्माण सेवक संघ के तत्कालीन अध्यक्ष टीएस काशिव की देखरेख में हुआ था.
देश का पहला नशा मुक्त जिला बना था दमोह
स्वतंत्रता सेनानी झुन्नीलाल वर्मा के बेटे साहित्यकार सत्य मोहन वर्मा बताते हैं कि अपने भाषण के अंत में गांधीजी ने लोगों से अह्वान करते हुए उन्हें यह संकल्प दिलाया था कि दमोह के लोग अब किसी भी तरह का कोई नशा नहीं करेंगे. उनके इस एक वाक्य ने लोगों पर ऐसा जादू किया कि 1934 तक पूरा दमोह जिला भारत का पहला नशा मुक्त जिला बन गया. इसके लिए लोगों से किसी तरह की कोई जोर जबरदस्ती नहीं की गई, न पाबंदी लगाई गई थी. लोगों ने स्वेच्छा से ही हर तरह के नशे का त्याग कर दिया और आजादी के आंदोलन में अपने आप को झोंक दिया.
जबलपुर से बुलाए गए थे लाउड स्पीकर
सत्य मोहन वर्मा बताते हैं कि जिस वाल्मीकि गुरुद्वारे का गांधीजी ने शिलान्यास किया था, वह हरिजनों के उद्धार और उनका जीवन स्तर ऊपर उठाने की दिशा में की गई एक पहल थी. उन दिनों दमोह में किसी तरह की कोई विशेष सुविधाएं नहीं थीं. इसलिए गांधीजी की सभा और उनके शब्द सभी के कानों में पड़ जाएं, इसके लिए पहली बार जबलपुर से लाउड स्पीकर बुलाए गए थे.
स्वतंत्रता संग्राम के लिए लोगों ने दिया था चंदा
स्वतंत्रता संग्राम के लिए उस समय धन की बहुत अधिक कमी थी. गांधीजी यह बात जानते थे कि बगैर धन के स्वतंत्रता आंदोलन को अनवरत चलाए रखना संभव नहीं है. इसलिए उन्होंने दमोह वासियों के सामने अपनी झोली फैला दी. इसके बाद तो लोगों ने जिसके पास जो कुछ था गांधीजी को दान कर दिया. महिलाओं ने अपने गहने, छुटपुट जमा पूंजी तक उन्हें दान करके अपने आप को धन्य महसूस किया. सत्य मोहन वर्मा की माताजी ने भी सोने की एक अंगूठी गांधीजी की झोली में डाल दी थी. गांधीजी के सम्मान के लिए उन्हें दमोह वासियों की ओर से एक मानपत्र भी भेंट किया गया था.
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हर धर्म के लोग थे मौजूद
यह वह दौर था जब जात-पात की जंजीरों में पूरा देश जकड़ा हुआ था. उसके बाद भी गांधीजी की एक झलक पाने और उन्हें सुनने के लिए हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध सहित सभी धर्मों और संप्रदाय के लोग पहुंचे थे. अंग्रेजों का शासन होने के बाद भी क्रिश्चियन कम्युनिटी के लोगों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. वर्मा बताते हैं कि आजाद भारत में जब श्यामाचरण शुक्ला मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब गोरेलाल शुक्ला के संपादन में "मध्यप्रदेश में गांधी" नामक एक संस्मरण प्रकाशित किया गया था. जिसमें दमोह में गांधीजी की यात्रा का एक विस्तृत विवरण दिया गया है. गांधीजी जिस खुली जीप में सवार थे, उस जीप को डॉक्टर भवानी प्रसाद दुआ चला रहे थे.
55 किलो के गुरुग्रंथ साहिब हैं विराजमान
गांधी जी चाहते थे कि भारत में किसी तरह का कोई छुआछूत न रहे. इसी के मद्देनजर उन्होंने हरिजनों के उत्थान के लिए भी आंदोलन चलाया. वाल्मीकि समाज का गुरुद्वारा भी उसी का एक हिस्सा है. वाल्मीकि गुरुद्वारे के वर्तमान ग्रंथि 88 वर्षीय हरीसिंह पारोचे बताते हैं कि आज भी गुरुद्वारे में प्रतिदिन श्री गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ होता है. जो गुरू ग्रंथ साहिब वाल्मीकि गुरुद्वारे में विराजमान है, ऐसे केवल दो ही गुरु ग्रंथ साहिब भारत में हैं. एक अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में स्थापित है और दूसरा दमोह में. वे बताते हैं कि इस गुरु ग्रंथ साहिब का वजन 55 किलो है. वे बताते हैं कि इस गुरु ग्रंथ साहिब की यह विशेषता है कि इसे हर कोई नहीं पढ़ पाता है. क्योंकि इसकी लाइनों में प्रत्येक शब्द के बाद मूड़ा नहीं कटे हैं. जिसके कारण 1 शब्द का अर्थ दूसरे शब्द में समाहित हो जाता है. पारोचे बताते हैं कि जो कुछ भी चढ़ावा आता है वह इसी गुरुद्वारे की देखरेख में लगा दिया जाता है.
एक टीस जो अब भी है
गांधीजी का दमोह आगमन दमोह वासियों के लिए एक स्वर्णिम यादें हैं तो बाल्मीकि समाज के लिए एक टीस भी है. ग्रंथि हरीसिंह पारोचे कहते हैं कि वह लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी और तमाम मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर बजरिया वार्ड-3 का नाम बदलकर महात्मा गांधी वार्ड रखने का निवेदन कर चुके हैं. हमेशा आश्वासन मिलता रहा है, लेकिन आज तक शासन-प्रशासन ने वॉर्ड का नाम नहीं बदला. तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह भी गुरुद्वारे में आकर अरदास कर चुके हैं, लेकिन आश्वासन देने के बाद वह भी नाम नहीं बदलवा पाए. इस बात का मलाल वाल्मीकि समाज को अब तक है.